किसान की ज़मीन पर देश के राजनीतिक दल वोटों की फसल उगाने की पुरजोर कोशिश में जुटे हुए हैं. राजधानी दिल्ली में संसद से सड़क तक, रामलीला मैदान से जंतर-मंतर तक भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के ़िखला़फ नित नए राजनीतिक रंग दिखाई पड़ रहे हैं. सबके पास स्क्रिप्ट एक ही है, हर दिन केवल किरदार बदल रहे हैं.

11111111राजनीतिक दल हों या ग़ैर-राजनीतिक, हर कोई केंद्र सरकार पर वर्ष 2013 के भूमि अधिग्रहण क़ानून में किए गए बदलाव वापस लेने का दबाव बनाने की कोशिश में है. ऐसी ही एक कोशिश रामलीला मैदान में कांग्रेस और जंतर-मंतर में आम आदमी पार्टी ने भी की. कांग्रेस की रैली गुटबाजी की भेंट चढ़ गई, तो आम आदमी पार्टी की रैली को किसान गजेंद्र सिंह की मौत ने कलंकित कर दिया. 19 अप्रैल को हुई कांग्रेस की रैली को किसान-खेत मज़दूर रैली नाम दिया गया था, लेकिन यह रैली पूरी तरह कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के अज्ञातवास के बाद राजनीतिक वापसी पर केंद्रित थी. रैली से दो दिन पहले राहुल गांधी देश वापस आए. अगले दिन उन्होंने किसानों से मुलाकात की और 19 अप्रैल को रामलीला मैदान से मोदी सरकार को वर्ष 2013 के क़ानून में बदलाव न करने देने की चुनौती दे डाली. तक़रीबन दो महीने लंबी छुट्टी के बाद लौटे कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने देश भर से आए किसानों को संबोधित करते हुए उन्हें आश्वासन दिया कि वह उनकी लड़ाई लड़ेंगे.
राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर आरोप लगाते हुए कहा कि उन्होंने लोकसभा चुनाव के लिए उद्योगपतियों से कर्ज लिया था, जिसे अब वह किसानों की ज़मीन छीनकर चुकाना चाहते हैं और इसके लिए वर्ष 2013 में बना भूमि अधिग्रहण क़ानून बदलना चाहते हैं. राहुल ने कहा कि मोदी ने उद्योगपतियों को बताया था कि गुजरात मॉडल के आधार पर पूरे देश के किसानों की ज़मीन छीनी जा सकती है. अब मोदी गुजरात मॉडल को पूरे देश में लागू करके देश की नींव यानी किसान और खेती को कमजोर करना चाहते हैं. ऊपर से चमकाना और नींव कमजोर करना उनकी गवर्नेंस का मूल सार है. राहुल गांधी ने नरेंद्र मोदी की मेक इन इंडिया योजना पर निशाना साधते हुए कहा कि यदि देश को मेक इन इंडिया की ज़रूरत है, तो किसानों की भी ज़रूरत है. किसानों के बच्चों के लिए शिक्षा और उनके उज्ज्वल भविष्य की भी ज़रूरत है. लेकिन, इसके लिए पांच साल तक इस्तेमाल न होने वाली ज़मीन को किसानों को वापस किए जाने वाले प्रावधान को बदलने की क्या ज़रूरत थी? मोदी जी लैंड बैंक बनाकर किसानों की ज़मीन वापस नहीं करना चाहते हैं, वह किसानों को मज़दूर बनाना चाहते हैं. देश में जहां कहीं भी ज़मीन की लड़ाई होगी, कांग्रेस पार्टी आपको वहां दिखाई देगी. कांग्रेस किसानों के हक़ की लड़ाई लड़ती रहेगी.
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने रैली को संबोधित करते हुए कहा कि मोदी सरकार किसानों के ़िखला़फ षड्‌यंत्र रच रही है. रैली में बड़ी संख्या में आए किसानों को देखकर हमारा आत्मविश्वास बढ़ा है. हम किसानों की तकलीफों को इतनी बेदर्दी से नज़रअंदाज़ नहीं होने देंगे. देश की जनता सरकार के खोखले वादों को समझ चुकी है. सबका साथ-सबका विकास का नारा लगाने वालों को किसानों की सहमति और साथ की ज़रूरत नहीं है. कहां हैं वे लोग, जो कह रहे थे कि अब किसानों को आत्महत्या नहीं करनी पड़ेगी और उन्हें साहूकारों के पास नहीं जाना पड़ेगा. मोदी सरकार का रवैया मज़दूरों, किसानों के ़िखला़फ है. हम सबके हितों की रक्षा के लिए संघर्ष करेंगे. किसानों की आवाज़ न दबी है और न दबेगी. इस किसान रैली का आयोजन भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के ़िखला़फ किसानों की आवाज़ केंद्र सरकार तक पहुंचाने के लिए किया गया था, लेकिन किसानों के हितों की लड़ाई गुटबाज़ी में फंसती दिखी. मोदी सरकार को ताकत दिखाने की जगह कांग्रेसी नेताओं के बीच पार्टी आलाकमान के सामने खुद को एक-दूसरे से ज़्यादा ताकतवर दिखाने की होड़ मची थी.
हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अशोक तंवर के बीच की रस्साकशी रैली में उनके समर्थकों के व्यवहार से जगजाहिर हो गई. रैली में बड़ी संख्या में गुलाबी पगड़ी पहन कर हरियाणा से आए हुड्डा समर्थकों ने अशोक तंवर के भाषण का विरोध करना शुरू कर दिया. ऐसे में हरियाणा में किसानों का आंदोलन कैसे परवान चढ़ेगा, यह खुद-ब-खुद समझ में आ जाता है. इस तरह की गुटबाजी के उभर कर सामने आने से एक बात तो जाहिर हो जाती है कि राज्यों में कांग्रेस की ओर से भूमि अधिग्रहण के ़िखला़फ ज़मीनी तौर पर कुछ नहीं होने जा रहा. भूमि अधिग्रहण के बहाने कांग्रेस अपनी सियासी ज़मीन तैयार करने में जुटी है. उसे बिहार और उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव की चिंता है, लेकिन मंच से पार्टी ने किसी योजनाबद्ध कार्यक्रम की घोषणा नहीं की, जिससे राज्य स्तर पर वह एक बार फिर खड़ी हो पाती. भूमि अधिग्रहण के ़िखला़फ कब, क्या और कैसे करना है, इसकी घोषणा न होने से कार्यकर्ता निराश हैं.
उत्तराखंड के पिथौरागढ़ से रैली में आईं तारा पांगती ने कहा कि यदि मंच से राज्यों में होने वाले कार्यक्रमों की घोषणा की जाती, तो किसानों एवं कार्यकर्ताओं के बीच अच्छा संदेश जाता. किसानों की माली हालत पहले ही ठीक नहीं है, ऐसे में वे विरोध प्रदर्शन करने दिल्ली नहीं आ सकते. स्थानीय स्तर पर पूरे देश में एक साथ विरोध प्रदर्शन होने से ही सरकार पर दबाव बन सकेगा और किसानों की भागीदारी सुनिश्चित की जा सकेगी. रैली में शामिल होने आए अधिकांश लोगों का कहना था कि भूमि अधिग्रहण आंदोलन की कमान सोनिया गांधी को अपने हाथों में रखनी चाहिए, इससे विरोध-प्रदर्शन को ताकत मिलेगी. पंजाब के पटियाला से आए प्रवीण कुमार ने कहा कि राहुल गांधी के इतने लंबे समय तक देश से बाहर रहने का असर पड़ेगा. यदि अब राहुल किसानों के पास जाएंगे, तो सवाल उठेगा कि वह उनकी परेशानी के समय कहां थे? ऐसे में, कमान सोनिया गांधी को ही संभालनी चाहिए, ताकि पार्टी और उसके रुख की विश्वसनीयता बनी रहे. राजस्थान के दौसा से आए किसान कैलाश चंद्र मीणा ने कहा, हमें मोदी का रा़ेजगार नहीं, हमारी ज़मीन ही चाहिए. ज़मीन हमारी मां है, हम उसके सहारे अपना जीवन गुजार लेंगे. राजस्थान के ही अलवर ज़िले के गांव बानसूर से आए महेश चंद्र सैनी ने कहा कि यदि राहुल गांधी और कांग्रेस को सदबुद्धि आई होगी, तो वह देश भर में घूमेंगे और किसानों से मिलेंगे.
अलवर की अंजू यादव ने कहा कि हम सरकार को अपनी ज़मीन नहीं लेने देंगे. सरकार पहले नौकरी दे, फिर ज़मीन ले. यदि सरकार ऐसा नहीं करेगी, तो ज़मीन हमारी है, हम नहीं देंगे. राजस्थान के कटीघाटी-भगोड़ा से आईं रीता देवी ने कहा कि हमने कांग्रेस को दस साल सहयोग किया, उसने हमारे लिए कुछ नहीं किया और इस बार मोदी को वोट दिया, वह भी वादा करके पलट गया. सरकार केवल अमीरों की सुन रही है, उसे किसानों की फिक्र नहीं है. सरकार को किसानों की ज़मीन उनसे पूछे बगैर नहीं लेनी चाहिए. सरकार सिंचाई वाली ज़मीन ले रही है, ऐसे में किसान कहां जाएगा? अधिकांश किसान कांग्रेस की रैली में शामिल होने इस आशा से आए थे कि उन्हें बेमौसम बारिश से हुए नुक़सान का मुआवजा जल्दी मिल जाएगा. अधिकतर किसान भूमि अधिग्रहण का सवाल पूछने पर जवाब नहीं दे पाए. जो बोले भी, तो वे घूम-फिरकर मुआवजे पर लौट आए. रैली को लेकर किसानों में कोई विशेष उत्साह नज़र नहीं आया. यही वजह थी कि राहुल और सोनिया के भाषण के दौरान ही किसानों ने रामलीला मैदान छोड़ना शुरू कर दिया था.
वहीं जंतर-मंतर में भूमि अधिग्रहण अध्यादेश का विरोध करने उतरी आम आदमी पार्टी की रैली राजस्थान के दौसा से आए किसान गजेंद्र सिंह द्वारा आत्महत्या करने के बाद तमाशा बन गई. खेत-किसान का रखे ख्याल, हमारा नेता केजरीवाल जैसे नारों के साथ शुरू हुई इस रैली में पूरी दिल्ली सरकार मौजूद थी, लेकिन गजेंद्र की मौत ने रैली का नज़ारा बदल दिया. किसानों के भले के लिए अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट लागू करने की बात कही. उन्होंने कहा कि उनकी सरकार अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखकर उनसे आग्रह करेगी कि यदि अध्यादेश किसान विरोधी है, तो वे इसकी सार्वजनिक रूप से घोषणा करें. इससे केंद्र सरकार के पास एक कड़ा संदेश जाएगा. केजरीवाल ने कहा कि अध्यादेश आपात स्थिति में लाया जाता है. ऐसी कौन-सी योजना है, जिसके लिए भूमि अधिग्रहण आवश्यक हो गया और सरकार को दो बार अध्यादेश लाना पड़ा? यदि ऐसी कोई योजना नहीं है, तो इसका सीधा-सा मतलब है कि यह अध्यादेश व्यवसायिक घरानों के ़फायदे के लिए लाया गया है.


…और गजेंद्र मर गया
आपको फिल्म पीपली लाइव का नत्था तो याद ही होगा. इस फिल्म में एक किसान की आत्महत्या का सीधा प्रसारण दिखाने के लिए टीवी चैनल दिल्ली से पीपली गांव तक पहुंच जाते हैं. लेकिन गजेंद्र सिंह की कहानी रील लाइफ से ठीक उलट है. फिल्म में कैमरे नत्था के पास जाते हैं, लेकिन यहां गजेंद्र खुद ही कैमरे के सामने आया. गजेंद्र ने भूमि अधिग्रहण के ़िखला़फ हो रही राजनीतिक रैली में मौत को गले लगा लिया. वह भी देश की संसद से महज एक किलोमीटर की दूरी पर. एक आम किसान को अपनी तकलीफ, बेबसी और लाचारी का एहसास दुनिया को कराने के लिए शायद इससे बड़ा मंच नहीं मिल सकता था. उसने इस मा़ैके का ़फायदा उठाते हुए किसानों की दशकों पुरानी पीड़ा कुछ ही पलों में सियासी गलियारों तक पहुंचा दी. जीते जी जिसकी बदहाली पर किसी का दिल नहीं पसीजा, उस किसान की मौत की ़खबर मिलते ही सियासी मर्सिया पढ़ा जाने लगा. प्रधानमंत्री से लेकर आम आदमी तक उस किसान के प्रति संवेदना व्यक्तकरने लगे. एक ऐसा किसान, जिसे फसल खराब होने के बाद उसके पिता ने घर से निकाल दिया था और वह घर लौटने का रास्ता तलाश रहा था. जिन किसानों के नाम पर जंतर-मंतर पर रैली हो रही थी, उन्हीं में से एक किसान मौत को गले लगा रहा था, लेकिन उसके मरने से पहले और बाद तक सियासत जारी है और जारी रहेगी. जिस मुआवज़े और सांत्वना के लिए किसान जीते जी तरसता रहा, वह सब उसे इस दुनिया से रुखसत होने के बाद हासिल हुआ. एक आम किसान मौत के बाद हर राजनीतिक दल का किसान बन गया.


बिखरे-बिखरे जन संगठन
24 फरवरी को जंतर-मंतर से भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के ़िखला़फ बिगुल फूंकने वाले समाजसेवी अन्ना हजारे एक बार फिर अलग-थलग नज़र आ रहे हैं. 12 अप्रैल को अन्ना ने पुणे में एक बैठक की, जिसके लिए विभिन्न राज्यों के चुनिंदा लोगों को बुलाया गया था. बैठक में शामिल हुए उत्तराखंड के भोपाल सिंह चौधरी ने बताया कि अन्ना द्वारा शुरू किए गए भूमि अधिग्रहण विरोधी आंदोलन को दूसरे संगठनों ने हथिया लिया है. पुणे में एक नए संगठन के बारे में चर्चा हुई, लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला. बैठक के दौरान वर्धा में हुए कार्यक्रम के बारे में जानकारी मिली कि वहां मेधा पाटकर और पीवी राजगोपाल के बीच मतभेद हो गए, वहां दो अलग-अलग बैठकें हुईं. इसके बाद अन्ना ने एकता परिषद की यात्रा से खुद को अलग कर लिया और यात्रा रद्द कर दी गई. पुणे में अन्ना की बैठक में शामिल हुए किसान मंच के उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष शेखर दीक्षित ने बताया कि बैठक का परिणाम कुछ नहीं निकला. हालांकि, बैठक में शामिल होने के लिए कर्नाटक, तमिलनाडु, गुजरात, उत्तराखंड आदि राज्यों के जनसंगठनों के प्रतिनिधि आए थे. चर्चा हुई कि आंदोलन को कैसे बड़ा बनाया जाए और कहा गया कि बार-बार रणनीति बदलने और बनाने से कुछ नहीं होगा. गांव-गांव जाकर लोगों को जागरूक नहीं किया जाएगा, तो सरकार नहीं झुकेगी. बार-बार बैठक करने से आंदोेलन नहीं चलेगा और केवल दिल्ली में प्रदर्शन नहीं करना चाहिए. उधर, नेशनल एलायंस फॉर पीपुल्स मूवमेंट (एनएपीएम) के घटक संगठन आगामी पांच मई को दिल्ली में होने वाली भूमि अधिकार संघर्ष रैली के लिए लोगों को जागरूक करने में लगे हैं, लेकिन उसका असर लोगों के बीच होता नहीं दिख रहा है. मुंबई में हुए समाजवादी समागम में पांच मई के कार्यक्रम के संबंध में भी बात हुई, लेकिन राजनीतिक दलों के साथ कांस्टीट्यूशन क्लब में हुई बैठक के बाद जो प्रस्ताव पारित हुए थे और जिन जगहों पर भूमि अधिग्रहण के ़िखला़फ राज्यस्तरीय और जिलास्तरीय कार्यक्रमों की घोषणा हुई थी, उनके संबंध में कोई ़खबर दिल्ली तक नहीं पहुंच रही है. फिलहाल भू-अधिकार आंदोलन के तथाकथित नेतागण अपने-अपने पारंपरिक कामों में व्यस्त दिखाई दे रहे हैं. कहीं पर भी एकीकृत तरीके से प्रदर्शन नहीं हो रहे हैं, जिससे सरकार पर कोई असर होता दिखाई दे. मध्य प्रदेश के भोपाल में रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता अजय गौड़ का कहना है कि हम लगातार भूमि अधिग्रहण को लेकर धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं. हमारे साथ शहरी वर्ग की हमदर्दी है, लेकिन हम इस आंदोलन में किसानों की भागीदारी सुनिश्चित नहीं कर पा रहे हैं और इसका असर आंदोलन पर पड़ रहा है. इसके अलावा बार-बार नेतृत्व और रणनीति में बदलाव से लोगों का विश्वास कम हो रहा है, वे आंदोलन में भागीदारी से कतरा रहे हैं.

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