महंगी ब्रांडेड दवाएं खरीदने में असमर्थ गरीब मरीजों के लिए जन औषधि केंद्र लाइफलाइन की तरह हैं. सस्ते दर पर बेहतर क्वालिटी की दवा उपलब्ध कराने के लिए यूपीए सरकार ने 2008 में जन औषधि केंद्र खोले जाने की योजना बनाई. अब मोदी सरकार इस योजना को विस्तार देते हुए प्रधानमंत्री जन औषधि योजना के तहत 2017 तक 3000 जन औषधि केंद्र खोलना चाहती है. लेकिन हालात ये हैं कि राजस्थान, उत्तराखंड, आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल में खुले सभी जन औषधि केंद्र बंद हो चुके हैं. 2014 तक 178 जन औषधि केंद्र 16 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में खोले गए थे, जिसमें मात्र 98 ही कार्यरत हैं. लगभग आधे जन औषधि केंद्रों को सरकारी प्रोत्साहन के अभाव में बंद करना पड़ा. जरूरत थी कि योजना की विफलता से सबक लेते हुए कोई ठोस कारगर नीति अमल में लाई जाए, ताकि जन औषधि केंद्रों को एक लाभकारी संस्था में बदल गरीबों को सस्ते इलाज का भरोसा दिलाया जा सके.
एनजीओ ने लगाया योजना को पलीता
दिल्ली में इस योजना के नोडल ऑफिसर अवधेश कुमार ने बताया कि शुरू में कई एनजीओ ने इस योजना का अनुचित लाभ उठाया. उन्होंने सरकार से जन औषधि केंद्र खोले जाने के नाम पर ढाई लाख रुपये की प्रोत्साहन राशि ले ली. उन्होंने कुछ महीने तक दिखावे के लिए जन औषधि केंद्र चलाया और फिर घाटा होने का बहाना बनाकर बंद कर दिया. इससे सबक लेते हुए सरकार अब किसी जन औषधि केंद्र को 15 महीने तक चालू रखने पर ही पूरी रकम किश्तों में उपलब्ध कराती है. अगर कोई केंद्र 15 माह तक खुला रहा, तो स्वाभाविक रूप से बिक्री होने लगती है.
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एक साल में कैसे खुलेंगे 3000 केंद्र
सस्ते दर पर दवा उपलब्ध कराने के लिए सरकार ग्रामीण इलाकों व हर जिले में एक जन औषधि केंद्र खोलना चाहती हैै. 2017 तक ही 3000 जन औषधि केंद्र खोले जाने हैं, लेकिन आलम यह है कि मई 2016 तक जन औषधिकेंद्र खोले जाने के लिए मात्र 800 आवेदन ही आए हैं. ऐसे में एक साल के अंदर 3000 जन औषधि केंद्र खोले जाने का लक्ष्य सरकार के लिए दिवा स्वप्न ही साबित होगा. जन औषधि केंद्रों की विफलता से निराश होकर लोग अब इन केंद्रों के खोले जाने में रुचि नहीं दिखा रहे हैं.
अनुमान है कि देश भर में आठ लाख से अधिक रिटेल फार्मेसी स्टोर्स हैं. जब तक सभी जिले में एक जन औषधि केंद्र नहीं खुल जाता, तब तक यह समुद्र में एक बूंद के समान ही होगा. जहां फार्मेसी कंपनियां अस्सी हजार करोड़ रुपये से अधिक घरेलू बाजार में दवाओं की बिक्री कर रही हैं, वहीं जेनरिक दवाएं दो करोड़ के आस-पास ही सेल कर पा रही हैं.
आपसी सहयोग से होगा विकास
हरियाणा, राजस्थान व तमिलनाडु समेत कई राज्य सरकारें सरकारी अस्पतालों में गरीबों को मुफ्त दवाएं उपलब्ध कराती हैं, जिसके कारण भी कई जन औषधि केंद्रों को बंद करना पड़ा. वहीं, राजस्थान, दिल्ली और पंजाब उन आठ राज्यों में शामिल हैं, जहां राज्य के हेल्थ विभाग ने सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों को केवल जेनरिक दवाएं लिखने के निर्देश जारी किए हैं. लेकिन डॉक्टर मरीजों को ब्रांडेड कंपनियों की दवा प्रेसक्राइब कर रहे हैं या जेनरिक, इसकी जांच करने के लिए कोई सिस्टम डेवलप नहीं किया गया. ऐसे में अस्पताल परिसर स्थित जन औषधि केंद्र ब्रांडेड दवाओं के कंपटीशन में गायब होते जा रहे हैं. समुचित लक्ष्य पाने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों के बीच एकसमान नीतियां व आपसी सहयोग का होना नितांत आवश्यक है.
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लुभा रहा गिफ्ट्स व ऑफर का खेल
किसी भी बिजनेस में सप्लाई चेन मैनेजमेंट की मजबूती ही सफलता की गारंटी होती है. ब्रांडेड दवा कंपनियों के मेडिकल रिप्रजेंटेटिव्स (एमआर) की पहुंच शहर के सभी नामी-गिरामी डॉक्टरों तक होती है. वे अपनी कंपनी की दवा चलानेे के लिए डॉक्टर्स को दवा का सैंपल देते हैं. लेकिन बात इतनी सरल नहीं, जितनी सतही तौर पर दिख रही है. एमआर दवाओं के सैंपल के साथ-साथ महंगे गिफ्ट आइटम्स भी डॉक्टर को देते हैं. इसके अलावा साल में एक या दो बार सपरिवार विदेश टूर के पैकेज व कई लुभावने ऑफर भी दिए जाते हैं. डॉक्टर भी दवा कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए मरीजों को ब्रांडेड कंपनियों की दवा प्रेस्क्राइब करते हैं. ब्रांडेड दवा कंपनियों और डॉक्टरों के इस नेक्सस में फंसकर आम आदमी दम तोड़ रहा है. इस व्यूह जाल को भेद पाने में असमर्थ जेनरिक दवा कंपनियां गरीबों को सस्ते दर पर उत्तम क्वालिटी की दवा तो उपलब्ध कराती हैं, लेकिन डॉक्टर्स को अपनी दवाएं लिखने के लिए तिकड़म नहीं भिड़ा पातीं. यहीं पर सरकारी मदद व प्रोत्साहन की जरूरत होती है, ताकि डॉक्टरों को गरीबों के लिए जेनरिक दवाएं लिखने के लिए बाध्य किया जा सके.
दवाओं का स्टॉक खत्म, लौट रहे मरीज
वहीं कई जन औषधि केंद्रों पर सभी जेनरिक दवाएं उपलब्ध नहीं होने की वजह से भी मरीजों को राहत नहीं मिल पा रही है. सरकार कैंसर, डायबिटीज, हृदय रोग व हाइपरटेंशन जैसी गंभीर बीमारियों से जुड़ी 400 जेनरिक दवाएं इन केंद्रों पर उपलब्ध कराने का दावा करती है. हालांकि, अब सरकार 577 जेनरिक दवाएं इन स्टोर्स पर उपलब्ध कराने जा रही है. लेकिन हकीकत यह है कि दवाएं खत्म होने के बाद इन केंद्रों पर दवाओं का स्टॉक समय पर उपलब्ध नहीं कराया जाता है. इन केंद्रों पर दवाएं नहीं मिलने के बाद मरीज भी इन जन औषधि केंद्रों से मुंह मोड़ लेते हैं. हाल में हिमाचल प्रदेश के सोलन में एक जन औषधि केंद्र को इसलिए बंद करना पड़ा, क्योंकि वह ग्राहकों की मांग पूरी नहीं कर पा रहा था. दवाओं की समय पर आपूर्ति नहीं होने की वजह से संचालक की कमीशन भी प्रभावित हो रही थी. आखिर में ग्राहकों की भारी मांग के बावजूद जन औषधि केंद्र के संचालक ने इसे बंद करने का फैसला किया.
प्रचार पर ध्यान दे सरकार नामी-गिरामी दवा कंपनियां टेलीविजन, प्रिंट व सोशल साइट्स के द्वारा अपने दवाओं के प्रचार पर काफी पैसे खर्च करती हैं. मरीज इलाज के लिए अपने डॉक्टर पर ही सबसे ज्यादा भरोसा करता है. दवा कंपनियों के पास एमआर का एक विकसित तंत्र होता है, जो डॉक्टर को लोक-लुभावन ऑफर देकर उन्हें अपनी ओर आकर्षित कर लेता हैै. वहीं, जब तक आम लोगों को जेनरिक दवाओं की जानकारी नहीं होगी, वे इस योजना का लाभ कैसे उठा सकते हैं. दवाओं की जानकारी होने पर ही वे डॉक्टर से जेनरिक दवाएं लिखने के लिए कह सकते हैं. सरकार को भी जेनरिक दवाओं को प्रोत्साहन देने के लिए प्रचार माध्यमों का यथोचित इस्तेमाल करना चाहिए.
जो दिखता है वही बिकता है
शहर में प्राइम लोकेशन पर जन औषधि केंद्र नहीं होने की वजह से आमलोगों को इनकी जानकारी नहीं मिल पाती है. वहीं ब्रांडेड दवा कंपनियों के स्टोर्स शहर में मेन मार्केट व अस्पताल परिसर के आस-पास होते हैं. जो दिखता है, वही बिकता है, के सिद्धांत पर चल दवा कंपनियां मोटा मुनाफा कमाती हैं, वहीं जन औषधि केंद्रों पर मरीजों के नहीं आने का असर उनकी बिक्री पर पड़ता है. ऐसे में जेनरिक दवाओं की कम बिक्री होने की वजह से जन औषधि केंद्र के संचालक स्टोर का किराया भी मुश्किल से निकाल पाते हैं. आखिर सरकारी प्रोत्साहन के अभाव में वे इन केंद्रों को बंद करने में ही अपनी भलाई समझते हैं. अवधेश कुमार बताते हैं कि डेढ़ साल में देश भर में करीब 300 जन औषधि केंद्र खुले हैं. हालांकि इसमें कितने स्टोर्स कार्यरत हैं, पर उनसे कोई जानकारी नहीं मिल पाती. उन्होंने बताया कि पहले जेनरिक दवाओं की बिक्री पर दवा विक्रेताओं को 16 प्रतिशत कमीशन दिया जाता था, जिसे बढ़ाकर अब 20 प्रतिशत कर दिया गया है. साथ ही ज्यादा दवाओं की बिक्री होने पर अलग से इंसेंटिव भी दिए जा रहे हैं.
उन्होंने बताया कि पहले पांच में से दो दवाएं ही जन औषधि केंद्रों पर मिल पाती थीं. लेकिन अब 500 से अधिक जेनरिक दवाएं व दो सौ सर्जिकल आइटम्स इन स्टोर्स पर उपलब्ध हैं. इसके अलावा जन औषधि केंद्र पर 25 प्रतिशत तक आउटी आइटम्स जैसे हॉर्लिक्स, आयोडेक्स व कॉस्मेटिक सामान भी दवा विक्रेताओं को रखे जाने की छूट दी गई है.
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उन्होंने बताया कि सरकार रेलवे स्टेशन पर भी जन औषधि केंद्र खोलने जा रही है. हालांकि उनका कहना है कि रेलवे स्टेशन पर ऐसे केंद्र खोलने से जन औषधि केंद्रों की पब्लिसिटी तो हो सकती है, लेकिन यहां बिक्री की गुंजाइश बेहद कम है. लोग यात्रा के लिए रेलवे स्टेशन पर जाते हैं, एक मरीज को दवा लेने के लिए तो शहर में मेडिकल स्टोर पर ही आना होगा. इससे बेहतर होगा कि सरकार प्राइवेट हॉस्पिटल, ईएसआईसी व पीएचसी में जेनरिक दवाओं का स्टोर खोलने पर ध्यान दे.
डिपार्टमेंट ऑफ फार्मास्यूटिकल्स (डीओपी) की वेबसाइट में जानकारी दी गई है कि अभी 293 जन औषधि केंद्र पूरे देश भर में संचालित हो रहे हैं, जिसमें सबसे अधिक 108 छत्तीसगढ़ में ही खुले हैं. इसके बाद ओडिशा में 23, महाराष्ट्र व पंजाब में 22, यूपी में 12, दिल्ली में 9 स्टोर खुले हैं और बिहार में 1 स्टोर खुला है. छत्तीसगढ़ में दुर्ग में जन औषधि केंद्र चला रहीं लक्ष्मी गुप्ता ने बताया कि हफ्ते में एक से ड़ेढ हजार रुपये तक की जेनरिक दवाओं की बिक्री हो जाती है. केंद्र पर 150 जेनरिक दवाओं की सप्लाई विभाग द्वारा की जा रही है. यहां से पीएचसी और सीएचसी में भी दवाओं की सप्लाई की जाती है, जिससे कुछ आमदनी हो जाती है. वहीं दिल्ली स्थित शाहदरा में जन औषधि केंद्र चला रहे संजय राघव ने बताया कि हम केंद्र पर 300 प्रकार की जेनरिक दवाएं रखते हैं. दिल्ली में होने के कारण दवाओं की सप्लाई समय पर हो जाती है, जिससे ग्राहकों को केंद्र से लौटना नहीं पड़ता है.
अब डॉक्टर भी उठा रहे सवाल
ब्रांडेड दवा कंपनियों की नुमाइंदगी कर रहे डॉॅक्टर भी अब जेनरिक दवाओं की क्वालिटी पर सवाल उठाने लगे हैं. एक डॉक्टर ने नाम नहीं बताने की शर्त पर बताया कि ब्रांडेड दवाओं के इस्तेमाल से हमें पूरी उम्मीद होती है कि मरीज बेहतर दवा ले रहा है. जेनरिक दवाएं सस्ती होने की वजह से गरीब मरीजों के लिए एक बेहतर विकल्प है. लेकिन जेनरिक दवाओं की इफिशियंसी और क्वालिटी की परख होने के बाद ही इन दवाओं को मरीजों को लेने की सलाह दी जा सकती है. तब तक हमें इंतजार करना होगा. डॉक्टरों का जेनरिक दवाओं को लेकर संशय दूर करने के लिए डिपार्टमेंट ऑफ फार्मास्यूटिकल्स (डीओपी) उन्हें ट्रेनिंग और प्रोत्साहन देने पर भी विचार कर रही है. जेनरिक दवाओं को बढ़ावा देने के लिए डीओपी, जो इस योजना की नोडल एजेंसी है, लगातार इंडियन मेडिकल एसोसिएशन व मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के साथ विचार-विमर्श कर रही है. सरकार ने जेनरिक दवाओं के प्रमोशन के लिए एक टोल फ्री नंबर 1800 180 8080 जारी किया है. इसमें ब्रांडेड दवाओं के बदले समान कंपोजिशन वाले जेनरिक दवाओं के बारे में आम आदमी जानकारी ले सकता है.
सरकारी अधिकारियों को पता है कि ब्रांडेड दवा कंपनियों के चक्रव्यूह का भेदन किए बिना इन जन औषधि केंद्रों पर लगे ग्रहण को दूर नहीं किया जा सकता है. लेकिन एक सवाल जो हमेशा अनुत्तरित रह जाता है कि गरीबों के लिए लाई जाने वाली योजनाओं को हमेशा सरकारी अधिकारियों की बेरुखी का सामना क्यों करना पड़ता है?
क्यों विफल हो रहे जन औषधि केंद्र
- राज्य सरकार की हेल्थ पॉलिसी में बदलाव
- राज्य सरकार पर अत्यधिक निर्भरता
- जेनरिक दवाओं का प्रेस्क्रिप्शन नहीं लिख रहे डॉक्टर
- सभी दवाओं का स्टोर्स पर उपलब्ध नहीं होना
- जागरूकता कैंपेन का अभाव
- प्राइम लोकेशन पर जेनरिक स्टोर्स का नहीं खुलना
- स्टोर्स से जेनरिक दवाओं की बिक्री में कमी
- ब्रांडेड दवाओं की तरह सप्लाई चेन मैनेजमेंट का न होना.