modiकम बोलना ज्यादा बोलने से कम खतरनाक होता है. इस बात को हाल के वर्षों में किसी ने सही तरीके से समझा था तो वो थे तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव. अल्पमत सरकार को 5 साल तक बिना किसी परेशानी के चलाने, आर्थिक उदारीकरण जैसा कड़ा निर्णय लेने और उसे क्रियान्वित करने में वे शायद इसीलिए सफल हुए क्योंकि उन्होंने कम बोलने के महत्व को समझा था. बहरहाल, इस बात को याद करना इसलिए जरूरी है, क्योंकि मौजूदा प्रधानमंत्री बोलते हैं और खूब बोलते हैं. वो शायद इसलिए भी बोलते हैं कि जनता ने पिछले दस साल के दौरान एक कम बोलने वाले प्रधानमंत्री को देखा था और जनता भी चाहती है कि हमारे प्रधानमंत्री खूब बोलें.

अगले ढाई साल में क्या ये संख्या बढ़ेगी?
31 दिसंबर की शाम को जब हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी की समयसीमा समाप्त होने के बाद देश को संबोधित किया, तो उन्होंने एक महत्वपूर्ण बात कही. उन्होंने कहा कि मैं आपके साथ एक जानकारी साझा करना चाहता हूं. इसे सुनने के बाद या तो आप हंस पड़ेंगे या फिर आपका गुस्सा फूट पड़ेगा. उन्होंने कहा कि सरकार के पास दर्ज की गई जानकारी के मुताबिक देश में सिर्फ 24 लाख लोग ये मानते हैं कि उनकी आय 10 लाख रुपए सालाना से ज्यादा है.

क्या किसी देशवासी के गले ये बात उतरेगी? देश के बड़े-बड़े शहरों को ही देखें तो किसी एक शहर में आपको सालाना 10 लाख से अधिक आय वाले लाखों लोग मिल जाएंगे. बहरहाल, इसके पीछे का अर्थशास्त्र क्या है, तकनीकी बातें क्या हैं, ये तो अलग है, लेकिन नोटबंदी अगर सफल हुआ है, सरकार की मानें, तो अगले ढाई साल में ऐसे लोगों की संख्या में एक महत्वपूर्ण वृद्धि तो होनी ही चाहिए. यानी, सरकार के सामने यह प्रमुख चुनौती होगी कि वो अगले ढाई सालों में दस लाख रुपए से अधिक की सालाना कमाई घोषित करने वाले लोगों की संख्या को 24 लाख से बढ़ाए.

राजनीतिक दलों ने कौन सा बन्धन स्वीकार किया है?

राष्ट्र के नाम अपने सन्देश में प्रधानमंत्री ने एक अहम मुद्दे को सिर्फ छुआ भर. उन्होंने कहा कि भ्रष्टाचार, कालाधन की जब भी चर्चा होती है, तो राजनेता, राजनीतिक दल, चुनाव खर्च, ये सभी बातें चर्चा के केंद्र में रहती हैं. अब वक्त आ चुका है कि सभी राजनेता और राजनीतिक दल देश के ईमानदार नागरिकों की भावनाओं का आदर करें, जनता के आक्रोश को समझें. यह बात सही है कि राजनीतिक दलों ने समय-समय पर व्यवस्था में सुधार के लिए सार्थक प्रयास भी किए हैं. सभी दलों ने मिलकर, स्वेच्छा से अपने ऊपर बंधनों को स्वीकार किया है.

सवाल ये है कि एक अदद सूचना का अधिकार कानून के तहत राजनीतिक दलों को लाने का आदेश केन्द्रीय सूचना आयोग ने दिया था. उस आदेश की धज्जियां उड़ाते हुए सभी राजनीतिक दल एक हो गए और इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी. यही नहीं, राजनीतिक दलों को आरटीआई कानून के दायरे से बाहर रखने के लिए सभी दलों ने तमाम तरह के कुतर्क दिए. इसमें कांग्रेस, भाजपा, वाम दल सभी शामिल हैं. आज तक किसी भी राजनीतिक दल ने अपने चन्दे (20 हजार रुपए से कम के चन्दे) का स्रोत तक नहीं बताया है. एक अनुमान के मुताबिक, 2014 का लोक सभा चुनाव अब तक का सबसे महंगा चुनाव था. अनुमानत:, उस चुनाव में तीस हजार करोड़ रुपए खर्च हुए थे.

लेकिन, जब चुनाव आयोग को खर्च की जानकारी दी गई तो इसमें प्रमुख राष्ट्रीय राजनीतिक दलों (कांग्रेस और भाजपा समेत) ने अपना खर्च महज कुछ करोड़ रुपए बताया. सवाल है कि अब तक इन राजनीतिक दलों ने अपने ऊपर कौन सा बन्धन स्वीकार किया है. दिल्ली हाई कोर्ट ने कांग्रेस और भाजपा, दोनों को विदेशी कंपनी से चन्दा लेने का दोषी पाया, दोनों इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चले गए. क्या इसी राजनीतिक शुचिता की दुहाई दी जा रही है? इलेक्टोरल ट्रस्ट से सभी प्रमुख दल चन्दा लेते हैं.

क्या आज तक जनता को ये पता भी है कि इन इलेक्टोरल ट्रस्ट को बनाया किन औद्योगिक घरानों ने है? कौन सा औद्योगिक घराना इस इलेक्टोरल ट्रस्ट के माध्यम से किसे कितना चन्दा दे रहा है? होना तो ये चाहिए था कि प्रधानमंत्री घोषणा करते कि आज से राजनीतिक दलों के चन्दे को आरटीआई कानून के तहत लाया जा रहा है. जाहिर है, इस फैसले का जनता तो स्वागत करती ही, यह भी साफ हो जाता कि कौन से राजनीतिक दल हैं, जो इसका विरोध कर रहे हैं.

बातें जो अनकही रह गईं…
किसानों और गर्भवती महिलाओं के लिए जैसी घोषणाएं हुईं, उससे भी सवाल उठता है. कहां तो किसान अपने लिए किसी बड़े राहत की उम्मीद लगाए थे, वहीं महज 60 दिनों की ब्याज माफी जैसी घोषणा सुनने को मिली. यह राहत ठीक उसी तरह की रही, जैसे खोदा पहाड़ और निकली चुहिया, वो भी मरी हुई. गर्भवती महिलाओं को 6 हजार रुपए देने की बात कही गई. हालांकि, यह योजना पहले से चली आ रही है, बस इसका दायरा और रकम की सीमा बढ़ाई गई है.

लेकिन, इस पूरे भाषण के दौरान ऐसे भी कई मुद्दे रहे, जिस पर जनता प्रधानमंत्री की मन की बात सुनना चाहती थी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. मसलन, 50 दिनों बाद सरकार को कितना कालाधन मिला? तकरीबन 15 लाख करोड़ रुपए (करेंसी इन सर्कुलेशन) में से कितना पैसा अंतिम तौर पर बैंकों में आया और कितना कालाधन के रूप में बाहर रह गया?

उन्होंने बेनामी संपत्ति को लेकर कुछ नहीं कहा, जैसा कि लोग उम्मीद कर रहे थे. प्रधानमंत्री ने यह भी नहीं बताया कि इस पूरे नोटबंदी के कार्यक्रम पर सरकार का कितना पैसा खर्च हुआ? उन्होंने ये भी नहीं बताया कि बैंकों में सामान्य स्थिति कब तक लौटेगी और लोग कब तक बैंकों और एटीएम से अपनी मर्जी और जरूरत के हिसाब से पैसा निकाल सकेंगे?

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