मुंबई पर आतंकी हमले की घटना को एक साल बीत चुका है. इस हमले की वजह से ही हम जुल्लु यादव, हेमंत करकरे और कई दूसरे बेहतरीन पुलिस अधिकारियों के बारे में जान सके. यह वारदात हमारे राजनीतिक वर्ग के घटिया चरित्र को भी सामने लाई. साथ ही उनके उन सहयोगियों को भी, जो इस चौंकाने वाली घटना पर फिल्म बनाने की योजना बना रहे थे. उस व़क्त विभिन्न लोग पुलिस संगठन में बदलाव की मांग कर रहे थे, अब वे या तो अपना जोश खो चुके हैं या फिर उस व़क्त झूठी मांग कर रहे थे. एक सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी ने विस्तृत चर्चा छेड़ी कि करकरे को किसने मारा?
महाराष्ट्र के पूर्व एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे ने हिंदूवादी आतंकवादियों के ख़िला़फ जोआरोपपत्र दाख़िल किए, उनसे भारत में आतंकवाद का वास्तविक और डरावना चेहरा सामने आया है. यह बात कई लोगों को सनसनीख़ेज़ लग सकती है.
कांग्रेस ने 2009 के चुनावी घोषणापत्र में बड़े-बड़े वायदे किए और उन्हें पूरा करने के लिए उसने इस दिशा में कुछ क़दम भी उठाए. बाद में सरकार ने अपने एजेंडे में अपराध और अपराधियों पर लगाम लगाने व आतंकवाद से निपटने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी की स्थापना, विभिन्न सुरक्षा एजेंसियों में ख़ाली पदों को भरने की प्रक्रिया, एक राष्ट्रीय ख़ु़फिया संस्था की स्थापना, राष्ट्रीय आतंक निरोधी केंद्र की स्थापना, नक्सली क्षेत्रों में जवाबी कार्रवाई की व्यवस्था, पुलिस अधिकारियों के प्रशिक्षण की व्यवस्था,
सीआरपीए़फ, असम राइफल्स, एनएसजी और बीएसएफ की शक्तियां बढ़ाने की बात को भी शामिल किया. सरकार ने उस समय जो वायदे किए थे, वे इस प्रकार हैं:
1. राजनीतिक कार्यपालिका और पुलिस प्रशासन के बीच एक स्पष्ट दूरी बनाना.
2. पुलिस बल की जवाबदेही को संस्थागत रूप से विकसित करना.
3. पुलिस सुधार की प्रक्रिया को सक्रिय तौर पर लागू किया जाएगा और आंतरिक सुरक्षा के लिए नागरिकों की भागीदारी भी सुनिश्चित की जाएगी. साथ ही सामुदायिक पुलिस को भी प्रोत्साहन दिया जाएगा.
4. आबादी के मुताबिक़ पुलिस बल में विविध समाज के लोगों के प्रतिनिधित्व को भी बढ़ावा दिया जाएगा.
5. बेहतर आवास और शिक्षा के मामले में पुलिस बल में प्रावधान किए जाएंगे.
6. आने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए पुलिस बल में भर्तियों एवं उनके प्रशिक्षण को प्रोफेशनल और प्रभावशाली तरीक़े से लागू किया जाएगा.
लेकिन कांग्रेस के घोषणापत्र की तरह ये वायदे भी पूरे नहीं हो सके, जबकि सरकार ने बड़े ज़ोर-शोर से उक्त वायदे किए थे. एक नागरिक के तौर पर हम तुरंत बदलाव चाहते हैं. चाहे वह आतंकी हमले, पुलिस हिरासत में मौत, फर्ज़ी मुठभेड़ या पुलिस का बुरा बर्ताव हो, लेकिन जब तक हम स्वयं किसी परेशानी में न हो तो उसके बारे में न तो सोचना और न ही उससे किसी भी तरह जुड़ना चाहते हैं. आज़ादी के बाद से ही विभिन्न सरकारों ने पुलिस सुधार के बारे में कई सुझाव दिए हैं, लेकिन अभी तक इसका कोई नतीजा नहीं निकला है. इस साल 2009 के आम चुनाव मुंबई पर आतंकवादी हमलों की पृष्ठभूमि में संपन्न हुए और सत्ताधारी पार्टियों ने इस दिशा में कई उम्मीदें जगाईं, लेकिन सभी वायदे और उम्मीदें कहां खो गईं, किसी को पता नहीं. यहां तक कि पुलिस की जवाबदेही और पारदर्शिता या अच्छी व्यवस्था के लिए नागरिकों की भागीदारी का मुद्दा भी अंधेरे में खो गया है.
इस संदर्भ में जो सबसे बड़ी बाधा है, उससे सरकार भी भलीभांति वाक़ि़फ है. वह बाधा यह है कि अभी भी भारत में पुलिस बल का संचालन 1861 के अधिनियम के तहत किया जाता है. हालांकि यहां यह भी ज़िक्र किया जाना चाहिए कि गत यूपीए सरकार ने पुलिस विधेयक 2005 का मसौदा तैयार किया था, जिस पर किसी भी नागरिक समाज में या सार्वजनिक रूप से चर्चा नहीं हो सकी, जबकि मसौदा तैयार करने में तत्कालीन और सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारियों एवं चुनिंदा ग़ैर सरकारी संगठनों की मदद ली गई थी. इस मसौदे के आधार पर कई राज्य सरकारों ने क़ानून बनाया और उसे लागू भी किया. उक्त नए क़ानून पुराने क़ानूनों के नए अवतार हैं, जिन्हें अभी लोगों की आकांक्षाओं पर खरा उतरना है. ख़ासकर अल्पसंख्यक समुदाय और धार्मिक समूहों की कसौटियों पर, जो अक्सर पुलिस व्यवस्था के बुरे चरित्र का शिकार होते हैं. हालांकि इस संदर्भ में जो चिंता की बात है, वह है केंद्र सरकार में इच्छाशक्ति की कमी, क्योंकि फिलहाल केंद्र शासित प्रदेशों की कमान केंद्र के हाथ में है और इससे उसके अधिकार क्षेत्रों का दायरा भी घटेगा.
पुलिस को आम लोगों के साथ दोस्ताना रवैया अपनाना चाहिए, इस बदलाव की ज़रूरत 1902 में महसूस की गई थी. आपातकाल के बाद भी लोगों को ऐसा ही अहसास हुआ. उनका मानना था कि पुलिस सरकार का ही एक अंग है, जिसका दुरुपयोग शासकों द्वारा किया जाता है. सत्तारूढ़ पार्टियों ने भ्रष्टाचार और सुशासन लागू करने के बजाय अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए पुलिस व्यवस्था का इस्तेमाल किया.
पुलिस सुधार के अतीत की कहानियां
यह सच है कि 1861 का पुलिस अधिनियम विफल रहा है और यहां तक कि अंग्रेज़ों द्वारा भी एक पेशेवर पुलिस बल की ज़रूरत को महसूस किया गया. इस दिशा में गत सदी की शुरुआत में ही जब सरकार ने सर ए एच एल फ्रेज़र की अध्यक्षता में सन् 1902 में एक बड़ा क़दम उठाया, जिसका उद्देश्य व्यवस्था की जांच-पड़ताल कर उस पर सलाह देना था. आयोग ने कई स़िफारिशें कीं, लेकिन उस पर अमल नहीं किया गया या फिर उसे पूरी तरह नकार दिया गया. इस तथ्य को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर दिया गया कि संगठन 1861 में स्थापित पुलिस अधिनियम की कई बीमारियों से ग्रसित है. और, इस तरह औपनिवेशिक व्यवस्था में बना यह अधिनियम अभी भी अस्तित्व में है.
आज़ादी के बाद राजनीतिक व्यवस्था बदल गई, लेकिन पुलिस व्यवस्था उसी रूप में बनी रही. हालांकि पुलिस में बदलाव और सुधार की ज़रूरत को व्यापक तौर पर महसूस किया गया. 1960 के दशक के दौरान कई राज्य सरकारों ने आयोग का गठन किया, ताकि इन समस्याओं की पहचान की जा सके और उसमें सुधार हो सके. 1970 के दशक में भारत सरकार सक्रिय हुई और 1971 में पुलिस प्रशिक्षण के लिए एक समिति गठित की गई. उसके बाद 1977 में सरकार ने एक राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन भी किया.
कुछ मसलों पर उत्साही क़दम उठाने के लिए सरकार को इसका श्रेय दिया जा सकता है. आपातकाल के दौरान प्रधानमंत्री ने जबरन अपनी शक्तियों को बढ़ाया, अभिव्यक्ति की आज़ादी पर अंकुश लगाया और जो इसके प्रति जागरूक थे, उन्हें जेल में बंद कर दिया. आगामी चुनाव में कांग्रेस को जनता पार्टी से हार मिली तो उन्होंने 1977 में शाह आयोग का गठन किया, जिसने पिछली सरकार के कदाचार और आपातकाल के दौरान पुलिस के ग़ैर ज़िम्मेदार रवैये की जांच की. नई सरकार ने 1977 में धर्मवीर की अध्यक्षता में राष्ट्रीय पुलिस आयोग (एनपीसी) का गठन किया, जिसका काम भारत में पुलिस व्यवस्था की कार्यशैली और नागरिकों के प्रति उनकी ज़िम्मेदारी तय करने संबंधी सलाह देना था. एनपीसी ने इस संदर्भ में रिपोर्टों की आठ श्रृखंलाएं पेश कीं और पुलिस सुधार, प्रशिक्षण तथा पुलिस-जनता के संबंधों के मामले में कई स़िफारिशें कीं. हालांकि जब कांग्रेस 1980 में वापस सत्ता में आई तो उसने राष्ट्रीय पुलिस आयोग को भंग कर दिया और उसकी सभी रिपोर्टों पर कड़ा ऐतराज़ भी जताया. भंग किए गए राष्ट्रीय पुलिस आयोग की महत्वपूर्ण स़िफारिशें कुछ इस तरह थीं:
# किसी राज्य के पुलिस प्रमुख का कार्यकाल एक निश्चित समय के लिए सुनिश्चित हो.
# कार्यात्मक स्वतंत्रता को प्रोत्साहन. भारत में यह आम बात है कि अधिकारियों का स्थानांतरण और बहाली सज़ा या पुरस्कार के तौर पर किया जाता है. नतीजतन, कई पुलिस प्रमुखों ने राजनीतिक दलों से अपनी साठगांठ बढ़ा ली है.
# पुलिस के कामकाज में किसी तरह का बाहरी दबाव नहीं होना चाहिए.
# हर राज्य में एक सुरक्षा आयोग की स्थापना की जाए.
#1861 के पुलिस अधिनियम को नए क़ानून से बदला जाए.
यहां यह ध्यान देना बेहद दिलचस्प है कि पाकिस्तान जैसे देश ने 2002 में 141 साल पुराने पुलिस अधिनियम की जगह नए क़ानूनों को लागू किया. पाकिस्तान की सरकार ने बेहतर पुलिस व्यवस्था के लिए एक ऐतिहासिक फैसला ले लिया है, तो भारतीय पुलिस व्यवस्था में सुधार और इसे आधुनिक बनाने में कौन सी रुकावटें सामने आ रही हैं?