आओ नये साल
इस बार मेहमान या शिशु की तरह नहीं
किसी महामारी के वायरस के बग़ैर
उम्मीदों और आवेश से भरे-भरे आओ
नये हौसलों के साथ,हम भरेंगे साझा उड़ानें
संदेहों से मुक्त,निश्चिंतताओं के साथ
क्लबों-होटलों के शोर और भोंडी भटकनों के बीच नहीं
लंपट मूर्खताओं को उतार फेंककर
रेत में मुँह छिपाए पड़े बेसुध पलायनों को झिंझोड़ते हुए
ख़म ठोंककर मैदान में उतरें, खिलाडियों की तरह
जोशीली,पैनी नज़रों के बीच
आओ नए साल
इस साल हम तौलेंगे अपने संकल्प,अपने इरादे,अपनी सजगताएं
तुम आओ अपने अंजान रहस्यों और गुप्त ख़ज़ानों की पोटली लिए हुए
हम स्वीकार करें समुद्र मंथन की तुम्हारी चुनौती
नापसंद है हमें निष्क्रिय अलगाव में जीना
आओ नये साल
इस बार सिर्फ़ कैलेंडर ही नहीं बदलेंगे
बदल देंगे शैलियाँ भी
स्वागत नये साल
इस बार मेहमान या शिशु की तरह नहीं
बीमारी, महामारी,मंदी या बेरोजगारी के ख़ौफ झाड़कर
उम्मीदों और आवेशों से भरे-भरे आओ मित्र
इस साल हम जीतेंगे हर चुनौती, महामारी और मंदी भी
इस बार हम तय करेंगे अपनी जीत और हार
इस बार,इसके बाद हर बार,लगातार
_श्रीकांत
**
एक तारीख नहीं
कैलेंडर का पन्ना भी नहीं
एक पूरा कैलेंडर
बदल रहा है
बस ऐसे ही
नई उम्मीदों का संचार
कर रहा है.
पुराने कैलेंडर की
हर तारीख
किसी याद से घिरी है
एक देनदारी
नजर में हमेशा तिरी है
अब भूल जाना चाहता हूँ
सारे लम्हे
जिन में भी कोई
उदासी भरी है.
अब नया है सामने
कागज कोई कोरा सा
है भविष्य
रचना उसे खरा सा
सच कहें तो हौसला भी है
बढा सा.
सुधीर देशपांडे
**
इतना करना
*
अगर तुम्हारे हाथ में
कुछ है ऐ काल के टुकड़े
तो इतना करना
हमें संभाल कर रखना
हमारे दोस्तों को संभालना
रिश्तों को बचाने की
समझ देना
जीवन का जीवन सहेजे रहना
अपने बदन में
हमें उठाकर दे देना
नये साल के हाथों में
बस इतना कर देना
और यही कहकर सौंप देना हमें
अगले साल को.
ब्रज श्रीवास्तव.
*
पता नहीं मुसीबत कम हो
अधिक हो इस बरस
प्यार करने की आदत बनी रहे
इतनी सी बात
अमरता की कोई दवा नहीं आएगी इस बरस भी
जीवन में विश्वास बना रहे चिरंतन
इस बरस
शब्दों को अर्थ मिल जाए
*
राम प्रकाश त्रिपाठी
नया साल
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अरुण शीतांश
तुम आओ तो इस तरह कि
फूल खिलने वाले हो
रंग चटख लगे
खटिया ,चौकी ,पलंग राह देखें
तुम आओ तो इस तरह कि
खपड़े के ऊपर बैठे मिले
कौआ , गिलहरी
शादी वाले दिखें छानी पर हाथी,
घड़ा , ढक्कन
ठीक नीचे चापाकल पर कबूतरों की बीट
एक कोने में तुलसी का पौधा
घर खाली न दिखे
तुम आओ तो इस तरह कि
लिपट जाएँ गाँव के एक – एक आदमी
कह दें एक साँस में सब बातें
और नई भौजाई करे सास की शिकायत
और सास करे बदलती हुई दुल्हनों की मोटरसाईकिल पर चलने वाली बात
तुम आओ तो इस तरह कि
खेतों में लगे सरसो के फूल और बगल के टोपरे में लगे आलू
आम के पेड़ में आ रहे हों ऋतुुमंगलपुष्प
करहे में पानी
खेतों की जोत दिखाई दे
वहाँ बात करतीं हँसती हुईं झूण्ड में लड़कियाँ
और
लड़के लगा रहे हों कहकहे
सोन नदी के कछार पर
हमारा काम है सबसे मिलकर रहना
मिलकर रहना ही है गाँव का गहना
🌺🌺 नये साल में 🌺🌺
यही क्या कम है।
ओस की बूँदे चमक रही है,
गेहूं, अलसी, चने के अंकुरों पर
खिलखिलाहट से भर गया है खेत,
धूप के सुनहले पारदर्शी परदे,
फुदक फुदक कर बैठ रहे है,
आँगन में घर की छत और
दूर जाती पगडंडी पर
तितलियां खिले हुए फूल पर
मंडराती खुशबू के रंग घोल रही है
हवा में,कुछ जोड़े पंछियों के
फड़फड़ाते हुए निकल पड़े है
ऊंचे आकाश में,
अपने खेत मे उपजे धान के,
बटलोही में पकते टटका भात की
गमक में चहक रहा है मंगलू,
सन्तोष की इतनी बड़ी पूंजी
अभी उसी के पास है।
उसी ने बचा रखी है,
फल,फूल, सब्जी,
बोना काटने उगाने काम
धरती के बाद ,
नया सिरजने का काम,
अभी उसी के जिम्मे है।
यह भी क्या कम है
की धरती बार बार
लौटा लाती है। बीते हुए मौसम को
नया करके,
एक कबाड़ बेचने वाला लड़का,
दो छोटी,लड़कियां,
निकली है गोबर कंडे बीनने
बस्ती से बाहर,
सड़क पर सरपट दौड़ रहे है,
ट्रक, बस, कार,
दूर किसी स्टेशन से छूट रही है
कोई रेलगाड़ी,
नीले स्वच्छ आसमान में
धुँए की एक लंबी सी पूँछ
निकाले चली जा रही हवाई जहाज,
सभी अपनी अपनी व्यस्तता में है।
पृथ्वी व्यस्त है घूमने में अपनी
धुरी पर,
समय की साख पर बैठा,
उम्मीद का सुग्गा कुतर रहा है
खुशहाली के मीठे फलों को।
जबकि यह सच है।
तारीख, महीने और वर्ष के अलावा
कुछ भी नही बदला,
पर क्या यही क्या कम है।
की हर नए साल की तरह,
इस नए साल में भी,
प्रेम में नया नया सा हो,
मैं तुम्ही को ढूँढता हूँ,
रह- रह कर,
मिथिलेश रॉय
नज़्म :-: एक साल और
रात टूटी तो क्या खुली भी नहीं
आंख धोयी कहां मली भी नहीं
और उसपे सुब्ह का कोई सवाल और निकल गया.
एक नयी नज़्म लय में बोलेगी
सुनते थे नींद ख़्वाब खोलेगी
इधर जो गांठ में बचा था माल और निकल गया.
जनवरी से चले दिसम्बर तक
एक पतझर से एक पतझर तक
इसी तरह तड़प के एक साल और निकल गया.
अभी जो आता है साल इस्तक़बाल
फिर कहेंगे जो हाल हो, फ़िल्हाल
खुली समय की मुट्ठी एक ख़याल और निकल गया.
भवेश दिलशाद
|| रहूंगी साथ तुम्हारे ||
रहूंगी सदा साथ तुम्हारे
देखी – अनदेखी की तरह
खुली आँखों की चमक में
हथेलियों की गर्माहट में
आँगन के माँडणे में
अमावस- पूनम की जोत में
पूस की रातों में रज़ाई का
वो हिस्सा बन ..
जिसे तुम छाती से लगाए रखोगे …
कलश के पानी में
जिससे दोगे तुम सूर्य को अर्ध्य
रहूंगी बरसात की पहली बूंद बनकर
जो होंठ पर गिरकर प्यास बढ़ा देती है
रोटी के पहले निवाले के स्वाद में रहूँगी
जो माँ के हाथ की होगी
बापू के भरोसे में
दीवाली -होली के रंग में दिखूँगी
नन्हे के अनगढ़ चित्रों में
कच्ची अमियों और बेरियों में
दादी की गीता में
सलमान भाई की कुरान में भी
घने बादलों के बीच
बिजली की तरह कौंध जाउंगी
याद आऊंगी रह रह कर
पलक झपकने की तरह …
विश्वास न हो तो
देख लेना आईना
नववर्ष की पहली शुभकामना में
तुम्हारे चेहरे पर
मेरे होंठों की मुस्कान लहरा रही होगी …
|| मधु सक्सेना ||
0दूध-भात
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धान कूटकर
सफेद झक चाँवल के दानों को
झाड़ते हुए कहा उसने-
चाँद के कटोरे में
जब पकाऊंगी इन्हें
तुम आ जाना
दूध भात खाने
ले जाना थोड़े से दाने
बादलों की पोटली में बांधकर
पुआल बिछाते हुए बोली
अब मुझे इनमें
धूप को बाँधना है
जब हल्कू सोएगा इन पर
तब पूस की रात में भी
धूप की आँच
बचा लेगी उसे
शीत प्रकोप से,,,
अरुण सातले
🌻
कोई हमारे दुःख की सही टीका करे
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कोई तुरप दे
हमारी तबीयत
कोई फेर दे
हमारे अदृश्य गूमड़ों पर
अपनी उँगलियाँ
कोई हमारे अन्तर्दाह के लिए
दमकल भेजे तुरन्त
कोई टिहुककर सुने
हमारे अन्दर की निस्तब्धता
कोई दौड़कर ठीक कर दे
हमारे जुराब में फँसा पायँचा
कोई हमारे चेहरे को
शीशे की तरह पोंछे
कोई अपने पंचांग में देखे
हमारे हुलसने की तिथियाँ
कोई हमारी उम्मीदों को
तितलियों की तरह उड़ता देखकर
फुर्ती से बन्द कर दे
तमाम पंखों के स्विच
कोई हमारे घड़ों को
नदी पार करने लायक़ बनाये
कोई हमारे दुःख की
सही टीका करे
कोई हमारी बेचैनी को
बना दे मांदल
कोई रेत के इस सफ़र में
हमारे साथ चले
लहराते हुए कोहान की तरह
सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी