prashant Kishor

नई दिल्ली : कांग्रेस में उत्तर प्रदेश चुनाव की कमान पूरी तरह से प्रियंका संभाल रही थीं. उन्होंने अखिलेश यादव को दस से ज्यादा बार फोन किया, लेकिन अखिलेश यादव ने उनका फोन नहीं उठाया. इसके बाद प्रियंका ने अखिलेश की पत्नी डिम्पल यादव को फोन किया. डिम्पल यादव ने अखिलेश से बात की, इसके बाद कांग्रेस और समाजवादी पार्टी में बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ. गठबंधन का रास्ता खुला. गठबंधन की पूरी बातचीत में राजबब्बर और गुलाम नबी आजाद को बाहर रखा गया.

प्रियंका का पूरा विश्वास, प्रशांत किशोर द्वारा किए गए इस वादे पर टिका था कि कांग्रेस 72 सीट जीत रही है. लेकिन पहले व दूसरे चरण की वोटिंग के बाद अलग-अलग सूत्रों से फीडबैक मिलने लगा. तब प्रियंका का विश्वास टूट गया और उन्होंने कैंपेन करने से मना कर दिया. पहले दो चरणों के चुनाव से ही यह पता चल चुका था कि कांग्रेस-समाजवादी पार्टी गठबंधन एक शर्मनाक हार के मुंह पर खड़ी है.

लेकिन सवाल यह है कि आखिर ऐसा हुआ क्यों? समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन हो जाने के बाद भी अनुभवहीनता की वजह से कई चीजें ऐसी हुईं, जो नहीं होनी चाहिए थीं. मसलन,टिकट और उम्मीदवारों को लेकर आखिरी वक्त तक उहापोह की स्थिति बनी रही. गांधी परिवार के संसदीय क्षेत्र में भी अगर सामंजस्य नहीं बन सका,तो यह बताता है कि कांग्रेस के डिसीजन-मेकर्स और रणनीतिकार यानि पीके को अभी कितना सीखने की जरूरत है.

इन समस्याओं के बावजूद भी स्थिति इतनी खराब नहीं होती, अगर प्रशांत किशोर को राजनीति की समझ होती. गठबंधन की रणनीति का पूरा कमान प्रशांत किशोर के हाथ में था. प्रशांत किशोर ने फिर उसी फिल्मी अंदाज में नारे दिए. आजकल एक प्रचलित गाना है- ‘बेबी को बेस पसंद है.’ इसी तर्ज पर प्रशांत किशोर ने नारा दिया- ‘यूपी को ये साथ पसंद है.’ रणनीति के नाम पर राजनीति का तमाशा अगर किसी से सीखना हो, तो उन्हें उत्तर प्रदेश में प्रशांत किशोर के क्रियाकलापों से सीखना चाहिए. इसके अलावा ‘यूपी के लड़के’ और ‘काम बोलता है’, जैसे असरहीन नारों के जरिए प्रशांत किशोर ने बची-खुची कमी पूरी कर दी. अब इन महान-रणनीतिकारों को कौन समझाए कि चुनाव नारों से नहीं, वोट से जीता जाता है. अच्छा नारा वो होता है,जिसका असर वोटर के दिमाग पर होता है.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here