पिछले कुछ सालों में पाकिस्तान के उत्तरी इलाक़े और आज़ाद जम्मू-कश्मीर में हुए आर्थिक विकास और सामाजिक परिवर्तन ने जम्मू-कश्मीर के इस हिस्से में शांति एवं ख़ुशहाली के कई रास्ते खोल दिए हैं. आने वाले दिनों में यह इलाक़ा पाकिस्तान और चीन की संयुक्तविकास योजनाओं का भी फायदा देखेगा तथा इसका असर स्थानीय राजनीति पर भी पड़ना लाज़मी है.
पाकिस्तान के संविधान के मुताबिक़, उत्तरी इलाक़ा न तो पाकिस्तान का हिस्सा है और न ही आज़ाद जम्मू-कश्मीर का अंग है. 1949 में आज़ाद जम्मू-कश्मीर की सरकार ने इन इलाक़ों की प्रशासनिक ज़िम्मेदारी पाकिस्तान को सुपुर्द कर दी थी, जो समय के साथ स्थायी हो चुकी है. दुर्भाग्य से पाकिस्तान इन इलाक़ों को तऱक्क़ी के रास्ते पर लाने में विफल रही है, जिसमें मानवाधिकार और लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित करना अहम रहा है. एक लंबे अर्से से इन इलाक़ों के लोग शांतिपूर्ण ढंग से अपने राजनीतिक और संवैधानिक अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं.
लगभग छह दशक पहले उत्तरी इलाक़ों को महाराजा रंजीत सिंह से आज़ादी मिली थी, जिनका वंश जम्मू-कश्मीर पर हुकूमत करता था. इसके बावजूद उत्तरी इलाक़ों का कश्मीर से ऐतिहासिक नाता होने के कारण पाकिस्तान में विलय नहीं किया गया. जबकि यहां के लोग यह चाहते रहे कि उनका पाकिस्तान में विलय कर लिया जाए. इसके साथ ही पाकिस्तान प्रशासन का एक वर्ग चाहता था कि सरकार गिलगिट इलाक़े से एक अलग समझौता स्थापित करे. यहां ग़ौर करने की बात यह है कि वास्तव में महाराजा रंजीत सिंह ने इन इलाक़ों को ब्रिटिश हुकूमत को लीज़ पर दिया था और उनके जाने के बाद स्वाभाविक तौर पर इन इलाक़ों पर पाकिस्तान का हक़ बनता है. इन इलाकों पर पाकिस्तान का अधिकार बन भी गया, लेकिन बाद में पाकिस्तान सरकार ने जम्मू-कश्मीर राज्य से जुड़े होने के नाते इन इलाक़ों का पाकिस्तान में विलय नहीं किया.
इसके बावजूद दो और कारण रहे, जिनसे इन इलाक़ों पर पाकिस्तान सरकार की प्रशासनिक पकड़ बनी. पहला, महाराजा रंजीत सिंह से आज़ादी मिलने के बाद गिलगिट-बलतिस्तान इलाक़े का आज़ाद जम्मू-कश्मीर से संपर्क टूट गया था और दूसरा, पाकिस्तान के साथ-साथ आज़ाद कश्मीर के राजनीतिक नेतृत्व को इसमें संदेह नहीं था कि रेफेरेंडम कराए जाने पर यहां के लोग पाकिस्तान के साथ विलय हो जाने का फैसला करेंगे. लिहाजा उनके लिए यह बात मायने नहीं रखती थी कि गिलगिट-बलतिस्तान पाकिस्तान के अधीन है या फिर आज़ाद कश्मीर के. इसी दौर में सरहद पार कश्मीर और आज़ाद कश्मीर में राजनीतिक ढांचों की नींव रखी जाने लगी. दोनों कश्मीर पर उपजे विवाद के बावजूद सरहद पार भारत में कश्मीर के लिए एक व्यवस्थित राजनीतिक ढांचा बनाया गया और 1951 में पहला स्थानीय चुनाव कराया गया. वहीं आज़ाद कश्मीर में व्यवस्था के लिए नियम-क़ानून 1952 में बना दिए गए और पहला चुनाव 1961 में कराया गया. आज़ाद कश्मीर के अंतरिम संविधान की रूपरेखा 1970 में बनकर तैयार हो गई, वहीं संसदीय व्यवस्था 1974 में लागू की गई.
दूसरी तऱफ, उत्तरी इलाक़ों में राजनीतिक और प्रशासनिक कार्यों के लिए फ्रंटियर क्राइम रेग्युलेशन का इस्तेमाल होता था और इलाक़े के लोगों की रज़ामंदी से यहां किसी तरह का लोकतांत्रिक ढांचा नहीं बनने दिया गया, जिसके चलते इलाक़े के लोग उन अधिकारों से वंचित रह गए, जो पाकिस्तान के नागरिकों को मुहैया थे. उत्तरी इलाक़ों की इस दशा के लिए प्रमुख कारण इलाक़े का दूरस्थ होना है और
साथ-साथ पाकिस्तान में लोकतंत्र की विफलता भी ज़िम्मेदार रही. मसलन, पाकिस्तान में अधिकांश समय तक सेना ने प्रशासनिक तंत्र को अपने क़ब्ज़े में रखते हुए राज किया है और लोकतांत्रिक शक्तियां ख़ुद पाकिस्तान में जड़ें नहीं जमा पाई हैं. इसका एक असर यह भी रहा कि उत्तरी इलाक़े में एक सभ्य समाज का विकास नहीं हो सका और न ही यहां किसी तरह के राजनीतिक नेतृत्व ने जड़ें जमाईं, जो लोगों की आवाज़ को बुलंद कर सके. लिहाजा उत्तरी इलाक़ा हमेशा से समाज को बांटने वाले गुटों की चपेट में रहा और पाकिस्तान के प्रमुख राजनीतिक दल भी इस इलाक़े के प्रति उदासीन रहे. इस इलाक़े का पाकिस्तान की संसद में भी कोई वज़ूद नहीं रहा और इन्हीं कारणों से पाकिस्तान का मीडिया जगत भी इस मामले में कुछ नहीं बोलता था.
काराकोरम हाईवे को 1984 में व्यापार और पर्यटन के लिए खोले जाने से उत्तरी इलाक़े जहां एक तऱफ पाकिस्तान से जुड़ गए, वहीं दूसरी तऱफ चीन के जिगजियांग प्रोविंस के लिए भी रास्ता खुल गया. चीन के साथ स्थापित हुए इस संबंध का असर उत्तरी इलाक़ों की राजनीतिऔर विचारधारा पर भी पड़ा. लिहाजा व्यापारिक और सामाजिक उत्थान के साथ-साथ उत्तरी इलाक़ों में लोगों की जागरूकता में भी इज़ा़फा हुआ. इससे पहले गिलगिट और बलतिस्तान के लोग सर्दियों के दिन में पाकिस्तान से अलग-थलग पड़ जाते थे. वहां के उच्च तबके के लोग कराची जाने लगे, जिसके चलते काराकोरम हाईवे खोलने के लिए दबाव ब़ढा. उसके बाद बड़ी संख्या में गिलगिट का मध्यम वर्ग भी एक बेहतर ज़िंदगी की आस में कराची पहुंचने लगा. कराची का रुख़ करने वाले परिवारों का वहां अहम आकर्षण बच्चों की
पढ़ाई-लिखाई और एक बेहतर चिकित्सा व्यवस्था थी. इसी दौरान आगा ख़ान फाउंडेशन ने भी गिलगिट-बलतिस्तान में कई स्कूल और कॉलेजों की नींव रखी और वहां के लोगों को व्यापार के लिए वित्तीय मदद दी. इसके साथ ही उत्तरी इलाक़े के कई लोगों को कराची में अपने स्कूलों और अस्पतालों में नौकरी पर भी लगाया.
क़ानूनी और राजनीतिक लड़ाई
पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में पाकिस्तान सरकार को निर्देश दिया कि उत्तरी इलाक़े के लोगों को वही अधिकार दिए जाने चाहिए, जो बाक़ी के जम्मू-कश्मीर राज्य को मिले हैं. कोर्ट ने पाकिस्तान सरकार को उत्तरी इलाक़ों में एक चुनी हुई प्रशासनिक व्यवस्था और सभी मूल अधिकारों सहित एक स्वतंत्र न्यायिक व्यवस्था बनाने के लिए छह महीने का व़क्त दिया. इस फैसले के बाद पाकिस्तान सरकार ने कई सकारात्मक क़दम उठाए, लेकिन इस्लामाबाद के राजनीतिक हलकों में इस पर कई सवाल उठने लगे. सबसे अहम मामला यह रहा कि पाकिस्तान सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट का ़फैसला लागू करने के रास्ते में उत्तरी इलाक़ों के राजनीतिक और सेक्टेरियन विवाद सामने आने लगे. यही नहीं, जम्मू-कश्मीर राज्य से इस इलाक़े के ऐतिहासिक रिश्ते भी सरकार के फैसलों के सामने आने लगे.
इन विवादों को दरकिनार नहीं किया जा सकता. पाकिस्तान में उत्तरी इलाक़ेअपनी जातीय, सांप्रदायिक और भाषाई विभिन्नताओं के चलते एक अलग पहचान रखते हैं. हालांकि जनसंख्या का कोई वैज्ञानिक आंकड़ा मौजूद नहीं है, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि यह शिया मुस्लिम बहुल इलाक़े हैं और अगर चुनाव कराए जाते हैं तो उत्तरी इलाक़ों में शिया सरकार ही बनेगी. यही कारण है कि पाकिस्तान के शिया नेता उत्तरी इलाक़ों को पाकिस्तान का पांचवां प्रोविंस घोषित कराना चाहते हैं. वहीं दूसरी तऱफ सुन्नी नेता उत्तरी इलाक़ों में शिया वर्चस्व को रोकने के लिए मांग करते हैं कि इन इलाक़ों को जम्मू-कश्मीर राज्य से अलग करके नहीं देखना चाहिए. इसके लिए वे उत्तरी इलाक़ों के
जम्मू-कश्मीर राज्य के साथ ऐतिहासिक रिश्तों का हवाला देते हैं. लंबे अर्से तक पाकिस्तान का धार्मिक और राजनीतिक नेतृत्व अपनी मांगों के साथ बंटा रहा और इस बंटवारे में उत्तरी इलाक़े के क्षेत्रीय लोग शिकार होते रहे, लेकिन आज शिया और सुन्नी नेताओं को अपनी ग़लती का अहसास हो रहा है. इसके साथ ही उत्तरी इलाक़ों को पाकिस्तान का पांचवां राज्य घोषित करने की मांग को भी जायज़ नहीं मान सकते, क्योंकि पाकिस्तान सरकार का
जम्मू-कश्मीर की जनता के साथ एक ख़ास रिश्ता है और उत्तरी इलाक़ों का पाकिस्तान में विलय करने से उस रिश्ते को नुक़सान हो सकता है. इस रिश्ते के अलावा पाकिस्तान सरकार कश्मीर मामले में अंतरराष्ट्रीय कमिटमेंट से भी बंधी हुई है. लिहाजा पाकिस्तान के पास एकमात्र विकल्प यही बचता है कि वह बीच का कोई रास्ता निकालते हुए उत्तरी इलाक़े के लोगों को मूल अधिकारों के साथ राजनीतिक अधिकार दे सके और ऐसा करने में कश्मीर के साथ उसके ऐतिहासिक रिश्ते पर कोई आंच भी न आए.
इस पृष्ठभूमि में धार्मिक, राजनीतिक और ग़ैर-सरकारी संस्थाओं ने रज़ामंदी से गिलगिट-बलतिस्तान नेशनल एलायंस की स्थापना की. इस एलायंस में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी, जमात उलेमा-ए-इस्लाम, जमात-ए-इस्लामी और लिबरेशन फ्रंट भी शरीक हुआ. शिया-सुन्नी मतभेद को कम करने के लिए सुन्नी नेता इनायतुल्लाह शमाली को एलायंस का प्रेसिडेंट चुना गया और शिया नेता क़ुर्बान अली को जनरल सेक्रेटरी बनाया गया. पाकिस्तान की कश्मीर नीति की मजबूरी देखते हुए गिलगिट-बलतिस्तान नेशनल एलायंस ने आज़ाद कश्मीर जैसी एक सरकारी संस्था की मांग रखी, जिसके ज़रिए आंतरिक अटॉनमी के साथ-साथ पाकिस्तान की कश्मीर नीति को जारी रखा जा सके. एलायंस के इस फॉर्मूले को समाज के कई वर्गों की सहमति हासिल है और इसके चलते पाकिस्तान सरकार पर भी ख़ासा दबाव है कि वह जल्द से जल्द इसे स्वीकृति दे. इसके ज़रिए पाकिस्तान सरकार के लिए अब गिलगिट-बलतिस्तान में क्षेत्रीय अटॉनमी देने का रास्ता सा़फ हो चुका है और ऐसा करने में अब उसे अपनी कश्मीर नीति में भी किसी तरह का कोई समझौता नहीं करना पड़ेगा.