नब्बे के दशक में शुरू हुई भूमंडलीकरण की प्रक्रिया का सबसे ज्यादा लाभ किसी भारतीय भाषा को हुआ है तो वह हिंदी है। चूंकि हिंदी पहले से ही मनोरंजन, साहित्य, पत्रकारिता और राजनीतिक विमर्श की सबसे बड़ी भाषा थी, इसलिए जैसे ही बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्था ने पंख फैलाए, हिंदी ने भी उड़ान भरी। देश के अन्य सांस्कृतिक क्षेत्रों के लोगों को लगने लगा कि अगर उन्हें व्यवसाय या रोजी-रोटी में बढ़ोतरी के लिए अपने दायरे से निकलकर अखिल भारतीय स्तर पर कुछ करना है तो हिंदी का कुछ न कुछ ज्ञान आवश्यक है।

कश्मीर से कन्याकुमारी तक, किसी भी तरह की जांच-पड़ताल कर लीजिए, अंग्रेज़ी के बढ़ते महत्व और दायरे के बावजूद हर जगह सुनने मिलेगा कि देश में अगर किसी भारतीय जड़ों वाली भाषा के भौगोलिक दायरे का प्रसार हुआ है तो वह हिंदी ही है। और, अंग्रेजी को कोई भाषा ‘मास्टर लैंग्वेज’ बनने से रोक सकती है तो वह हिंदी ही है।

हिंदी की इस हैसियत के कुछ बुनियादी संरचनात्मक कारण हैं। 1961 की जनगणना में कोई 30.4% लोगों ने हिंदी को मातृ-भाषा बताया था। उर्दू व हिंदुस्तानी के आंकड़े जोड़ दें तो आंकड़ा 35.7% हो जाता है। यानी हिंदी आधे से ज्यादा भारतवासियों की भाषा नहीं थी, फिर भी उसे बोलने-बरतने वालों की संख्या बहुभाषी नज़ारे में अधिक थी। हिंदीवालों की इस एकमुश्त अधिकता और उसके कारण बने सेवाओं व उत्पादों के विशाल बाज़ार के आधार पर व्यापारियों, श्रमिकों, सिपाहियों, मुसाफिरों के बीच हिंदी ‘मल्टीप्लायर इफेक्ट’ की तरह थी।

यह इफेक्ट हिंदी को संपर्क-भाषा के तौर पर विकसित करने का आधार बनाता था। देश के लगभग सभी हिस्सों में हिंदी की मौजूदगी किसी सरकारी आदेश का फल न होकर दीर्घकालीन ऐतिहासिक प्रक्रिया का परिणाम थी। औद्योगीकरण, शहरीकरण और आव्रजन का बढ़ता सिलसिला हिंदी का प्रसार कर रहा था। ओडीशा के राउरकेला स्टील प्लांट में काम करने वाले अंग्रेज़ी न जानने वाले मजदूर आपस में हिंदी में बातचीत करते थे, न कि उड़िया में।

बंबई की सार्वदेशिकता ने एक भाषा के रूप में हिंदी को अपना लिया था। अंडमान में रहने वाले हिंदी, मलयालम, बंगाली, तमिल और तेलुगुभाषी लोगों ने संपर्क के लिए हिंदी को स्वीकार ली थी। 1952 से 1959 के बीच 4,54,196 लोग मद्रास राज्य में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के इम्तिहानों में बैठ चुके थे।

साठ के दशक के बाद से गुज़रे साठ सालों में हुए हर परिवर्तन ने हिंदी को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया। मसलन, साक्षरता बढ़ी तो हिंदी को लाखों-करोड़ों नए पाठक मिले। जब छापेखाने की प्रौद्योगिकी में कम्प्यूटर और ऑफसेट का बोलबाला हुआ, तो सबसे ज्यादा प्रसार संख्या हिंदी अखबारों की बढ़ी। हिंदी के पाठक बढ़ते रहेंगे, हिंदी के दर्शकों-श्रोताओं की संख्या भी बढ़ेगी।

सवाल यह है कि हिंदी के इस भव्य और निरंतर विकसित होते हुए मानचित्र में कमी क्या है? क्या पर्याप्त गतिशीलता नहीं है? इसका उत्तर तलाशना आसान है। हिंदी में विमर्शी संस्कृति की कमी है। समाज-विज्ञान और सिद्धांतीकरण की दुनिया में हिंदी आज भी अंग्रेज़ी की मोहताज है। अधिकांशत: वह अनुवाद पर निर्भर है।

इसका मुख्य कारण यह है कि अंग्रेजी उच्च शिक्षा की भाषा बनी हुई है। जब तक हिंदी अन्य भारतीय भाषाओं के साथ उच्च-शिक्षा की भाषा नहीं बनती, तब तक उसे इस स्थिति से उबारना मुश्किल है। इस दिशा में कुछ शुरुआती कदम उठाए जा सकते हैं। मसलन, भारत के सभी समाज-विज्ञान शोध संस्थानों को सरकारी आर्थिक मदद मिलती है।

सरकार उनके सामने शर्त रखे कि वे फिलहाल अंग्रेज़ी में काम करना जारी रख सकते हैं, लेकिन उन्हें अपनी-अपनी संस्थाओं में एक-एक भारतीय भाषा कार्यक्रम चलाना होगा। अगर वे ऐसा नहीं करेंगे तो उन्हें मिलने वाली सरकारी मदद रोक दी जाएगी। जो संस्थान चेन्नई में है, उसका भारतीय भाषा कार्यक्रम तमिल में काम करेगा। इसी तरह हिंदी क्षेत्र के संस्थान हिंदी में काम करेंगे। विश्वविद्यालयों में होने वाले अनुसंधानों के दायरे में भी ऐसे कार्यक्रम चलाना श्रेयस्कर होगा।

चूंकि हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं में अनुसंधान की संस्कृति है ही नहीं, इसलिए उसका क-ख-ग शुरू से लिखना पड़ेगा। एक बार विमर्शी संस्कृति की लकीर खिंचने लगेगी, तो फिर उसे अंग्रेज़ी के समर्थकों द्वारा रोकना मुश्किल हो जाएगा। अंग्रेज़ी के मुकाबले बड़ी लकीर खींचकर ही हिंदी का यह भव्य मानचित्र पूरा हो सकता है।

‘समाचारपत्र क्रांति’ के शीर्ष पर हिंदी ही है। हिंदी के जिस ‘बूम’ की चर्चा हो रही है, अगर विज्ञापन की दुनिया के गुरुओं से पूछें तो वे बताएंगे कि यह 30 साल और जारी रहेगा।

 

Source: Dainik Bhaskar

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