page-6-copyआदिवासी, दलित और पिछड़े वर्ग की दो तिहाई जनसंख्या को समेटे मध्यप्रदेश में गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों की नई पीढ़ी के साथ खिलवाड़ हो रहा है. इस खेल में प्रशासनिक अधिकारी, मीडिया से लेकर सत्ता में बैठे लोग भी शामिल हैं. संदेह के दायरे में पिछली कांग्रेस सरकार भी है. घोटाले की गंभीरता का पता इससे चलता है कि  सरकारों ने लगातार इसे छिपाने का प्रयास किया. आयकर के छापों से यह मामला उजागर हुआ है. इसके बाद भी मध्यप्रदेश सरकार मामले पर परदा डालने में जुटी है. इतना ही नहीं, सरकार ने जांच की पहल तक नहीं की है.

मध्यप्रदेश के एक सार्वजनिक उपक्रम राज्य कृषि उद्योग विकास निगम (एमपी एग्रो) के माध्यम से प्रदेश की आंगनबाड़ियों में बांटे जाने वाले पोषण आहार का ठेका  एमपी एग्रो न्यूट्री फूड प्रा.लि., एमपी एग्रोटॉनिक्स लिमिटेड और एमपी एग्रो फूड इंडस्ट्रीज कंपनियों को दिया गया था. ये कंपनियां मध्यप्रदेश के उभरते मीडिया मुगल हृदयेश दीक्षित की बताई जाती हैं. उनकी कंपनियों में कुछ भागीदार तो स्पष्ट रूप से सामने हैं, जबकि कुछ परदे के पीछे भी हैं. इनमें मध्यप्रदेश के कुछ पूर्व तो कुछ वर्तमान सरकार के दिग्गज नेता भी शामिल हैं.

हाल में आयकर विभाग ने भोपाल में हृदयेश दीक्षित एवं सुनील जैन के साथ एमपी एग्रो के महाप्रबंधक वीआर धवल के बीमा कुंज, कोलार एवं शाहपुरा स्थित रविंद्र चतुर्वेदी के प्रतिष्ठानों पर छापा मारा. इसके साथ ही मंडीदीप मेंं संचालित सहयोगी कंपनी एमपी एग्रो न्यूट्रीफूड एवं श्रीकृष्णा देवकोन में भी छापे मारे गए. भोपाल में तीन आवास मंडीदीप में दो फैक्ट्रियों समेत इंदौर और मुंबई में जांच शुरू की गई. आयकर छापों से पता चला कि प्रदेश में पोषण आहार का सालाना टर्नओवर 100 करोड़ रुपए से ऊपर का है. इसमें 30 प्रतिशत इक्विटी राज्य सरकार एवं 70 प्रतिशत पूंजी सप्लायरों की लगी हुई थी. आयकर विभाग ने छापा मारकर बेनामी संपत्ति तो उजागर की ही, साथ ही पोषण आहार की सप्लाई में हो रहे घोटाले को भी सार्वजनिक किया. इसमें एमपी एग्रो के अधिकारियों की भी भूमिका सामने आई. पता चला कि जो भी महिला बाल विकास मंत्री रहा, उसने इन कंपनियों को पोषण आहार का ठेका देने को प्राथमिकता दी.

अरबों रुपए के इस केंद्रीकृत व्यापार में लंबे समय से तीन कंपनियों का दबदबा रहा है. मध्यप्रदेश में जब कांग्रेस सरकार थी, तब तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने भी इसी ग्रुप को दलिया सप्लाई का ठेका देने की सिफारिश की थी. तब महिला बाल विकास मंत्री के रूप में स्वर्गीय जमुनादेवी पदस्थ थीं. उस दौरान हृदयेश दीक्षित एक अखबार में नौकरी करते थे. सरकार के इस कार्य में पिछले डेढ़ दशक से भी अधिक समय से उनकी कंपनियां काबिज हैं. वर्तमान सरकार ने भी पहले से काबिज इन कंपनियों के साथ 2012 में सप्लाई के लिए एकमुश्त पांच साल का करार किया. इन कंपनियों के पीछे इंदौर के एक दिग्गज भाजपा नेता और मंत्रालय के एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी की बैकिंग है. आंगनबाड़ियों के जरिए कुपोषित बच्चों और प्रेग्नेंट महिलाओं को दी जाने वाली न्यूट्रिशियंस डाइट की सप्लाई में बेहिसाब गड़बड़ियां सामने आई हैं. पता चला कि तीनों कंपनियां सालाना 1200 करोड़ रुपए के बजट से फायदा उठा रही हैं. लेकिन गुणवत्ता और मात्रा, दोनों मामलों में खामियों के कारण बमुश्किल बजट का 60 प्रतिशत ही जरूरतमंदों तक पहुंच सका. एक आंकड़ा यह भी सामने आया है कि मध्यप्रदेश में 12 साल में 7800 करोड़ रुपए का पोषण आहार बंटा है, फिर भी शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) में मध्य प्रदेश टॉप पर है. यहां 1000 में से 51 बच्चे एक साल की उम्र पूरी नहीं कर पाते हैं. दूसरी तरफ सप्लाई सिस्टम पर काबिज तीन कंपनियां- एमपी एग्रो न्यूट्री फूड प्रा.लि., एमपी एग्रोटॉनिक्स लिमिटेड और एमपी एग्रो फूड इंडस्ट्रीज फल-फूल रही हैं.

एमपी स्टेट एग्रो ने इनके साथ 2012 में एक साथ पांच साल का एग्रीमेंट किया. पोषण आहार सप्लाई में बीते दस साल में कहानी ने अलग मोड़ ले लिया. एक तरफ एमपी स्टेट एग्रो अपना उत्पादन लगातार घटाती गई, वहीं निजी कंपनियों का ऑर्डर लगातार बढ़ाया गया क्योंकि सप्लाई का पूरा ठेका उन्हीं को मिलता आ रहा था. इसमें अधिकारियों को भारी कमीशन भी दिया जा रहा था.

सालाना रिपोर्टों से पता चलता है कि एमपी स्टेट एग्रो के बाड़ी प्लांट का उत्पादन 2005-06 में 4775 मीट्रिक टन था, जो 2008-09 तक घटकर 1877 मीट्रिक टन रह गया. इसके उलट एमपी एग्रो न्यूट्री फूड की कैपिसिटी 2005 में 3816 मीट्रिक टन से बढ़कर इसी टर्म में 11,019 मीट्रिक टन हो गई. एमपी एग्रोटॉनिक्स 2007-08 में 5076 मीट्रिक टन की कैपिसिटी के साथ शुरू हुई, जो अगले साल तक 5902 मीट्रिक टन पोषण आहार बना रही थी.

पोषण आहार की सप्लाई महिला बाल विकास विभाग, एमपी स्टेट एग्रो और तीन कंपनियों के ताकतवर त्रिकोण से चलती रही है. यह भी पता चला कि इन कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए तत्कालीन महिला बाल विकास मंत्री कुसुम मेहदेले ने नियमों को दरकिनार कर कैबिनेट का फैसला तक बदल दिया था.

सुप्रीम कोर्ट ने अक्टूबर 2004 में आदेश दिए कि पोषण आहार की राशि आंगनबाड़ी कार्यकर्ता और अध्यक्ष सहयोगिनी मातृ समिति के ज्वाइंट अकाउंट में जमा कराई जाए. इसे लागू करने में सरकार को ढाई साल से ज्यादा समय लगा. लेकिन इस फैसले को पलटने में कोई देरी नहीं हुई. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद जनवरी 2007 से शुरू की गई व्यवस्था एक वर्ष के अंदर ख़त्म कर दी गई. आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं और सहयोगिनी मातृ समितियों के बैंक खातों में भेजी जाने वाली राशि पर रोक लगा दी गई. महिला बाल विकास मंत्री ने ठेकेदारों की तरफ से चलने वाले महिला मंडलों और सेल्फ हेल्प ग्रुप्स को न्यूट्रिशियंस डाइट सप्लाई करने की जिम्मेदारी फिर सौंप दी. यह व्यवस्था लागू कराने में मंत्री समेत पूरा महिला बाल विकास इस कदर उतावला था कि मंत्री के आश्‍वासन के मात्र आठ दिनों बाद ही निर्देश जारी हो गए.

कैबिनेट और वित्त विभाग से भी ऊपर कंपनियां

सूत्रों का  कहना है कि ठेका देने की जल्दबाजी में मेहदेले यह भूल गईं कि कैबिनेट के फैसले में बदलाव के लिए उसे मंत्रिपरिषद में दोबारा ले जाना जरूरी है. यही नहीं, महिला बाल विकास विभाग ने वित्त विभाग की भी कोई राय नहीं ली. बदले हुए निर्देश जारी करने से पहले कैबिनेट की मंज़ूरी जरूरी थी, जो इस मामले में नहीं ली गई. विभागीय सूत्रों के अनुसार, इसके बाद दलिया सप्लाई में बड़े ठेकेदारों का दबदबा बढ़ने लगा. मंत्री ने कैबिनेट का फैसला बदलकर मप्र शासन के नियम 11 (एक) और नियम 7 के आठवें निर्देश का उल्लंघन किया.

दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट ने अक्टूबर 2004 में निर्देश दिए थे कि न्यूट्रिशियंस डाइट की सप्लाई में ठेकेदारी व्यवस्था तत्काल खत्म की जाए. कैबिनेट ने 22 जनवरी 2007 को फैसला लिया. निर्देश 15 फरवरी को जारी किए गए. कोर्ट के निर्देशों को लागू करने में सरकार को 27 महीनों का समय लग गया. 27 मार्च को विभाग ने अफसरों को पोषण आहार की राशि बैंक खातों में जमा नहीं करने को कहा. 31 मार्च को एक और पत्र जारी हुआ, जिसमें इस बात पर नाराजगी व्यक्त की गई कि कुछ जिलों में राशि आंगनबाड़ी कार्यकर्ता एवं समिति के खातों में जमा की जा रही है.

अखबारों में यह मामला सुर्खियां बनने के बाद सरकार ने इस पर कोई सफाई नहीं दी. विधानसभा में भी मामला उठाया गया, लेकिन वहां आवाज दबी-दबी सी रही, क्योंकि वर्तमान तथा पूर्व दोनों ही सरकारें कहीं न कहीं इस घोटाले में साझीदार रही हैं. बाद में यह मामला संसद में भी गूंजा. सांसदों ने घोटाले की सीबीआई जांच की मांग की. इस मामले पर संसद के बाहर कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने कहा, प्रधानमंत्री कहते हैं कि न खाऊंगा, न खाने दूंगा, चौकीदार के रूप में काम करूंगा. अब यह स्कीम पूरी तरह केंद्र की है. क्या वे इसकी जांच कराएंगे? उन्होंने कहा, कांग्रेस एफआईआर कराएगी या पीआईएल लगाएगी.

आयकर छापों से हुआ घोटाले का ख़ुलासा

मध्य प्रदेश सरकार से ठेके लेकर आंगनबाड़ी केंद्रों में पोषण आहार में यह घोटाला आयकर विभाग की एक कार्रवाई के कारण हुआ. पोषण आहार सप्लाई करने वाली फर्मों पर आयकर विभाग ने विगत माह छापेमारी की थी. आयकर इंवेस्टिगेशन विंग इंदौर की इस कार्रवाई में इंदौर के 22, भोपाल के तीन, मंडीदीप के दो और मुंबई के 3 ठिकानों पर कार्रवाई की गई. दलिया, पोषण आहार से जुड़ी इन फर्मों के ठिकानों से बड़ी संख्या में दस्तावेज, कंप्यूटर की हार्ड डिस्क और उनके सीए के यहां से दस्तावेज जब्त किए हैं. आयकर विभाग ने भोपाल में हृदयेश दीक्षित एवं सुनील जैन के साथ एमपी एग्रो के महाप्रबंधक वीआर धवल के बीमा कुंज, कोलार एवं शाहपुरा स्थित रविंद्र चतुर्वेदी के प्रतिष्ठानों को जांच में लिया. इसके साथ ही मंडीदीप मेंं संचालित सहयोगी कंपनी एमपी एग्रो न्यूट्रीफूड एवं श्रीकृष्णा देवकोन में विभाग के अधिकारियों ने जांच की. इस तरह भोपाल में तीन आवास मंडीदीप में दो फैक्ट्रियों सहित इंदौर और मुंबई में जांच शुरू की गई. पोषणआहार की गुणवत्ता और दूसरी गड़बडियों को लेकर पिछले दिनों आयकर विभाग के पास शिकायतें पहुंची थीं, जिसके बाद इस कार्रवाई को अंजाम दिया गया. एमपी एग्रो न्यूट्रीफूड के साथ दूसरी कंपनी श्री कृष्णा देवकोन है. इस कंपनी के माध्यम से रियल्टी क्षेत्र में काम किया जाता है. रियल्टी क्षेत्र में मुंबई में भी काम शुरू करना बताया गया है. प

आठ हजार करोड़ का कुपोषण…

फैमिली हेल्थ सर्वे की ताजा रिपोर्ट पर एक नजर डालें तो पता चला है कि अरबों रुपए की योजनाओं पर अमल के बाद भी मध्यप्रदेश कुपोषण की चपेट में है. राज्य में 12 साल में 7800 करोड़ का पोषण आहार बांटा गया है, फिर भी शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) में मध्य प्रदेश पूरे देश में पहले नंबर पर है, जहां 1000 में से 51 बच्चे एक साल की उम्र पूरी नहीं कर पाते और हमारे मुख्यमंत्री कहते हैं कि इस मामले में बहुत प्रगति हुई है. सर्वेक्षण में  पता चला है कि मध्यप्रदेश के दूरदराज इलाकों में आंगनबाड़ियों के हालात तो बदतर हैं ही, राजधानी और बड़े शहरों के आसपास के इलाकों में भी स्थिति कोई बेहतर नहीं है. यह प्रदेश आदिवासी और पिछड़ों की बड़ी जनसंख्या वाला राज्य रहा है, जिसके चलते इस राज्य को शुरू से ही तमाम योजनाओं के तहत खासी राशि केंद्र से मिलती रही है, यही नहीं यूनीसेफ व अन्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने भी खूब मदद की है. लेकिन परिणाम देखें तो निराशा ही हाथ लगती है. आखिर करोड़ों-अरबों की राशि जाती कहां है? सीधी बात है, हर योजना में घोटाला होता है. बच्चों के कुपोषण के मामले में तो जो जानकारियां सामने आई हैं, उनसे तय है कि सरकार की मिलीभगत से पिछले एक दशक से बच्चों के पोषण आहार के मामले में भारी घोटाला हो रहा है. आलम यह है कि इस घोटाले के जो कर्ताधर्ता हैं, जिन्हें जेल में होना चाहिए, वो सरकार के साथ सार्वजनिक कार्यक्रमों की शोभा बढ़ा रहे हैं. प्रदेश ही नहीं केंद्र के मंत्री भी उनके मेहमान बन रहे हैं. वहीं, कुपोषित बच्चों के आंकड़ों में भी हेरफेर की जाती है. बीमार बच्चों को कुपोषित की श्रेणी में  नहीं लिया जाता. वजन मापने में भी गड़बड़ी कर खानापूर्ति कर ली जाती है, फिर भी कुपोषण का आंकड़ा कम नहीं हो पा रहा है.

घोटाले के महत्वपूर्ण किरदार

घोटाले के खेल में जिन लोगों की प्रमुख भूमिका रही, उनकी संख्या एक दर्जन से अधिक बताई जाती है. कुछ प्रमुख किरदार हैं-

  • रविंद्र चतुर्वेदी, जीएम, एमपी स्टेट एग्रो, 1984 से निगम में. पाठ्य पुस्तक निगम में भी रहे. विभागीय जांचें हुईं.
  • वेंकटेश धवल, एमपी स्टेट एग्रो का एजेंडा तय करते हैं. 30 जून को रिटायरमेंट के बाद तुरंत संविदा नियुक्ति मिली.
  • अक्षय श्रीवास्तव और हरीश माथुर, आईसीडीएस के हुनरमंद अफसर. माथुर 20 साल से एक ही सीट पर हैं.
  • राजीव खरे और गोविंद रघुवंशी, क्वालिटी चेक करने वाले एडी. पोषाहार की न डिग्री है और न योग्यता.
  • आरपी सिंह, स्थापना शाखा में जेडी. छह साल से हैं.
  • छह सीडीपीओ, फील्ड की पोस्ट है. 10-12 साल से जमे हैं. हरीश माथुर इनमें से एक हैं. इनकी आड़ में छह और सीडीपीओ यहां कई सेक्शन्स में लाए गए.
  • सुनील जैन, ह्दयेश दीक्षित और अवधेश दीक्षित, पोषण आहार की सबसे ताकतवर धुरी. इंदौर मूल के दीक्षित बंधुओं की 12 कंपनियां आयकर विभाग के रडार पर हैं.
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