अंबेडकर नगर में टांडा स्थित एनटीपीसी तापीय विद्युत गृह के विस्तारीकरण के चलते कई किसानों की ज़िंदगी अंधकार में डूब गई है. प्रशासनिक अमले ने सारे नियम-क़ानून ताख पर रखकर, मामला न्यायालय में विचाराधीन होने और तय कोरम पूरा न हो पाने के बावजूद भूमि अधिग्रहण की कार्रवाई अंजाम दे दी. एक बड़ा टकराव टालने के लिए जिलाधिकारी विवेक ने साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपना कर बरसों से लटका वह कार्य पूरा कराने में सफलता हासिल कर ली, जो वैधानिक व्यवस्था के दायरे में संभव नहीं था. एनटीपीसी प्रशासन बार-बार किसानों की मांगें मानता एवं नकारता रहा. अंतत: ऊपरी दबाव के चलते जिला प्रशासन वह सब कर गया, जिसे करने के लिए उसका जमीर शायद तैयार नहीं था.
किसानों के शुभचिंतक दिखने वाले जिलाधिकारी विवेक के नेतृत्व में वह सब कुछ हुआ, जिसे करने में कई जिलाधिकारी नाकाम रहे. अब देखना यह है कि इन्हें क्या पुरस्कार मिलता है शासन की ओर से और क्या निर्णय करता है न्यायालय. 440 मेगावाट का यह प्लांट बरसों से टांडा में चल रहा है. इसमें 2 यूनिटें 660 प्लस 660 मेगावाट की और लगनी हैं, जिसके लिए 808 एकड़ ज़मीन की जरूरत है. लगभग 7 वर्ष से इस दिशा में कार्य हो रहा है. इसके लिए आठ हज़ार करोड़ रुपये खर्च का लक्ष्य था, जो अब 12 हज़ार करोड़ रुपये हो गया है. उस समय 65 प्रतिशत किसानों की रजामंदी ज़रूरी थी, अब 80 प्रतिशत किसानों की रजामंदी ज़रूरी है. यूनिट विस्तार के लिए 808 एकड़ ज़मीन जुटाना स्थानीय किसानों के प्रबल विरोध के चलते संभव नहीं हो पा रहा था. लाख कोशिशों के बावजूद केवल 40 प्रतिशत किसानों ने अपनी ज़मीनों का बैनामा एनटीपीसी को किया. बाकी 60 प्रतिशत किसान अपने हक़ की पूरी क़ीमत और भविष्य की सुरक्षा की मांग कर रहे थे, जिसे एनटीपीसी प्रशासन ने मंजूर नहीं किया. जिन 9 गांवों की ज़मीनें अधिग्रहीत करनी थीं, वे अति विशिष्ट औद्योगिक क्षेत्र में सम्मिलित थे, जिन्हें 18 जुलाई, 2012 को तत्कालीन जिलाधिकारी पिंकी जोवेल ने अति विशिष्ट ग्राम में तब्दील कर दिया.
नतीजा यह हुआ कि आबादी की ज़मीनों की क़ीमत तो यथावत रही, लेकिन रिक्त और कृषि भूमि की क़ीमत सरकारी अभिलेखों में घट गई. काफी ज़मीनें असिंचित क्षेत्र घोषित कर दी गईं. इतना बड़ा और घातक खेल एक जिलाधिकारी ने किसानों के हितों के विपरीत कर दिया. इसके पीछे उक्त जिलाधिकारी का क्या हित रहा, यह भी जांच का विषय है. कृषि भूमि से ज़्यादा आबादी के दाम मिल रहे हैं, लेकिन 808 एकड़ ज़मीन में आबादी का हिस्सा महज 2 प्रतिशत है. इस तरह तत्कालीन जिलाधिकारी ने एक झटके में करोड़ों का फ़ायदा एक औद्योगिक इकाई को करा दिया. ग़ौरतलब है कि 27 नवंबर, 2008 को धारा 4/17 अर्जेंसी में गजट कराई गई थी, लेकिन क़ीमत ज़्यादा होने के कारण ज़मीन की नवैयत ही जिलाधिकारी पिंकी जोवेल ने बदल दी. किसान अपनी लड़ाई न्यायालय तक ले गए. कई याचिकाएं दाखिल हुईं, जिनमें 99/12, 111/12, 46, 47, 48/13 और 101/2013 उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ में विचाराधीन हैं. प्रशासन की जबरदस्ती को देखते हुए बीते 3 सितंबर को न्यायालय ने पीड़ित किसानों के पक्ष में यथास्थिति कायम रखने का आदेश पारित किया, लेकिन प्रशासन ने अपना काम कर दिया. स्थगनादेश मिलने से पहले ही संगीनों के साये में अधिग्रहण की कार्रवाई पूरी कर ली गई. आख़िर जिलाधिकारी ने किसानों के हितों की अनदेखी क्यों की? इसमें उनका व्यक्तिगत हित क्या था?
यदि एनटीपीसी प्रशासन ने समय पर किसानों की मांगें मान ली होतीं, तो लागत खर्च में चार हज़ार करोड़ रुपये की बढ़ोतरी न होती और बिजली संकट से जूझ रहा उत्तर प्रदेश राहत की सांस ले रहा होता. किसानों ने विस्तारीकरण का विरोध कभी नहीं किया, बल्कि अपनी ज़मीनों की उचित क़ीमत की मांग की, जिसे एनटीपीसी मानने को तैयार नहीं हुआ. सात वर्ष पहले यदि किसानों को उनकी ज़मीनों की उचित क़ीमत, भविष्य की गारंटी और रहने को छत मिल जाती, तो 1760 मेगावाट बिजली का उत्पादन काफी पहले शुरू हो गया होता और लागत खर्च भी 8 हज़ार करोड़ के आसपास सिमट जाता. लेकिन बलिदान स़िर्फ किसानों से लिया जाता है, बदले में उन्हें कुछ देने के लिए शासन- प्रशासन तैयार नहीं होता. औद्योगिक विकास के नाम पर किसानों की हरी-भरी फसलें रौंदी जाती हैं, उनके पेट की रोटी छीनी जाती है. चंद रुपये देकर उन्हें बंजारों की तरह जीने के लिए विवश किया जाता है. जब वह अपने हक़ की लड़ाई लड़ते हैं, तो उन्हें पीटा जाता है. हवा में गोलियां चलाई जाती हैं, मुकदमे लादे जाते हैं.
दरअसल, खेतों में तैयार फसलें ध्वस्त करके भूमि अधिग्रहण करने के बावत जिलाधिकारी विवेक ने अपने हाथ खड़े कर दिए थे और तीन महीने के लिए अभियान रोक दिया गया. लेकिन, इसी बीच एक सोची-समझी साजिश के तहत बीते 27 अगस्त को पुलिस ने कुछ किसानों को उनके घर से उठा लिया, बाकी किसान आंदोलित हो गए. उन्होंने सड़क जाम कर दी. पुलिस ने मौ़के पर पहुंच कर बल प्रयोग किया, तो जवाब में पत्थर चले. इसके बाद पुलिस ने हवाई फायरिंग के साथ किसानों पर लाठीचार्ज कर दिया. अलीगंज थानाध्यक्ष वृजनंदन सिंह का सिर फट गया, नतीजा यह हुआ कि किसानों पर मुकदमे दर्ज कर दिए गए. डर के चलते कई किसान घर छोड़कर भाग गए. मौ़के का फ़ायदा उठाते हुए पुलिस, पीएसी, सीमा सुरक्षाबल, रैपिड एक्शन फोर्स की कई बटालियनें गांवों में लगा दी जाती हैं. प्रशासन पुन: भूमि अधिग्रहण कार्रवाई शुरू करता है. यह सब अचानक नहीं घटता, बल्कि जानबूझ कर होता है. ऐसा लगता नहीं कि हम स्वतंत्र भारत में सांसें ले रहे हैं. अपने हक़ की लड़ाई लड़ने वाले किसानों पर लाठियां बरसाई जाएं, एक औद्योगिक इकाई के लिए पूरा प्रशासन खड़ा दिखे और सरकार में बैठे मंत्री इन सारी घटनाओं से स्वयं को अलग कर लें! आख़िर यह सब क्या है? क़ानून कहता है कि कम से कम 80 प्रतिशत किसानों की रजामंदी ज़रूरी है, लेकिन केवल 40 प्रतिशत किसानों की रजामंदी को आधार बनाकर सभी किसानों की ज़मीनें जबरन अधिग्रहीत कर ली गईं. इस एकपक्षीय कार्यवाही में शासन-प्रशासन की मंशा और निजी स्वार्थ सहज ही सामने आ जाते हैं.
आने वाले दिनों में यह विद्युत गृह जनपदवासियों एवं किसानों के लिए कितना लाभप्रद साबित होगा, यह तो समय बताएगा, लेकिन इतना तय है कि इलाके की दिक्कतों में बेशुमार वृद्धि होगी. इससे निकलने वाली राख के भंडारण की कोई व्यवस्था नहीं है, जो कि पर्यावरण को क्षति पहुंचाएगी. पहले से लगभग चार गुना ज़्यादा राख निकलनी तय है. जाफराबाद जंक्शन से अकबरपुर रेलवे स्टेशन तक लगभग 90 किलोमीटर सिंगल रेलवे लाइन होने के कारण माल गाड़ियों का दबाव बढ़ेगा, यात्री गाड़ियां विलंबित होंगी. बताते हैं कि पहले एनटीपीसी परिसर स्थित गेस्ट हाउस में उत्तर प्रदेश सरकार के नुमाइंदे, तत्कालीन स्थानीय विधायक और पूर्व संसदीय कार्य एवं चिकित्सा शिक्षा मंत्री लालजी वर्मा अपने लाव-लश्कर के साथ रहते थे. सबके नाश्ते एवं भोजन की व्यवस्था एनटीपीसी करता था. अब स्थानीय विधायक एवं स्वास्थ्य मंत्री शंखलाल मांझी भी वही सारी सेवाएं लेते हैं, जबकि एनटीपीसी भारत सरकार का उपक्रम है. फिलहाल किसानों की किस्मत रौंदने का काम प्रशासन ने पूरा कर लिया है. अब न्यायालय क्या निर्णय देता है, यह देखना बाकी है.
एनटीपीसी का विस्तारीकरण : क़ानून को ताख पर रखकर ज़मीनों का अधिग्रहण
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