सालभर से थोड़ा कम कोरोना, पच्चीस दिन से ज्यादा का किसान आंदोलन और एक हफ्ते की मौजूदगी वाली सर्दी…! सबकी अपनी रफ्तार और सबकी अपनी-अपनी दादागिरी…! कोरोना मानने को राजी नहीं है कि उसका उपयोग अब महज सियासी तरीकों से किया जा रहा है तो दिल्ली-हरियाणा सीमाओं पर बैठे किसान को अपने राजनीतिक इस्तेमाल की अब तक भनक ही नहीं लग पा रही है…! सर्दी की सियासी चाल ये है कि मिन्नतों से आमद देने के बाद अब लोगों को नानी-दादी याद दिला रही है…!

करीब सालभर के सफर में कोरोना ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं… लॉक डाउन से घरों में सिमटे लोग, जरूरत की खातिर पुलिस की लाठियां और गालियां खाते लोग, बीमार होकर भी अस्पतालों तक जाने से खौफ खाते लोग, अपनी बीमारियों से जूझते और कोरोना के इलाज से मरते लोग… और फिर अचानक चुनाव आ जाने पर भीड़ जुटाने को धकेले जाते लोग, बीमारियों के खौफ से आजाद कर दिए जाते लोग, चुनाव की आहट खत्म होते ही फिर नियमों से बंधने के लिए सताए जाते लोग…! मेरे करण-अर्जुन आएंगे, की तर्ज पर अपना वैक्सीन आएगा, की उम्मीदों से बंधे लोगों को डर, आश्वासन और कुछ नहीं होता यार.. के बीच जीना याद होता जा रहा है…!

देश का कानून एक सूबे और उसके पड़ोसी राज्य तक सीमित कैसे रह सकता है, इसकी परिभाषा किसानों को कोई नहीं समझा पा रहा है…! ये सम­झ गया, वह मान गया, इसको कानून की बारीकी सम­झ आ गई और उसको इसमें किसी तरह की बुराई नजर नहीं आती ने अब देश के किसानों को भी कई हिस्सों में बांट दिया है…! इस पार्टी के किसान और उस दल के अन्नदाताओं की जंग चल पड़ी है…! किस्से को कमजोर करने के लिए दस जतन जारी हैं…! पच्चीस दिनों में जो बात हलक नहीं उतर पाई, जो मांग परवान नहीं चढ़ पाई, उसके आगे भी प्रबल होने की उम्मीद की जाना बेजा ही कहा जा सकता है…! रुको, देखो और चलो के सूत्र पर सरकार ढिलाई के बाद ही जीत की राह चल रही है…! सर्दी से ठिठुरते किसान, अपने घरों से दूर बैठे किसान, जरूरत के लिए सब्र का घूंट पीते किसान और सबके जवाब में सिर्फ एक बात, आप नासम­झ हैं, अच्छाई को सम­झ नहीं पा रहे हैं…! मैदान के लोगों को उनके हाल पर छोड़, अब सियासत उधर निकल पड़ी है, जहां सिर्फ अंधे ही नहीं बहरे भक्तों की भी बस्ती है…!

पुछल्ला
कोरोना सियासत
पहले भी कोरोना ने लाज बचाई थी। फिर जरूरी मुद्दों के लिए जुटने का समय आ गया है। तारीख साल खत्म होने के दो दिन पहले की तय है। लेकिन अब इसकी जांच और उसकी रिपोर्ट की दरकार के बीच उम्मीदों की नाव डगमग डोलती नजर आ रही है। न अध्यक्ष का चुनाव और उपाध्यक्ष का मनोनयन। न विपक्ष के सवाल और सरकार को उनके जवाब देने की जहमत। सांकेतिक, सीमित और संक्षिप्त सदन से मिल जाए, उसे प्रसाद समझो। आधा कार्यकाल गुजर चुका है, बाकी भी इसी तरह गुजर ही जाएगा।

खान अशु

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