जनता दल (यू) की बहु-प्रचारित राज्य कार्यकारिणी की बैठक 16 सितंबर को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सरकारी बंगले पर हुई. इस बैठक की सबसे बड़ी घटना रही, पेशेवर चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर (जो बहुधा पीके के नाम से पुकारे जाते हैं) की राजनीति में औपचारिक एंट्री. गत विधानसभा चुनावों में नीतीश कुमार के लिए जिस काम को उन्होंने नेपथ्य में रह कर किया था, अब वो खुले मैदान में करेंगे. अब वे जद (यू) के लिए बैटिंग व बॉलिंग करेंगे. दल इसे अपनी बड़ी उपलब्धि मानता है. खबरों पर भरोसा करें, तो प्रशांत किशोर ने यह निर्णय राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की नेता भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की सहमति से ही लिया है. कहा जाता है कि उनकी पहली पसंद भाजपा ही थी, पर वहां चुनाव के पहले की भारी भीड़ के कारण उन्हें नीतीश कुमार के पाले में आना पड़ा.

हालांकि इससे क्या फ़र्क पड़ता है, काम तो एनडीए का ही होना है! बैठक में इसके अलावा कुछ अन्य कामों को निपटाने की भी बातें हुईं. मसलन, गरीब सवर्णों को आरक्षण के सवाल पर दल ने अपना स्टैंड साफ कर दिया. दल के नेतृत्व का कहना है कि संविधान में आरक्षण के लिए सामाजिक पिछड़ेपन को ही आधार माना गया है. लिहाज़ा संविधान में संशोधन के बाद ही गरीब सवर्णों के आरक्षण के बारे में सोचा जा सकता है. चुनाव के संदर्भ में नेतृत्व ने कार्यकारिणी को बताया कि भाजपा के साथ संसदीय चुनावों की सीटों के बंटवारे का मसला लगभग हल हो गया है. हमें सम्मानजनक संख्या में ही सीटें मिल रहीं हैं. अगले कुछ दिनों में इसकी घोषणा हो जाएगी. इसके अलावा, नेताओं-कार्यकर्त्ताओं को आश्वासन मिला कि सूबे में जल्द ही कैबीनेट का विस्तार होगा. फिर, राज्य सरकार के आयोगों, बोर्ड व निगमों का पुनर्गठन भी जल्द ही कर दिया जाएगा.

सेलिब्रेशन बनकर रह गई बैठक

जद (यू) की यह बैठक घोषित तौर पर संसदीय चुनावों की रणनीति तैयार करने के लिए आहूत की गई थी. जिन सीटों पर चुनाव लड़ना है, उनके समीकरण, संभावित प्रत्याशी आदि पर भी बैठक में विचार होना था, पर यह आयोजन कमोवेश एकतरफा एकालाप बन कर ही रह गया. हालांकि कुछ लोगों ने सवर्ण आरक्षण के नाम पर सामाजिक माहौल के सरगर्म बने रहने और मतदान पर इसके संभावित असर की चर्चा की और इसे समर्थन देने का नेतृत्व से आग्रह किया.

वहीं कुछ ने कानून-व्यवस्था व सुशासन और सरकार के इकबाल में गिरावट की भी चर्चा की. एक ने तो कह दिया कि सत्ता के इकबाल और पुलिस के खौफ के संदर्भ में 2005 से 2010 के दौरान जो माहौल था, वह अब कहीं नहीं दिखता है. पर इन बातों का कुछ असर पड़ा हो, ऐसा लगा नहीं. चुनावी रणनीति के नाम पर घोषणा हुई कि यह संसदीय चुनाव नीतीश कुमार के चेहरे और सात निश्चय के साथ-साथ शराबबंदी, दहेजबंदी और बाल-विवाह बंदी के मुख्यमंत्री के सामाजिक सुधार के अभियानों को सामने रख कर लड़ा जाएगा. घोषणा हुई कि सूबे में दल 80 हजार बूथ स्तर के कार्यकर्ता तैयार करेगा और उन्हें प्रशिक्षण दिया जाएगा. यह काम इस वर्ष के अंत तक पूरा कर लिया जाना है. फिर, छात्र-युवा के अलावा पिछड़ों-अति पिछड़ों को दल के पक्ष में गोलबंद किया जाएगा. इन मसलों पर जिलों से आए नेताओं, विधायकों, सांसदों से कोई राय ली गई या उनके सुझावों की कोई अपेक्षा की गई, ऐसी कोई खबर नहीं है.

कोई चार घंटे तक चली बैठक में सुप्रीमो नीतीश कुमार व अन्य बड़े नेताओ के हौसला-आफ़जाई के संदेशों के साथ नेता, पदाधिकारी व कार्यकारिणी के सदस्य वापस चले गए. वस्तुतः संसदीय चुनाव को लेकर ऐसी बहुत कोई बात सामने नहीं आई, जो इसके पहले जद (यू) के किसी बड़े नेता के मुंह से सुनी न गई हो. फिर ऐसा भी नहीं हुआ कि इसमें लोगों की राय ली गई और राज्य के आम हालात की जानकारी ली गई या आसन्न संसदीय चुनावों को लेकर कोई खास राजनीतिक फीडबैक लिया गया. एक नेता के अनुसार, वे यह नहीं समझ सके कि बैठक किस लिए आहूत की गई थी. उनकी मानें, तो सारा कुछ प्रशांत किशोर की जद (यू) में एंट्री को सेलेब्रेट करने के लिए अधिक था, बनिस्पत चुनावी रणनीति पर विचार के लिए. यह कहना कठिन है कि इस बैठक से जद (यू) के आम कार्यकर्ता या उसके पक्के समर्थकों को क्या संदेश मिला. जो भी हो, नीतीश कुमार की अपनी कार्य-शैली है.

हैसियत बढ़ाने की क़वायद

पुरानी कहावत है कि चुनौतियों की अनदेखी से वे खत्म नहीं होतीं. लगता है जद (यू) में फिलहाल ऐसा कोई विचार काम नहीं कर रहा है. दल और दल के सुप्रीमो व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के समक्ष फिलहाल कई चुनौतियां हैं, जिनसे अगले कुछ महीनों में अनिवार्यतः उन्हें रू-ब-रू होना है. उनका एक मोर्चा एनडीए में उनकी हैसियत और उस छवि का बिहार के मतदाताओं के बीच प्रक्षेपण है. जून 2013 के पहले के एनडीए में उनकी बड़े भाई की भूमिका और छवि थी. उस दौर में बिहार एनडीए में वे जो चाहते थे, वही होता था. उन वर्षों में संसदीय चुनवा हों या विधानसभा चुनाव, नीतीश कुमार की पार्टी को अधिक सीटें मिलती थीं. लेकिन नए एनडीए में अब तक उनकी वैसी स्थिति नहीं बनी है. हालांकि विधानसभा में उनकी पार्टी भाजपा की तुलना में बड़ी है, पर वह हैसियत संदिग्ध है. बड़े भाई की उस छवि और हैसियत के लिए ही वे संसदीय चुनाव में भाजपा से कम से कम एक सीट अधिक चाहते हैं.

सम्मानजनक सीट की मुख्यमंत्री और दल के अन्य नेताओं की परिभाषा क्या है, यह नहीं मालूम. पर जद (यू) के सामान्य से ऊपर के कार्यकर्त्ता भी इससे वही समझते हैं- भाजपा से अधिक सीट. क्या ऐसा होने जा रहा है? यह लाख टके का सवाल है, पर इसका जवाब कहीं नहीं मिल रहा है. भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व किसी भी सूरत में, संसदीय चुनावों में अपनी पर्टी की चौधराहट चाहता है, लिहाज़ा जद (यू) से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने को संकल्पित है. राजनीतिक हितों के टकराव की इस स्थिति में नीतीश कुमार क्या करेंगे, यह अनुमान लगाना कतई सहज नहीं है. उनके पास विकल्प बहुत सीमित या शायद नहीं हैं. हालांकि नीतीश कुमार की एक खासियत है कि संकट के क्षण में वे अचानक कोई बड़ा निर्णय ले लेते हैं, संकट से निकलने के भावनात्मक रास्ते ढूंढ़ लेते हैं. इसी से जुड़ा दूसरा सवाल हैः संसदीय चुनावों में उम्मीदवारी के दावेदारों की लम्बी फेहरिस्त है.

इनमें अधिकांश लोग खुद को बड़ा नेता मानते हैं और कई हैं जो मुख्यमंत्री के आंख-कान-नाक होने का दावा करते हैं, कुछ लोग पहले ऐसा ही दावा करते थे. सीटें कम हैं और दावेदारों की कतार बहुत बड़ी. ऐसे में रूठों को मनाने और संतुष्टों को जीत दिलवाने की मशक्कत बड़ी कड़ी होगी. पार्टी की सांगठनिक स्थिति क्या है, यह बताने की कोई जरूरत नहीं है. स्थानीय नेताओं-कार्यकर्ताओं में तालमेल की स्थिति तभी तक बेहतर रहती है, जब तक बड़े नेता मौजूद होते हैं. बाद में जूतम पैजार की नौबत आ जाती है. ऐसे में आनेवाले समय काफी संकट के हैं. इस संकट से निपटने का क्या रास्ता दल का नेतृत्व खोजता है, यह देखना है.

सुशासन की चुनौती

मुख्यमंत्री व जद (यू) सुप्रीमो नीतीश कुमार के लिए चुनौतियों का महत्वपूर्ण सिरा बिहार का गवर्नेंस है, जो हाल के वर्षों में नई-नई चिंताएं पैदा कर रहा है. मुख्यमंत्री मानें या न मानें, उनके नौकरशाह जो भी आंकड़े पेश कर जितना भी तर्क दें, दल और एनडीए के नेता नेशनल क्राइम ब्यूरो की रिपोर्ट की जो भी दुहाई दें, यह आम धारणा है कि सूबे में कानून व्यवस्था की हालत निरंतर खराब होती जा रही है. यह तथ्य है कि हाल के वर्षों में यहां बलात्कार, फिरौती के लिए अपहरण, हत्या, रंगदारी की मांग, बैंक-लूट व रोड-लूट, महिला के खिलाफ अपराध जैसी गंभीर आपराधिक घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है. अब तो मॉब-लीचिंग भी बिहार में एक समस्या बन कर सामने आया है. इस हालत को सुधारने के लिए सरकार के किसी ठोस पहल की कोई जानकारी नहीं है. सूबे की विधि व्यवस्था की हालत पर ताम-झाम से मुख्यमंत्री ने समीक्षा बैठक की, पर इसमें भी कुछ नया नहीं निकला.

सरकार का नेतृत्व- वह राजनीतिक हो या प्रशासनिक- 2010 के बाद सूबे की हालत के इस कदर खराब होने के कारणों को चिह्नित कर पाने में विफल रहा है. नीतीश कुमार का पहला कार्यकाल (नवम्बर 05 से नवम्बर 10) बिहार में सुशासन को लेकर यादगार था. उन वर्षों में सत्ता का इकबाल अपने शीर्ष पर था और जन कल्याण से जुड़े सरकारी कार्यक्रमों की स्थिति सरजमीं पर दिखती थी, डिलेवरी थी. उसके बाद तो सत्ता का इकबाल कम होने लगा, सरकारी तंत्र की सक्रियता घटने लगी और सूबे में  रिश्वतखोरी के नए-नए काउंटर खुलने लगे. इन गड़बड़ियों को दुरुस्त करने की राजनीतिक इच्छा-शक्ति निरंतर कम होती रही. अब तो लोग मान रहे हैं कि सूबे की हालत बेकाबू हो रही है. इनका असर चुनावों पर नहीं पड़ेगा क्या? इस प्रश्न का उत्तर कठिन नहीं है, पर इसे सुनने व इस पर विचार करने को सत्ताधारी राजनीतिक समूह में कोई तैयार तो नहीं दिखता है.

जद (यू) को लेकिन अब कोई चिंता नहीं है, क्योंकि प्रशांत किशोर ने दल में औपचारिक एंट्री ले ली है और मुख्यमंत्री ने उन्हें दल का भावी चेहरा घोषित कर दिया है. फिर किसी और को चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है. ऐसी प्रतिक्रिया जद (यू) के नेताओं के बीच आम हैं. लेकिन जाको पिया माने सोई सुहागिन के कारण कोई भी खुले तौर पर कुछ बोलने को तैयार नहीं है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जिस तरह पार्टी बैठक में उन्हें पेश किया और जिस रूतबे से नवाजा उसका सीधा मतलब था कि जद (यू) के कमांड में पी के की हैसियत दो नम्बर की ही होगी, उनके बाद ही किसी की कोई हैसियत होगी. बिहार में राजनीतिक दल और सामाजिक समूहों के आपसी रिश्ते काफी घने हैं. विभिन्न सामाजिक समूह अलग-अलग राजनीतिक दलों से गहरे जुड़े हैं.

उनकी इस निष्ठा को बदलना फिलहाल मुश्किल है. प्रशांत किशोर पेशेवर चुनावी रणनीतिकार हैं और भाजपा से लेकर वाईएसआर कांग्रेस तक व बिहार से तेलांगना तक की चुनावी रणनीति तैयार करने का उनका अनुभव है. देखना है, बिहार के इस सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ के मद्देनज़र वह किस तरह जद (यू) या एनडीए की चुनावी रणनीति तैयार करते हैं. 2015 के विधानसभा चुनावों में वे नीतीश कुमार के लिए चुनावी रणनीति तैयार कर रहे थे. उस वक्त राज्य की व्यावहारिक राजनीति की तस्वीर आज से बिल्कुल उलट थी. फिर, यह भी देखना है कि नीतीश कुमार की सत्ता की इस पारी की विफलताओं को छिपाने के लिए वह किस तरह के रंग और कैसी कूची का इस्तेमाल करते हैं. बिहार के टॉपर घोटाला, कर्मचारी चयन आयोग का नौकरी घोटाला, सृजन महाघोटाला, शौचालय घोटाला आदि कई घोटालों के साथ-साथ मुजफ़्फ़रपुर, मधुबनी और पटना के शेल्टर होम कांड भी नीतीश कुमार की सत्ता की इस पारी के नाम हैं. मतदाता इनको आसानी से भूल जाएंगे, ऐसा लगता नहीं है. पर आज के जद (यू) के नेता से आप बात करें, वे कहेंगे- पीके हैं न!

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here