खान अशु

हफ्ता भर पहले ईवीएम में कैद हुए जनादेश के फैसले का दिन आ गया है…! कौन रहेगा, कौन बचेगा जैसे सवाल नहीं हैं… सवाल सिर्फ कद का, वर्चस्व का, मान-सम्मान और स्थितियों का है…! चंद महीनों पहले एक बनी-बनाई सरकार रूपी इमारत के मलबे पर खड़ी हुई दूसरी सरकार को तोलने-मोलने का समय मिला था, लोगों ने क्या तोला, क्या मोला, फैसला चंद घंटों के फासले पर है…!
फैसले से पहले फैसले को लेकर आशांवित और फैसले को लेकर आशंकित लोगों में शब्द वार जारी है…! गिरने वाले अब गिराने वालों के पतन का दावा कर रहे हैं…! कहने से नहीं चूक रहे कि कुछ और सिक्के अपने दाम लगाने की कतार में हैं…! गिरने का दंश भुगत चुके अलग दावे में हैं, उनका कहना है कि गिराने के माहिरों के साथी पाला बदलने को लालायित हैं…! किसने गिराया, कौन नहीं बचा पाया, किसको नुकसान हुआ और किसने फायदा उठाया कि चकल्लस से दूर वह बेचारे की तरह खड़े हुए हैं, जिनके दम पर सरकारें बनना तय है…! दो साल पहले अपने लिए सरकार चुन चुके लोग अब तक अपने रोजगार, विकास और भलाई की राह ही तक रहे हैं…! इस अतिरिक्त चुनाव के बाद फिर सरकार, फिर तमगों की कवायद, फिर विभागों की मारामारी और इसमें गुजरने वाला आधा साल विकास को फिर तरसता दिखाई देने वाला है…! कर्ज से दबता प्रदेश फिर प्रगतिशील और विकसित प्रदेशों में शामिल होने की छटपटाहट को तरसता दिखाई देने लगा है…! इससे फारिग हुए तो फिर मुहल्ला और गांवों के चुनाव में भी सियासी मशक्कत होने वाली है…! गिरी सरकार और बनी सरकार के लिए, उपचुनावों की महा कतार के लिए तो यह कार्यकाल याद किया ही जाएगा, साथ ही विकास विहीन कार्यकाल का तमगा भी इसके हिस्से आ सकता है…!

पुछल्ला
इकबाल बुलंद रहे
राजधानी भोपाल का इकबाल से गहरा ताल्लुक रहा। उनकी याद को दिल से निकालने वालों ने इक्का-दुक्का, छोटे-मोटे और बनावटी कार्यक्रमों से जता दिया कि शहर सुकून और गफलत का है, किसी को याद रखना उसके बस का नहीं है। इकबाल की रूह को दुख और तकलीफ उस खिरनी के मैदान को देखकर भी हुई होगी, जहां उन्होंने अदब की दुकान खोली थी, वह प्रदर्शन और विरोध के नाम पर बदनाम होकर अब पुलिस कब्जे में है।

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