बिल्कुल नयी कहन के शायर थे निदा फाज़लीः अनिता मण्डा

दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है
मिल जाए तो मिट्टी है खो जाए तो सोना है।

मुम्बई में 8 फ़रवरी 2016 को दिल के दौरे से निदा फ़ाजली दुनिया से चले गये, लेकिन अपनी बेहतरीन शायरी, नज्मों, दोहों से वे हमेशा हमारे दिलों में जिन्दा रहेंगे। आज उनकी बरसी पर उनको याद करते हुए उनके ही एक अशआर से नमन।

उसको रुखसत तो किया था, मुझे मालूम न था
सारा घर ले गया, घर छोड़ के जानेवाला
– निदा फ़ाज़ली

निदा फ़ाज़ली ज़मीन से जुड़े हुए शायर थे। वे दिल के शायर थे।  बहुत सरल भाषा में बुलंद सोच का प्रतिनिधित्व करते थे।  हिन्दी-उर्दू दोनों पाठकों में एक समान लोकप्रिय थे।  समकालीन उर्दू साहित्य में वे उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण हस्ताक्षर थे। उनकी रचनाओं ग़ज़लों, नज़्मों, दोहों में वर्तमान सामाजिक विसंगतियों, राजनितिक विद्रूपताओं को रेखांकित तो किया ही गया है साथ ही अँधेरे रास्तों में उम्मीदों की नयी रोशनी भी दी है। निदा का प्रारम्भिक जीवन संघर्ष भरा रहा, देश का बँटवारा ओर परिवार का पाकिस्तान चले जाना उनके भीतर गहरा दर्द भर गया।
आम इंसान के दर्द को निदा ने अपने लेखन में तरज़ीह दी है। उनमें कबीर का फक्कड़पन है, सूर की गोपियों का समर्पण है, खुसरो की सूफ़ियाना आध्यात्मिकता है। वे ऐसे शायर थे जिन्होंने अदब को जिया ओर सरलतम भाषा में गजलों को पेश किया।

बात कम कीजे ज़ेहानत को छुपाए रहिए
अजनबी शहर है ये, दोस्त बनाए रहिए

उर्दू के कुछ जदीद शायरों ने हिन्दी और उर्दू की दीवार ढहाकर रख दी और ऐसे जदीदियों में निदा फ़ाज़ली का नाम सबसे पहले लिया जाएगा।

मन बैरागी, तन अनुरागी, क़दम-क़दम दुशवारी है
जीवन जीना सहल न जानो बहुत बड़ी फनकारी है

निदा साहब का जन्‍म 1938 में 12 अक्‍तूबर दिल्ली में हुआ था। पिता मुर्तुज़ा हसन और मां जमील फ़ातिमा के घर में वह तीसरी संतान थे। मां-बाप ने उनका नाम मुक़्तदा हसन रखा था। पिता भी शायर थे। बचपन में वह ग्‍वालियर में बीत। वहीं पढ़ाई हुई। दंगों के कारण उनके माता-पिता पाकिस्तान जा के बस गए, लेकिन निदा भारत में ही रहे।

सियासत को निदा चरवाहे की संज्ञा देते हैं ओर आम इन्सां को भेड़ की। निदा कहते थे सियासत के चक्रव्यूह ने उन्हें बेजान कर दिया। 1965-66 के दंगों में भारत छोड़ कर न जाने के अपने फैसले पर कहा “ज़मीन की तब्दीली मसाइल का हल नहीं, मसाइल उस ज़माने में न हिन्दू थे, न मुसलमान, न ईसाई थे, मसाइल सिर्फ इंसान ही थे। वह उस इंसान से तअल्लुक़ रखते थे जिसे ग़ालिब ने कहा था-

बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना

ग़ालिब कहना चाहते थे कि माँ के पेट से जो पैदा होता है वह आदमी है लेकिन आदमी को इन्सां बनने के लिए एक लम्बा सफ़र तय करना पड़ता है ओर जब इन्सां बन जाता है तब वो महात्मा बुद्ध, महावीर बन जाता है। ग़ालिब की बात को निदा ने यूँ कहा-

कोई हिंदू कोई मुस्‍लिम कोई ईसाई है
सब ने इंसान न बनने की कसम खाई है।

निदा फ़ाज़ली इनका लेखन का नाम है। निदा का अर्थ है स्वर, आवाज़। फ़ाज़िला क़श्मीर के एक इलाके का नाम है जहाँ से निदा के पुरखे आकर दिल्ली में बस गए थे, इसलिए उन्होंने अपने उपनाम में फ़ाज़ली जोड़ा।

जावेद अख़्तर साहब ने निदा साहब के लिए कहा है
“निदा साहब का सम्मान हिंदी-उर्दू में योगदान के लिए एक समान था। वे लिखते उर्दू में थे पर एमए हिंदी में किया था। उनके दिल में मीर, मीरा, तुलसी, रहीम, कबीर एक साथ धड़कते थे। उनकी लेखनी में जमीनी सोच वाले शब्द फूटते थे। ऐसी शायरी, जो हर कोई समझ जाए। परंपरा में रहकर कलम चलाते थे, जिसमें दोहे-नज्म़, गज़ल… सब कुछ मिलेगा। वे अपने तय किए सांचे में बात करते थे, पर दस बार कही बात कभी नहीं लिखी। वे अगली पीढ़ी के शायर थे। उन्होंने अपनी रचनाओं को किसी भाषा के बंधन में नहीं बाँधा । उन्होंने फ़ारसी जबान को हिंदी और उर्दू के साथ समझने में आसान बना दिया, उनकी लिखी गज़ल है-
“दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है
मिल जाए तो मिट्टी है खो जाए तो सोना है।” –

निदा अपने पहले  प्‍यार से महरूम रहे। इसी बेइन्तहां दर्द ने उनको शायर बनाया था। कॉलेज में जिस लड़की से लगाव पनप रहा था, उसकी मृत्यु एक दुर्घटना में हो गई, निदा के ग़म का ठिकाना न रहा पर उन्होंने महसूस किया कि अब तक के अपने लिखे हुए से वो इस ग़म को बयां नहीं कर सकते। एक सुबह मन्दिर के पास से गुजरते हुए निदा ने किसी की आवाज़ में सूरदास का भजन  सुना  “मधुबन तुम क्यौं रहत हरे? बिरह वियोग स्याम सुंदर के ठाढ़े क्यौं न जरे?”
निदा को लगा कि उनके अंदर दबा गम का सागर बांध तोड़ कर निकल पड़ा है। फिर उन्होंने कबीरदास, तुलसीदास, बाबा फ़रीद आदि को पढ़ा। उनसे प्रेरित होकर सरल-सपाट शब्‍दों में लिखना सीखा और बेजोड़ लिखा।

1958 में ग्वालियर से पी जी किया। निदा साहब भी संघर्षों की एक ऐसी दास्ताँ हैं जो जिंदगी के धूप-छाँव से गुज़रती रही है. बँटवारे के बाद पूरे परिवार का पाकिस्तान चले जाना और उनका यहीं रुक जाना, मुंबई आ जाना पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहना प्रगतिशील उर्दू लेखकों के बीच पहचान बनाना, मुशायरों में शिरकत करना 1964-80 के बीच का यह सफ़र निदा साहब के लिए खुद को बनाये रखने की ज़द्दोजहद का समय था। निदा के आलेख व कविताओं को बहुत पसंद किया गया। पहला कविता संग्रह उर्दू में 1969 में आया।
बॉलीवुड में निदा का सफर :-
बॉलीवुड में निदा का प्रवेश इस तरह से हुआ कि कमाल अमरोही रज़िया सुलतान बना रहे थे ओर इस फ़िल्म के गीतकार जाँनिसार अख़्तर का निधन हो गया, अख़्तर साहब ने निदा के बारे में अमरोही साहब को बता रखा था, इस  तरह निदा साहब की बॉलीवुड में संयोग से एंट्री हो गई।
उनके गीत काफी सरल माने जाते हैं, जो हर एक की जुबान पर चढ़े रहते थे। प्रगतिशील वामपंथी आंदोलन से जुड़े रहे निदा फ़ाज़ली को हर तबके से प्यार मिला और उनके गीतों को काफी पसंद भी किया गया।
उनके लिखे कुछ गाने ये हैं-
तेरा हिज्र मेरा नसीब है, तेरा गम मेरी हयात है-फ़िल्म रज़िया सुल्ताना। यह उनका लिखा पहला फ़िल्मी गाना था।
आई ज़ंजीर की झन्कार, ख़ुदा ख़ैर कर करे- रज़िया सुल्ताना, होश वालों को खबर क्या, बेखुदी क्या चीज है -फ़िल्म सरफ़रोश, कभी किसी को मुक़म्मल जहाँ नहीं मिलता -आहिस्ता-आहिस्ता, तू इस तरह से मेरी ज़िंदग़ी में शामिल है -आप ऐसे तो न थे। चुप तुम रहो, चुप हम रहें  – इस रात की सुबह नहीं।  दुनिया जिसे कहते हैं, मिट्टी का खिलौना है (ग़ज़ल)
हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी (ग़ज़ल)
अपना ग़म लेके कहीं और न जाया जाये (ग़ज़ल)

निदा साहब की रचनाएं

काव्य संग्रह – लफ़्ज़ों के फूल (पहला प्रकाशित संकलन)
मोर नाच, आँख और ख़्वाब के दरमियाँ, खोया हुआ सा कुछ (1996) (1998 में साहित्य अकादमी से पुरस्कृत), आँखों भर आकाश ,सफ़र में धूप तो होगी
आत्मकथा – दीवारों के बीच , दीवारों के बाहर ,निदा फ़ाज़ली (संपादक: कन्हैया लाल नंदन)
संस्मरण – मुलाक़ातें ,तमाशा मेरे आगे
संपादित – बशीर बद्र : नयी ग़ज़ल का एक नाम (संपादित),जाँनिसार अख़्तर : एक जवान मौत (संपादित) ,दाग़ देहलवी : ग़ज़ल का एक स्कूल (संपादित),मुहम्मद अलवी : शब्दों का चित्रकार (संपादित) ,जिगर मुरादाबादी : मुहब्बतों का शायर (संपादित)

पुरस्कार – 1998 साहित्य अकादमी पुरस्कार – काव्य संग्रह खोया हुआ सा कुछ।
निदा फ़ाज़ली को ‘पद्मश्री’ से 2013 में सम्मानित किया गया। कुछ समय पूर्व ही इंग्लैंड के ‘हाउस ऑफ कॉमन्स’ में उन्हें आदर दिया गया। हिंदी और उर्दू में लिखने वाले शायर को अंग्रेजों के देश ने सम्मान दिया, क्योंकि मनुष्य की करुणा अंतरराष्ट्रीय भाषा है।

निदा फ़ाज़ली ने गज़ल और गीतों के अलावा दोहे और नज़्में भी लिखी हैं और लोगों ने जमकर सराहा है। उनकी शायरी की एक खास खूबी ये रही है कि उनके अशआर में फारसी शब्दों के बजाय देशी शब्दों और जुबान का इस्तेमाल बहुत ही उमदा तरीके से किया गया है।

प्रसिद्द शायर शानी उनके बारे में ठीक ही फ़रमाते हैं
“गज़ल की जान हो या ज़बान, सोच हो या शिल्प, छब-ढब हो, रख-रखाव हो या सारा रचनात्मक रचाव—अपने मिज़ाज़, तेवर और रूप में रचनाकार निदा फ़ाज़ली बिल्कुल अकेले ही दिखायी देते हैं। कुछ मायने में तो वे उर्दू के उन बिरले जदीद शायरों में से हैं जिन्होंने न सिर्फ़ विभाजन की तक़लीफ़ें देखीं और सही हैं बल्कि बहुत बेलाग ढंग से उसे वो ज़बान दी है जो इससे पहले लगभग गूँगी थी। उर्दू की शायरी की सबसे बड़ी और पहली शिनाख़्त यह है कि उसने फ़ारसी की अलामतों से अपना पीछा छुड़ाकर अपने आसपास को देखा, अपने इर्द-गिर्द की आवाज़ें सुनीं और अपनी ही ज़मीन से उखड़ती जड़ों को फिर से जगह देकर मीर, मारीजी, अख्तरुल ईमान, जांनिसार अख्सर जैसे कवियों से अपना नया नाता जोड़ा। उसने ग़ालिब का बेदार ज़हन, मीर की सादालौही और जांनिसार अख्तर की बेराहरवी ली और बिल्कुल अपनी आवाज़ में अपने ही वक़्त की इबारत लिखी—ऐसी इबारत, जिसमें आने वाले वक्तों की धमक तक सुनाई देती है। यह संयोग की बात नहीं है कि उर्दू के कुछ जदीद शायरों ने तो हिन्दी और उर्दू की दीवार ढहाकर रख दी और ऐसे जदीदियों में निदा फ़ाज़ली का नाम सबसे पहले लिया जाएगा।“

निदा ने जो देखा झेला वही लिखा। चौकसे लिखते हैं “मुंबई में गलियों की खाक छानते हुए यह दरवेश प्रसिद्ध लोगों से भी मिलने गया और उनके मुखौटों के परे उनके टुच्चेपन से परिचित हुआ। इन अनुभवों पर आधारित उनकी किताब ‘मुलाकातें’ ने हंगामा बरपा दिया। साहित्य के श्रेष्ठि वर्ग ने अपने यूं उजागर किए जाने पर एतराज किया।”

ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं
ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलता

निदा साहब का ये शेर बहुत बार संसद में भी कोट हुआ है-
सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो
सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो

यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता
मुझे गिरा के अगर तुम सँभल सको तो चलो

जगजीत सिंह और निदा के साथ ने नए आयाम गढ़े।  निदा की ग़ज़लें जगजीत की आवाज़ में आवाम में बहुत पसंद की गई।
हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी
फिर भी तनहाइयों का शिकार आदमी

रीतिकाल में ब्रज व अवधि  दोहों का लेखन बहुत हुआ पर खड़ी बोली में दोहे अपने परिपक्व स्वरूप में निदा साहब के माध्यम से ही आये। निदा साहब जब भी दोहे पढ़ते थे, खुसरो की विरासत को जरूर याद करते थे।

खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग।
तन मेरो मन पियो को, दोउ भए एक रंग।।

निदा की ज़ुबाँ से खुसरो का यह दोहा सुनते हुए महसूस होता है खुसरो के गुरु निजामुद्दीन औलिया आशीष बरसा रहे हों।

धर्मिकाडम्बरों पर कबीर की शैली में मीठा सा व्यंग्य कितना दमदार है, पूरा कबीर का रंग दिखता है
सातों दिन भगवान के, क्या मंगल क्या पीर
जिस दिन सोये देर तक, भूखा रहे फकीर

चाहे गीता बांचिये, या पढिये कुरान
मेरा तेरा प्यार ही हर पुस्तक का ज्ञान

माँ पर वैसे तो मुनव्वर राणा ने बहुत कहा है पर निदा के यहाँ माँ से टेलीपैथी इस प्रकार प्रकट हुई है-
मैं रोया परदेस में, भीगा माँ का प्यार
दुःख ने दुःख से बात कि, बिन चीठी बिन तार

विश्व राजनितिक  परिदृश्य का एक कितना सुंदर विश्लेषण है।
सात समुन्दर पार से, कोई करे व्यापार
पहले भेजे सरहदें, फिर भेजे हथियार

निदा अपने लफ़्जों के माध्यम से चित्र उकेरने में माहिर हैं, साथ ही रिश्तों की गहरी समझाईश भी उनकी लेखनी की ख़ासियत है, आम भाषा में लेखन इसे ओर भी ख़ास बनाता है, शब्दों के चयन में जहाँ आम बोलचाल के अंग्रेजी शब्द भी प्रयोग में आयें हैं, एक ऐसी ही नज़्म देखिये-

गोटे वाली/ लाल ओढ़नी/ उस पर/ चोली-घागरा
उसी से मैचिंग करने वाला/ छोटा सा इक नागरा
छोटी सी!/ ये शॉपिंग थी/ या!/ कोई जादू-टोना
लम्बा चौड़ा शहर अचानक/ बन कर/ एक खिलौना/
इतिहासों का जाल तोड़ के/
दाढ़ी/ पगड़ी/ ऊँट छोड़ के/
”अलिफ़” से/ अम्माँ/ ”बे” से/ बाबा/ बैठा बाँच रहा था /
पाँच साल की/बच्ची/ बन कर जयपुर/ नाच रहा था।

निदा साहब ने पिता पर बहुत उम्दा नज़्म कही तो माँ पर भी बेहतरीन ग़ज़ल भी कही है, यहाँ भी प्रतीक चुनाव, उपमाएँ इतनी सटीक हैं कि लगता है इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता।

बेसन की सोंधी रोटी पर, खट्टी चटनी जैसी माँ
याद आती है चौका, बासन, चिमटा, फूंकनी जैसी माँ

निदा ने अपने अब्‍बा के इंतकाल पर जो नज़्म लिखी, वह शायद इनके प्रेम व सरलता की इंतहा थी। माँ पर बहुत लिखा गया है लेकिन पिता के लिए इतना  भावपूर्ण लेखन कम ही देखने को मिलता है।

तुम्हारी कब्र पर मैं
फ़ातेहा पढ़ने नही आया,
मुझे मालूम था, तुम मर नही सकते
तुम्हारी मौत की सच्ची खबर
जिसने उड़ाई थी, वो झूठा था,

निदा की समझ ओर व्यक्तित्व की गहराई का दर्शन करने वाला एक प्रसंग ये कि  वे एक बार पकिस्तान में मुशायरे में पढ़ रहे थे-

घर से मस्जिद है बड़ी दूर, चलो ये कर लें।
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए॥

इस पर लोगों ने विरोध प्रकट करते हुए उनसे पूछा कि क्या निदा किसी बच्चे को अल्लाह से बड़ा समझते हैं? निदा ने उत्तर दिया कि मैं केवल इतना जानता हूँ कि मस्जिद इंसान के हाथ बनाते हैं जबकि बच्चे को अल्लाह अपने हाथों से बनाता है।

जयप्रकाश चौकसे निदा के लिए लिखते हैं–“निदा फ़ाज़ली बेसहारा बेनाम आम आदमी की चिंता करते हैं, जो बाजार की ताकतों, सियासत के तिलिस्म और अपने मन के अनाम भय और छल करने वाले सपनों से घिरा हुआ है। निदा की आँखें उन दीवारों को देख सकती हैं, जो मनुष्य और मनुष्य के बीच निहायत ही चतुराई से गढ़ी जा रही हैं और वह उनसे बेखबर है। निदा फ़ाज़ली की व्यक्तिगत प्रतिभा अपनी सांस्कृतिक परंपरा से प्रेरणा लेकर उसे मजबूती प्रदान करती है और भविष्य के संवेदनशील सृजनधर्मियों के लिए ज़मीन भी तैयार करती है।”

भाषा पर निदा फ़ाज़ली के विचार-
भाषा पर एक बार निदा साहब ने एक इंटरव्यू में कहा था “ज़ुबाँ के दो तीन चेहरे होते हैं। एक मुल्ला, एक पंडित, एक आम आदमी।
मुल्ला कहेगा ‘मैं अपनी रिहाइश के लिए रूख़सत हो रहा हूँ।’
पंडित कहेगा ‘मैं अपने निवास के लिए प्रस्थान कर रहा हूँ’
रिक्शेवाला कहेगा, मेहनत मजदूरी वाला, पसीने बहाने वाला कहेगा ‘मैं अपने घर जा रहा हूँ’
ये तीन-चौथाई हिन्दुस्तान की भाषा है। ये महाश्वेता देवी के नोवेल ओर प्रेमचंद के होरी की ज़ुबान है। इसे मुल्ला और पंडित से आज़ाद करवाना है। जब तक ये आज़ाद नहीं होती यहाँ की भाषा सेक्युलर नहीं होगी। आम आदमी की ज़ुबान ही सबसे ताकतवर ज़ुबान है।”

निदा अपने लेखन से सदियों याद किये जायेंगे।  उनकी सादगी, अदब की समझ ओर संवेदनाएँ अप्रतिम हैं। अदब की दुनिया ने उनका ख़ास मुकाम हमेशा रहेगा। कबीर की तरह आम इंसान से जुड़े होना उनको जन -मन के बीच में हमेशा मक़बूल रखेगा।

नक़्शा उठा के कोई नया शहर ढूँढ़िये
इस शहर में तो सबसे मुलाक़ात हो गयी

 

अनिता मण्डा
दिल्ली

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