ndaबिहार की राजनीति को हरलाखी विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव परिणाम की बेसब्री से प्रतीक्षा थी. यह सीट एनडीए के घटक राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) के खाते में गई. सत्तारूढ़ महा-गठबंधन के कांग्रेस प्रत्याशी मोहम्मद शब्बीर साढ़े अट्ठारह हज़ार से अधिक मतों से पराजित हुए. गत विधानसभा चुनाव में भी यह सीट उपचुनाव में विजयी सुधांशु शेखर के पिता वसंत कुशवाहा के खाते में गई थी, पर शपथ लेने के पहले ही उनका निधन हो गया था. इस बार एनडीए की जीत का अंतर पिछली बार की तुलना में क़रीब पांच गुना अधिक रहा.

इस चुनाव परिणाम ने तात्कालिक तौर पर कोई हलचल तो पैदा नहीं की, पर यह तो निर्विवाद है कि इस जीत से विपक्षी एनडीए की राजनीतिक हिम्मत काफी बढ़ी है. एनडीए के घटक दलों ने फौरी तौर पर यही कहा भी है. इस उपचुनाव के प्रचार और सीट निकालने की राजनीतिक व्यवस्था में गंभीर रूप से लगे राजद प्रमुख लालू प्रसाद ने हालांकि अब तक कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की, पर कांग्रेस एवं जनता दल (यू) ने इसे सहानुभूति लहर और भाजपा के हथकंडे की सफलता के तौर पर पेश किया है.

उक्त दलों के नेताओं ने इससे सिरे से इंकार किया कि यह परिणाम राज्य की महा-गठबंधन सरकार के कामकाज और सूबे के आम हालात पर मतदाताओं का फैसला है. उनका कहना है कि रालोसपा प्रत्याशी सहानुभूति की लहर पर तो सवार थे ही, क्षेत्र में तीखा ध्रुवीकरण बनाने में भी एनडीए (भाजपा) सफल रहा, जिससे मतदान गहरे तक प्रभावित हुआ.

यह संयोग ही था कि मधुबनी में हरलाखी उपचुनाव के परिणाम की घोषणा हो रही थी और उधर एनडीए महा-गठबंधन सरकार के खिला़फ सड़क था. एनडीए ने क़ानून का राज बनाए रखने में राज्य सरकार की विफलता को लेकर पूरे सूबे में आक्रोश मार्च का आह्वान किया था. पटना में भाजपा और एनडीए के अन्य घटक दलों के उत्तेजित प्रदर्शनकारियों को शांत करने के लिए प्रशासन को खासी मशक्कत करनी पड़ी. इस क्रम में वाटर कैनन का भी इस्तेमाल करना पड़ा. बिहार के क़रीब एक दर्जन ज़िला मुख्यालयों में एनडीए कार्यकर्ताओं ने पुलिस बैरिकेडिंग तहस-नहस कर दी और वे प्रतिबंधित क्षेत्र में घुस गए.

एनडीए के अन्य किसी घटक दल ने तो नहीं, पर लोक जनशक्ति पार्टी ने बिहार में केंद्र के हस्तक्षेप यानी राष्ट्रपति शासन की मांग कर दी. सूबे में क़ानून व्यवस्था की हालत क्या है, यह बताने के लिए बहुत कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है. जिस दिन एनडीए का आक्रोश प्रदर्शन था, उसी दिन सुबह समस्तीपुर में राजद के वरिष्ठ कार्यकर्ता एवं दबंग वीरेंद्र यादव को उसी इलाके के एक अन्य दबंग के शूटरों ने गोलियों से छलनी कर मौत के घाट उतार दिया.

वीरेंद्र यादव के साथ उसका अंगरक्षक भी मारा गया. एक महीने के दौरान समस्तीपुर में यह दूसरी बड़ी आपराधिक वारदात है. इससे पहले स्थानीय राजद नेता छन्नू भगत की हत्या कर दी गई थी, दिनदहाड़े. हत्या तो हत्या होती है, पर लोजपा नेता बृजनाथी सिंह की पटना की कच्ची दरगाह में और भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष विश्वेश्वर ओझा की भोजपुर ज़िले के शाहपुर क्षेत्र में हुई हत्याओं ने सूबे की राजनीति सरगर्म कर दी है.

इन और ऐसी अनेक हत्याओं एवं अन्य आपराधिक वारदातों ने विधानसभा चुनाव की हार से पस्त हिम्मत भाजपा (एनडीए) को सड़क पर उतरने की नई ताकत दे दी. हालांकि, विपक्ष ने महा-गठबंधन सरकार को छह महीने तक मौक़ा देने का फैसला किया था, पर सूबे के हालात के कारण उसे सड़क पर आना पड़ा, ऐसा भाजपा नेताओं का कहना है. ऐसे में हरलाखी विधानसभा उपचुनाव के परिणाम को वे अपने राजनीतिक स्टैंड की जन-स्वीकृति के तौर पर पेश कर रहे हैं.

यह कहना तो कठिन है कि एनडीए के नेताओं का दावा सही या ग़लत, पर इतना तो सा़फ है कि हरलाखी उपचुनाव के कई राजनीतिक निहितार्थ हैं. इसका एक सिरा महा-गठबंधन सरकार के कामकाज को छूता है, तो दूसरा महा-गठबंधन के भीतर राजनीतिक अहम को लेकर बन रहे माहौल को. उपचुनाव का परिणाम एनडीए में बेहतर तालमेल के दावे को पुष्ट करता है. हालांकि, रालोसपा की इस जीत में उसके प्रत्याशी के पक्ष में सहानुभूति लहर की भूमिका भी कम बड़ी नहीं रही.

हरलाखी विधानसभा क्षेत्र में आम चुनाव के दौरान रालोसपा की जीत चार हज़ार से भी कम मतों से हुई थी. उस समय कहा गया था कि तत्कालीन विधायक शालिग्राम यादव के बतौर निर्दलीय मैदान में आ जाने के कारण महा-गठबंधन के कांग्रेसी उम्मीदवार मोहम्मद शब्बीर चुनाव हार गए. रामाशीष यादव ने उस चुनाव में क़रीब 21 हज़ार मत हासिल किए थे. इस उपचुनाव में महा-गठबंधन की जीत सुनिश्चित करने के ख्याल से राजद प्रमुख लालू प्रसाद ने अपनी हैसियत का इस्तेमाल किया और रामाशीष यादव को न स़िर्फ चुनाव लड़ने से रोक लिया, बल्कि उनसे महा-गठबंधन के पक्ष में प्रचार भी कराया.

कांग्रेस के मंत्रियों एवं विधायकों के साथ-साथ राजद के प्रदेश अध्यक्ष रामचंद्र पूर्वे सहित उसके अनेक मंत्री भी क्षेत्र में सक्रिय रहे. चुनाव अभियान की कमान कांग्रेस के दिग्गज डॉ. शकील अहमद के हाथ थी. यह उनके लिए भी प्रतिष्ठा का सवाल था, लिहाजा उन्होंने पूरी ताकत झोंक दी थी. लालू प्रसाद तो प्रचार करने खुद गए ही, उनके दल के सभी नेता गए, सभी लगे रहे. वहीं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इस उपचुनाव के दरम्यान हरलाखी तो क्या, उस इलाके में ही नहीं गए. हालांकि, कांग्रेस की चाहत थी (जो सहज थी) कि मुख्यमंत्री चुनाव अभियान में हरलाखी जाएं, पर वह नहीं गए.

जनता दल (यू) की ओर से कहा गया कि तबियत ठीक न होने के कारण नीतीश कुमार चुनाव अभियान में नहीं गए. लेकिन, यह तथ्य कितना सही है, यह कहना कठिन है, क्योंकि इसी दौरान वह उत्तर प्रदेश के दौरे पर गए और वहां के आगामी विधानसभा चुनाव में जद (यू) के लिए राजनीतिक जगह की तलाश में संभावित गठबंधन को लेकर कुछ दलों से बातचीत भी की. फिर दिल्ली भी गए. खुद को हरलाखी उपचुनाव से अलग रखने के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के क्या कारण रहे, यह तो वही बेहतर बता सकते हैं, पर इसने बिहार के राजनीतिक हलकों में कयासों के पर लगा दिए हैं.

इन कयासों के दो आयाम हैं. पहला तो यह कि इसे भावी संसदीय चुनाव से जोड़ा जा रहा है. बताया जा रहा है कि वह अपने पुराने समीकरण लव-कुश यानी कुर्मी-कुशवाहा की एकता नए सिरे से मजबूत करना चाहते हैं. समता पार्टी के गठन के साथ ही उन्होंने इस समीकरण पर भरोसा किया था और इसका राजनीतिक लाभ भी उन्हें मिला था, लेकिन बाद में यह पिछड़ता चला गया और दोनों समुदाय एक रहे नहीं. नीतीश कुमार अब फिर इसे राजनीतिक खाद देना चाहते हैं.

इस बार फिर विधानसभा चुनाव में कुशवाहा समुदाय के मत आम तौर पर महा-गठबंधन को मिले और अति पिछड़ों का उनका सामाजिक समर्थक आधार मजबूत हुआ था, लिहाजा इसे वह फिर खोना नहीं चाहते. और, हरलाखी में एनडीए का उम्मीदवार इसी समुदाय का था. कयासों का दूसरा छोर ज़्यादा राजनीतिक माना जा रहा है. विधानसभा चुनाव में महा-गठबंधन की भारी जीत के लिए स़िर्फ राजद नहीं, कई अन्य हलकों में भी राजद प्रमुख लालू प्रसाद की राजनीति को ज़्यादा अहम माना गया.

यह बात उस समय तेजी से कही जाने लगी जब जद (यू) ने अपने इस नेता को पीएम मैटेरियल बताकर अगले संसदीय चुनाव के मद्देनज़र राष्ट्रीय स्तर पर बिहार की शैली में भाजपा विरोधी गठबंधन तैयार करने के लिए अधिकृत कर दिया. यह परोक्ष तौर पर नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री पद के भावी प्रत्याशी के तौर पर पेश करना था, जो राजद को नागवार लगा. ऐसे में नीतीश कुमार के लिए खुद के राजनीतिक महत्व का एहसास कराना ज़रूरी था. अब उपचुनाव के बाद राजनीतिक हलकों में माना जा रहा है कि मुख्यमंत्री इसमें सफल रहे. ये राजनीतिक कयास हैं, असलियत तो भविष्य बताएगा.

हरलाखी में महा-गठबंधन की हार से सूबे की सत्ता राजनीति में कुछ नहीं होने जा रहा है. मौजूदा राज्य सरकार को प्रचंड बहुमत हासिल है, एक सीट की हार से उसकी ताकत कम नहीं होगी. विपक्ष की ताकत में भी कोई तात्विक फर्क़ नहीं आ रहा है, पर इसने कई संकेत दे दिए हैं. यह सही है कि रालोसपा प्रत्याशी (नवनिर्वाचित विधायक) सुधांशु शेखर को मतदाताओं की सहानुभूति का लाभ मिला है. चुनाव जीत जाने के बावजूद उनके पिता वसंत कुमार शपथ नहीं ले सके थे.

यह भी सही है कि लालू प्रसाद की मेहनत, उनके दल के नेताओं की अति सक्रियता, कांग्रेस के कद्दावर नेता शकील अहमद की प्रतिष्ठा और कांग्रेस का सब कुछ दांव पर लगे होने के बावजूद महा-गठबंधन सीट हासिल नहीं कर सका. इसके बरक्स एनडीए शुरू से अंत तक अधिक एकजुट दिखा, उसके सभी घटकों ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी. फिर भी यह कहना अतिशयोक्ति होगी कि सत्तारूढ़ महा-गठबंधन की चमक कहीं से भी धूमिल दिख रही है या मतदाताओं ने तीन महीने पुरानी सरकार को लेकर अपना निर्णय दिया है. ऐसा फिलहाल कुछ भी नहीं है. यह कहना भी पूरी तरह सही नहीं है कि महा-गठबंधन सरकार के कामकाज और सूबे के आम हालात ने मतदाताओं को जरा भी प्रभावित नहीं किया. एक सीमा तक, छोटे स्तर पर सही, इससे मतदान तो ज़रूर प्रभावित हुआ.

महा-गठबंधन के नेता, सरकार के राजनीतिक नेतृत्व या प्रशासनिक अधिकारी चाहे जो भी दावा करें, लेकिन सूबे के आम हालात तो निश्ंचितता को गंभीर रूप से प्रभावित कर रहे हैं. रंगदारी को लेकर हत्याएं जारी हैं, अपराधी सरगनाओं द्वारा निर्माण कंपनियों को आतंकित करने का अभियान जारी है और सत्तारूढ़ महा-गठबंधन के घटक दलों के नेताओं-विधायकों द्वारा क़ानून तोड़ने का काम भी जारी है. जनता की शिकायतें सुनने और लोगों को राहत पहुंचाने में प्रशासन की
लापरवाही का सबसे बड़ा उदाहरण मुख्यमंत्री का जनता दरबार है, जहां आठ सौ से लेकर ग्यारह सौ तक लोग हर सोमवार को पटना आते हैं.

जनता दरबार द्वारा फरियादों के समाधान की दर भी राहत देने वाली नहीं है यानी हालात के निरंतर निराशाजनक होते जाने का कुछ तो असर पड़ना है. केवल सहानुभूति से रालोसपा (एनडीए कहना उचित होगा) के मतों में इतना इजा़फा सहज नहीं लगता. यह कहना कठिन है कि हरलाखी में चुनावी लहर कितनी रही और सूबे के आम हालात का असर किस हद तक पड़ा, पर अब यह देखना दिलचस्प होगा कि सत्तारूढ़ महा-गठबंधन इस परिणाम (अपनी हार) को कैसे लेता है. यह आने वाले दिनों में पता चलेगा कि महा-गठबंधन का नेतृत्व इसे चुनौती के तौर पर लेता है या सहज राजनीतिक परिघटना के रूप में. या फिर किसी रूप में देखता भी है
या नहीं. 

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