राम की चिड़ियां, राम का खेत; खा ले चिड़ियां भर-भर पेट.
सरदार हरजंत सिंह किसान हैं. वह कहते हैं कि चिड़ियां हों या मेरे खेत, दोनों ही वाहेगुरु के दिए हुए हैं. इसलिए चिड़ियां जितना भी दाना चुगना चाहती हैं, यह उनका अधिकार है. सरदार हरजंत सिंह अपनी इस सोच का अपने खेतों में पूरी तरह से पालन भी करते हैं. पंजाब के फरीदकोट ज़िले के जैतू मंडी के आसपास और भटिंडा ज़िले के कई गांवों के किसानों ने जैविक खेती (ऑर्गेनिक फार्मिंग) को अपना लिया है. उन्होंने खेती के प्राकृतिक तौर-तरीक़ों को अपनाया है. इसमें वे रासायनिक चीजों का इस्तेमाल नहीं करते हैं. खेती के इस तरीक़े को उन्होंने नानक खेती का नाम दिया है.
मेरे बचपन के शुरुआती दिनों की बात है. मैं अपनी दादी मां के पास भटिंडा जाती थी. वहां कई-कई किलोमीटर में फैले खेतों में सुनहरी बालियों वाले गेहूं और पीले-पीले फूलों से लदे सरसों के पौधे लहलहाते थे. ट्यूबवेल से पानी निकाला जाता था. किसान ट्रैक्टर चलाकर खेतों की जुताई करते थे. खेतों के बीचोबीच चिड़ियों को दूर रखने के लिए पुतले भी ख़डे दिखाई देते थे. यह वहां का आम नज़ारा था. उस समय मैं खेती को इन सबसे जो़डकर देखती थी. मैं जब कभी भी खेत-खलिहानों की पेंटिंग बनाती हूं तो ये सारी चीजें मेरी उस पेंटिंग का अनिवार्य हिस्सा होती हैं.
ये सारी चीजें उस समय पंजाब और हरियाणा में हुई हरित क्रांति का परिणाम हैं. उच्च उपज क्षमता वाले बीजों की वैराटी, उर्वरक और कीटनाशक के रूप में रासायनिक पदार्थों के इस्तेमाल ने कृषि के परंपरागत तौर-तरीक़ों को पीछे छो़ड दिया. उन्नत बीजों वाली खेती में पानी की ज़रूरत ज्यादा होती है, इसलिए समुचित सिंचाई के लिए ट्यूबवेल गा़डे गए. खेती जो वर्षा पर निर्भर थी, ब़डी तेज़ी से सिंचाई पर निर्भर हो गई. रसायनों के ब़ढते इस्तेमाल ने मिट्टी के सूक्ष्मजीवों को नष्ट कर दिया. ये सूक्ष्मजैविक तत्व ही फसलों के लिए ज़रूरी पोषक तत्वों की पूर्ति करते थे. रासायनिक खादों के ज़रिए फसलों को जो पोषक तत्व उपलब्ध कराए जाते हैं, वे मिट्टी में उपस्थित जैविक तत्वों को नष्ट कर देते हैं. जिन खेतों में अलग-अलग प्रकार की कई फसलें उगाई जाती थीं, वहां बस एक फसल गेहूं की हो पा रही है. ऐसी स्थिति इन राज्यों के लगभग सभी स्थानों पर है. ठीक वैसा ही, जैसा कि मैं पेंटिंग में इस्तेमाल करती हूं.
खेती जो वर्षा पर निर्भर थी, ब़डी तेज़ी से सिंचाई पर निर्भर हो गई. रसायनों के ब़ढते इस्तेमाल ने मिट्टी के सूक्ष्मजीवों को नष्ट कर दिया. ये सूक्ष्मजैविक तत्व ही फसलों के लिए ज़रूरी पोषक तत्वों की पूर्ति करते थे. रासायनिक खादों के ज़रिए फसलों को जो पोषक तत्व उपलब्ध कराए जाते हैं, वे मिट्टी में उपस्थित जैविक तत्वों को नष्ट कर देते हैं.
लेकिन, आज कुछ किसान फिर से खेती के परंपरागत तौर-तरीक़ों की ओर लौट रहे हैं. वे एक फसल गेहूं या सरसों को उगाते हैं, लेकिन साथ ही मिश्रित खेती भी करते हैं. मिश्रित खेती या बहु फसल में खेती इस तरह से की जाती है, जैसे उगाई गई प्रत्येक फसल एक दूसरे की ज़रूरतें पूरी करती हों. अगर सिंचाई की ज्यादा ज़रूरत वाली धान की खेती की जा रही है तो इसे रागी या बाजरा उगाकर संतुलित किया जा सकता है, क्योंकि इनकी खेती के लिए पानी की ज़रूरत न के बराबर पड़ती है. गाय के गोबर का इस्तेमाल मिट्टी की उर्वरा शक्ति को बढाने के लिए किया जाता है. केंचुए खेतों में कंपोस्ट तैयार करने में मदद करते हैं और औषधीय गुणों वाली नीम और बसिल का इस्तेमाल कीटनाशक के रूप में होता है.
चिड़ियों को खेतों से अपना हिस्सा लेने से रोका नहीं जाता है और वे खेतों में लगी फसलों से की़डे-मकोड़ों को खाकर उसे उनसे दूर रखने में मदद करती हैं. न केवल चिड़ियां, बल्कि कई दूसरे प्राणी भी खेतों की ओर लौटने लगे हैं. चाहे वे केंचुए हों, तितलियां हों या मधुमक्खियां. इससे फसलें बेहतर होती हैं, उनकी गुणवत्ता बेहतर होती है और मात्रा भी बेहतर होती है. मिट्टी में उपस्थित जैविक तत्वों की बेहतरी की भी कोशिश की जा रही है. जीवामृत जिसे गोमूत्र से तैयार किया जाता है, का इस्तेमाल मिट्टी में जैविक तत्वों की मात्रा ब़ढाने के लिए किया जा रहा है. इससे मिट्टी की उर्वरा शक्ति ब़ढती है. किसान मिट्टी को ना जीवन देने और उसकी उर्वरा शक्ति को ब़ढाने के लिए दॄढ़ प्रतिज्ञ हैं. मिट्टी की नरमी और उसकी सौंधी खुशबू जो कभी उसकी पहचान हुआ करती थी, किसान उसे वापस लाने के लिए बेहद उत्साहित हैं. धरती मां के साथ अपने आध्यात्मिक बंधन को वे फिर से स्थापित करना चाहते हैं. वे समस्त जीवों को एक वृहत्तर परिवार धरती का सदस्य मानते हैं. इसलिए खेतों में जीवन की पुनर्वापसी का एक छोटा संकेत भी उन्हें खुशी और गर्व से भर देता है.
किसान खेती-बाडी़ के अपने इन तौर-तरीक़ों को बडे़ गर्व से नानक खेती कहकर पुकारते हैं, क्योंकि वे इसे नानक की शिक्षा से जोड़कर देखते हैं. गुरुनानक देव जी ने समस्त जीवों के प्रति दया और अच्छाई का संदेश दिया था और प्रकृति के साथ तारतम्य बैठाकर रहने की शिक्षा दी थी. गुरुनानक देव जी सरबत दा भला यानी सबकी भलाई की बात कहते थे. किसानों ने खेती-बाडी़ में उनकी इसी भावना को उतारने की कोशिश की है. चाहे वे सूक्ष्मजीवाणु हों या नन्हीं सी चिड़ियां. बात चाहे फसल की हो या फसल उगाने वाले किसानों की, सबका भला हुआ है. गुरुनानक देव जी ने उपदेश दिए थे, किसानों ने उन उपदेशों को व्यवहारिक रूप देने की भरपूर कोशिश की है. उन्होंने खेती-बाडी़ को आध्यात्मिक रूप दिया है और इसलिए वे इसे आध्यात्मिक खेती भी कहते हैं.
सरदार हरजंत सिंह खुलासा करते हैं कि प्राकृतिक तौर-तरीक़े से खेती करने में खर्च कम प़डता है, जबकि रासानिक खेती ज्यादा खर्चीली है. नानक खेती को अपनाने के बाद उनके खर्च में अप्रत्याशित रूप से भारी कमी आई है. ऐसा बाहरी ज़रूरतें का़फी कम होने की वजह से हुआ है. एक एकड़ ज़मीन पर उन्हें सिर्फ़ सौ-दो सौ रुपये का खर्च आता है, जबकि रासायनिक खेती करने में ही लागत तीन हज़ार रुपये आती थी. खेतों में गन्ना और काला चना उगाने के लिए उन्हें न के बराबर खर्च करना पड़ता है. यह सही है कि इससे फसल उत्पादन में थोडी़ कमी आई है, लेकिन उनके मुना़फे में कोई बडी़ कमी नहीं हो पाई. वह कहते हैं, गुरुनानक देव जी के क़रीब होने की यह बस छोटी सी क़ीमत है. पंजाब में प्राकृतिक खेती ने किसानों को प्रकृति और गुरुनानक देव जी के क़रीब ला दिया है. इन सब फायदों के अलावा इसका एक फायदा मुझे भी हुआ है. खेतों की मैं जो पेंटिंग बनाती हूं, उसमें प्रकृति के अब ज्यादा रंग दिखाई देते हैं. मेरी पेंटिंग पहले से कहीं ज्यादा जीवंत दिखाई देती है और बेहतरीन भी.