RAMVILAS-&-JITANचुनाव के वक्त यह अक्सर कहा जाता है कि दिल्ली में जिसकी सरकार हो, अपने यहां भी वही सरकार चुनिए, ताकि केंद्र और राज्य में बेहतर तालमेल बना रहे और सूबे का विकास हो सके. बहुत हद तक यह आजमाया हुआ नुस्खा भी है, लेकिन बिहार में इस समय तस्वीर कुछ दूसरी है. सूबे में अभी ऐसी सरकार है, जिसका साथ भाजपा ने छोड़ दिया है. सामने खुलकर भले ही कोई कुछ न कहे, पर यह सोलह आने सच है कि जदयू के दिल में खटास भरी है और गाहे- बगाहे यह छलक भी जाती है. जब तक बात राजनीतिक थी, तब तक तो चल रहा था. लोग इसे अन्यथा भी नहीं ले रहे थे, क्योंकि राजनीति में तो दांव-पेंच चलते ही रहते हैं, लेकिन अब बात बिहार के भविष्य को भी प्रभावित करने लगी है. आपसी खींचतान में सूबे का विकास हाशिये पर जा रहा है. दिल्ली और पटना के सुर आपस में मिल नहीं रहे हैं.
अभी अनाज के भंडारण एवं वितरण को लेकर राम विलास पासवान और श्याम रजक में तो खुला युद्ध ही शुरू हो गया था. दोनों एक-दूसरे पर गलतबयानी का आरोप लगा रहे थे. हाल यह है कि कई ज़िलों में लोगों को चार-पांच महीने से राशन का अनाज नहीं मिल रहा है. कूपन हैं, पर अनाज नहीं. इसी तरह नक्सल समस्या पर केंद्र एवं राज्य सरकार के नज़रिये में खुलकर मतभेद सामने आए. राजनाथ सिंह ने साफ़ कहा कि नक्सलियों ने अगर कोई हरकत की, तो उसका मुंह तोड़ जवाब दिया जाएगा, लेकिन सूबे के मुखिया जीतन राम मांझी ने साफ़ कर दिया कि वह केंद्र के नजरिये से सहमत नहीं हैं और विकास का मार्ग प्रशस्त करके इस समस्या से निपटेंगे. इसी तरह ग्रामीण इलाकों में सड़कों के निर्माण को लेकर भी विरोधाभास है. कहने का अर्थ यह है कि अगर केंद्र सरकार कुछ कहे और राज्य सरकार कुछ करे, तो फिर विकास की गाड़ी कैसे आगे बढ़ेगी, यह लाख टके का सवाल है.
यह सभी जानते हैं कि हाल के वर्षों में नक्सलियों को लेकर बिहार सरकार का रवैया बहुत सख्त नहीं रहा है. माना जाता है कि इसी वजह से बिहार में नक्सलियों की पैठ लगातार बढ़ रही है और सूबे के ज़्यादातर ज़िले अब नक्सलियों की रेंज में हैं. इसका सीधा असर बिहार में चल रहे निर्माण कार्यों पर पड़ा है. यह एक हकीकत है कि बिना लेवी हासिल किए नक्सली नए काम शुरू करने की हरी झंडी नहीं देते हैं. जिन्होंने लेवी का विरोध किया, उनके यहां नक्सलियों ने आगजनी की, मज़दूरों को उठा ले गए और कई स्थानों पर तो हत्या जैसे मामले भी प्रकाश में आए. नक्सलियों का तांडव बढ़ता गया, लेकिन राज्य सरकार चुप रही. इसलिए अब सवाल उठने लगे हैं कि आख़िर ऐसी क्या मजबूरी है कि नक्सलियों के प्रति नरम रवैया अपनाया जा रहा है. सुशील मोदी कहते हैं कि नक्सलियों से वार्ता नहीं, हमले पर पलटवार करने के गृहमंत्री राजनाथ सिंह के निर्देश पर असहमति जताने वाली बिहार सरकार को बताना चाहिए कि उसे नक्सलियों से वार्ता करने से किसने रोका है. पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार नौ वर्षों तक प्रदेश के गृहमंत्री भी रहे. 2009 में ही तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम ने नक्सलियों को वार्ता का प्रस्ताव भी दिया था. इन पांच वर्षों में नक्सलियों से वे कभी बातचीत के लिए आगे नहीं आए. नक्सलियों का तो सशस्त्र क्रांति में विश्‍वास है और उसी के जरिये वे सरकारें पलटना चाहते हैं.
उन्होंने कहा कि केंद्रीय गृहमंत्री ने नक्सल समस्या से निपटने के लिए संतुलित रूप अख्तियार करने की बात कही है, जिसके तहत सुरक्षा विकास, समाज कल्याण एवं नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में सरकारी योजनाओं की पहुंच को प्राथमिकता दी गई है. पिछले तीन वर्षों में नक्सलियों ने राज्य में 153 स्कूल भवन ध्वस्त करने के साथ-साथ सड़क निर्माण कार्य में लगी सैकड़ों जेसीबी मशीनें फूंक डालीं और निर्माण एजेंसियों से रंगदारी वसूल कर विकास कार्यों को खारिज किया है. फिर ऐसे में राज्य सरकार विकास कार्यों को गति कैसे देगी? मोदी ने कहा कि राज्य सरकार को यह भी बताना चाहिए कि उसने नक्सलियों के लिए जो समर्पण एवं पुनर्वास पैकेज बनाया था, उसके तहत कितने नक्सलियों ने समर्पण किया और सरकार की यह योजना विफल क्यों रही? बिहार सरकार को बताना चाहिए कि क्या वह आंध्र प्रदेश की ग्रे-हाउंड योजना की तर्ज पर विशेष पुलिस बल के गठन का सुझाव दरकिनार करके नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से नक्सल विरोधी विशेष दस्तों और अर्द्धसैनिक बलों को वापस बुला लेगी? क्या निर्दोषों की हत्या पर भी सरकार मूकदर्शक बनी रहेगी? नक्सलियों के प्रति नरमी और प्रभावी कार्रवाई न किए जाने पर केंद्र सरकार से फटकार खाने के बाद क्या बिहार सरकार अगली बार बुलाई गई इस तरह की किसी बैठक का बहिष्कार करेगी?
हकीकत यह है कि बिहार सरकार की नरमी, वोट बैंक एवं चुनाव में मदद के लिए नक्सलियों को महिमामंडित करने की वजह से प्रदेश के 38 में से 33 ज़िलों में नक्सलियों को पांव पसारने में मदद मिली है. नक्सलियों की वजह से ही बिहार विधानसभा के अध्यक्ष की जान पर ख़तरा मंडरा रहा है और वह अपने क्षेत्र तक में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं. हाल में पूर्वी चंपारण के महसी के निकट विस्फोट करके मालगाड़ी को उड़ाने के साथ ही नक्सली लगातार हिंसात्मक घटनाएं अंजाम देने में भी सफल रहे हैं. 2013 में जहां पूरे देश में नक्सल हिंसात्मक घटनाओं में कमी आई थी, वहीं बिहार में ऐसे मामलों में 41 प्रतिशत का इजाफा हुआ था. पूरे देश में नक्सलियों ने पुलिस से जो हथियार लूटे, उनमें 52 प्रतिशत हथियार बिहार से लूटे गए थे. ऐसे में सरकार का बयान नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में तैनात सुरक्षा बलों का मनोबल गिराने वाला है. आख़िर प्रदेश में निवेश करने वाले निवेशकों को हम क्या संदेश देना चाहते हैं.
भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष मंगल पांडेय ने राज्य के 250 की आबादी वाले गांवों को कोर नेटवर्क से जोड़ने के पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के वादे पर सवाल दागा है. उन्होंने कहा, नीतीश कुमार बताएं कि गांव-गांव में सड़क निर्माण का जो हसीन सपना ग्रामीणों को दिखाया गया था, उसका क्या हुआ? पांडेय ने कहा कि मुख्यमंत्री ग्रामीण संपर्क योजना के तहत नीतीश कुमार ने 2012 में 250 की आबादी वाले गांवों तक सड़क बनाने की
घोषणा की थी. नए मुख्यमंत्री ने भी उसे दोहराया है. लेकिन, अफ़सोस की बात यह है कि 1000 की आबादी वाले गांवों में भी संपर्क सड़क सभी जगह नहीं बन सकी है. सारी की सारी योजना कागज पर चल रही है. पांडेय ने कहा कि बिहार में 8,463 पंचायतों के अंतर्गत 44,103 गांव हैं. क्या नीतीश बताएंगे कि उनमें से 250 की आबादी वाले कितने गांवों में सड़कें बनीं? सच्चाई यह है कि मुख्यमंत्री ग्रामीण संपर्क योजना के तहत 15 प्रतिशत भी काम नहीं हुआ, जबकि नीतीश कुमार ने 2014 तक काम पूरा हो जाने की बात कही थी. पूरी योजना मुख्यमंत्री, मंत्री और अभियंताओं के बीच घूम रही है.
दरअसल, गांव के ग़रीब लोग अपनी आंखों से नीतीश कुमार की इस घोषणा पर अमल होते देखना चाहते हैं. विभागीय स्तर पर योजना का पूरा ब्यौरा प्रखंड वार जनवरी 2013 में तैयार कर लिया गया था और तत्कालीन मंत्री भीम सिंह ने भी नीतीश कुमार के सुर में सुर मिलाकर गांव के ग़रीबों तक सड़क पहुंचाने की बात कही थी. प्रखंड वार पथों की पहचान करके प्राथमिकता के आधार पर सूची बना ली गई थी. आख़िर फिर ऐसा क्या हुआ कि सड़कें नहीं बनीं? हाल में केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री उपेंद्र कुशवाहा ने कहा कि बिहार में सड़कों के निर्माण में धन की कमी नहीं होने दी जाएगी. प्रदेश सरकार खर्च करे, हम धन देने को तैयार हैं. अब सवाल यह उठ रहा है कि अगर केंद्र सरकार धन देने के लिए तैयार है, तो फिर क्या वजह है कि सड़क निर्माण का कार्य रुका पड़ा है. कहीं यह केंद्र और राज्य सरकार के बीच बेहतर तालमेल न होने का मामला तो नहीं है? अगर ऐसा है, तो यह बेहद गंभीर मामला है, क्योंकि ऐसी स्थिति बिहार को ही पीछे ले जाएगी.

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