mountbattenहाल ही में, ट्रिब्यून में छपे एक लेख में, नटवर सिंह ने लिखा था कि महात्मा गांधी ने विभाजन की योजना को मंजूरी दी थी. यह तथ्यात्मक रूप से गलत है. समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया की किताब गिल्टी मेन ऑफ इंडियाज पार्टीशन इस बारे में एक तथ्यात्मक स्थिति बताता है. लोहिया उस अंतिम कार्यसमिति की बैठक में मौजूद थे, जिसमें विभाजन योजना को स्वीकार किया गया था.

1947 में भारत के विभाजन को कांग्रेस ने क्यों स्वीकार किया, इस बारे में कुछ लोग यह मानते है कि ऐसा गांधी जी के हस्तक्षेप की वजह से ही हुआ, अन्यथा कार्य समिति इस योजना को अनुमोदित नहीं करती. यह निहायत अनुचित है और अंतिम स्थिति तक विभाजन को रोकने के लिए गांधी जी द्वारा किए गए प्रयासों की गलत तस्वीर प्रस्तुत करता है.

सबको यह अच्छी तरह से मालूम है कि जब जिन्ना की तरफ से विभाजन का आग्रह ज्यादा बढ़ गया था, तब गांधी जी ने एकतरफा कदम उठाते हुए जिन्ना को अविभाजित भारत का प्रथम प्रधानमंत्री बनाने के लिए जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल से बात की थी. जिन्ना को उन्होंने कहा कि वे अपना मंत्रालय जिस तरह से चाहे बना सकते हैं. यहां तक कि उन्हें अपने केंद्रीय मंत्रिमंडल में केवल मुस्लिम लीग के मंत्रियों को रखने का अधिकार देने का भी आश्वासन दिया गया.

यह कहा गया कि कांग्रेस को इस पर आपत्ति नहीं होगी. कोई भी यह नहीं बता सकता कि इस आश्वासन पर जिन्ना की प्रतिक्रिया क्या रही होगी. लेकिन, यह जानना भी दिलचस्प है कि जिन्ना ने ऑन रिकॉर्ड यह कहा था कि उनके मुंबई और दिल्ली स्थित घर को निष्क्रांत संपत्ति घोषित नहीं किया जाए, क्योंकि वह एक बेहतर भारत-पाक संबंध चाहते थे और साल में एक बार कम से कम एक महीना भारत में बिताना चाहते थे.

लेकिन ऐसा नहीं हो सका, क्योंकि नेहरू और पटेल ने इस प्रस्ताव को स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया. इसलिए हममें से कई लोगों, जो उस वक्त युवा थे, के लिए यह सुनना कि विभाजन को गांधी जी की स्वीकृति मिली, दर्दनाक है और तथ्यात्मक स्थिति का प्रतिनिधित्व नहीं करता है. लोहिया जयप्रकाश नारायण के साथ कांग्रेस कार्य समिति की उस बैठक में मौजूद थे. वे लिखते हैं कि मैं विशेष रूप से उन दो बिंदुओं का उल्लेख करना चाहूंगा, जिसे गांधी जी ने इस बैठक में रखा था.

उस बैठक में गांधी जी ने नेहरू और पटेल से शिकायती लहजे में बोला कि उन्हें विभाजन योजना के बारे में सूचित नहीं किया गया था. इससे पहले कि गांधी जी अपनी बात को पूरी तरह से रखते, नेहरू ने यह कहने के लिए हस्तक्षेप किया कि उन्हें इस बारे में पूरी तरह से सूचित किया गया था.

महात्मा गांधी ने जब दुहराया कि उन्हें विभाजन की योजना के बारे में पता नहीं था, तब नेहरू ने अपने अवलोकन में थोड़ा सा बदलाव लाते हुए कहा कि नोआखली इतनी दूर है कि विभाजन के पूर्ण विवरण उन तक नहीं पहुंचा सके, अलबत्ता इस योजना की जानकारी मोटे तौर पर गांधीजी को लिख कर भेजा था. मैं इस केस में महात्मा गांधी के वर्जन को स्वीकार करूंगा न कि नेहरू को और ऐसा कौन नहीं मानेगा?

हालांकि एक झूठ के रूप में नेहरू को खारिज करने की जरूरत नहीं है. मुद्दा यह है कि जब तक नेहरू और पटेल खुद इस योजना के लिए प्रतिबद्ध हो चुके थे, क्या उससे पहले इसकी जानकारी महात्मा गांधी तक पहुंची थी? नेहरू के लिए ये ठीक नहीं था कि वे एक ऐसा अस्पष्ट पत्र प्रकाशित करें जो उन्होंने महात्मा गांधी को लिखा होता और जिसमें नाकाफी और गैर तथ्यात्मक जानकारी दी होती.

निश्चित रूप से इस मामले में कहीं न कहीं कुछ सन्देहास्पद है. नेहरू और पटेल ने जाहिर तौर पर खुद यह फैसला किया था कि डीड पर फैसला होने से पहले गांधीजी को नहीं डराना ही अच्छा होगा. नेहरू और पटेल की ओर मुड़ते हुए गांधीजी ने अपना दूसरा मुद्दा सामने रखा.

वे चाहते थे कि अपने नेताओं द्वारा जाहिर की गई प्रतिबद्धताओं का सम्मान कांग्रेस पार्टी करे. इसलिए उन्होंने विभाजन के सिद्धांत को स्वीकार करने के लिए कांग्रेस से कहा. सिद्धांत स्वीकार करने के बाद कांग्रेस को इसके क्रियान्वयन के विषय में एक घोषणा करनी चाहिए. इसे ब्रिटिश सरकार और वायसराय से एक तरफ होने के लिए कहना चाहिए, जैसे ही एक बार कांग्रेस और मुस्लिम लीग विभाजन को अपनी स्वीकृति दे देते हैं.

देश का बंटवारा कांग्रेस और मुस्लिम लीग के द्वारा संयुक्त रूप से बिना किसी अन्य के हस्तक्षेप के किया जाना चाहिए. उस वक्त मैंने सोचा था और अभी भी सोचता हूं कि यह एक मास्टरस्ट्रोक था. गांधी जी के कूटनीतिक व्यक्तित्व के बारे में बहुत कुछ कहा जा चुका है, लेकिन मेरे विचार से उनके इस चतुर और बुदि्‌धमतापूर्ण प्रस्ताव के बारे में अभी तक ऑन रिकॉर्ड कुछ नही कहा गया है. इस कमी को पूरा करने के लिए मै ये बात यहां रख रहा हूं.

बंटवारे के समय गांधी जी की व्यथा इतनी असहनीय थी कि उन्होंने 15 अगस्त को दिल्ली में रहने से इनकार कर दिया. यह उस महान सेनानी की सज्जनता ही थी कि वे दिल्ली में आजादी के जश्न में शामिल न होकर सांप्रदायिक हिंसा ग्रस्त कलकत्ता में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित कर रहे थे.

मैं यह स्वीकार करता हूं कि देश में स्थितियां इस स्तर तक खराब हो चुकी थीं कि विभाजन को रोकना संभव नहीं था. अब तक हमने इस पर गंभीरता से विचार नहीं किया है कि अगर नेताओं ने उस समय राजनीति और राष्ट्रनीति की सही समझ दिखाई होती, तो लाखों लोगों की मौत और एक बड़ी बर्बादी को रोका जा सकता था. ये सब जानते हैं कि जब लॉर्ड माउंट बेटेन भारत भेजे गए थे, तब प्रधानमंत्री क्लिमेंट एटली ने कहा था कि जून 1948 तक ब्रिटिश सरकार भारत छोड़ देगी.

क्या यह निर्णय दोनो तरफ के लाखो लोगों की सुरक्षा को ध्यान में रख कर लिया गया था. नि:संदेह कत्लेआम और घृणा तो होती ही, लेकिन दोनो देश लोगों की सुरक्षा का ध्यान रख सकते थे और सुरक्षित आवागमन की व्यवस्था कर सकते थे. लेकिन ऐसा नही हो सका और इसका कारण यह है कि माउंटबेटन ने अपनी तरफ से निर्णय लेते हुए यह घोषणा कर दी कि भारत को 15 अगस्त 1947 को आजादी दे दी जाएगी. इससे लाखो लोगों को सुरक्षित आवागमन की सुविधा देने के लिए वक्त ही नहीं मिला.

यह घोषणा माउंटबेटन ने खुद को महान बनाने और अपने अहंकार में की थी. एक सुप्रीम अलाइड कमांडर की हैसियत से उसने अगस्त 1945 में जापानी नेवी का आत्मसमर्पण अपने समक्ष करवाया था. हमारे अपने नेता भी दुर्भाग्यवश अहंकार में थे और लापरवाही बरत रहे थे. नतीजतन, इनकी चुप्पी का परिणाम लाखो लोगों की मौत और भारी संपत्ति के नुकसान के तौर पर सामने आई. क्या इतिहास उन्हें माफ करेगा, मुझे इसमे संदेह है.  : राजिन्दर सच्चर

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