अच्छा वक्ता किसी भी क्षेत्र में हो सकता है। आकर्षित करने वाली वक्तृत्व शैली वह खूबसूरत कला है जो नैसर्गिक तो होती ही है सामान्य व्यक्ति को भी हमेशा सम्मोहित करती रहती है। साइंस जैसे जटिल विषय का अध्यापक भी अपनी शैली से विद्यार्थियों को सम्मोहित कर सकता है। दरअसल अच्छा वक्ता हम उस व्यक्ति को मानते हैं जिसकी जिह्वा पर सरस्वती का वास कहा जाता है। राजनीति में प्रमुख नाम अटल बिहारी वाजपेई का सर्व विदित है। अटल बिहारी वाजपेई इस बात के लिए हमेशा प्रसिद्ध रहे कि वे जब भी और जहां भी बोलते या भाषण करते थे लोग लालायित होकर उन्हें सुनने आते थे। फिर चाहे वह संसद हो या उनका सार्वजनिक भाषण। साहित्य में डा नामवर सिंह का नाम लीजिए।
जब आप अच्छे वक्ता पर चर्चा करेंगे तो स्वाभाविक है उसके व्यक्तित्व और चरित्र पर जाकर बात टिकेगी । कोई धूर्त, कपटी , छल करने वाला या धोखा देने वाला, बात बात पर झूठ बोल कर स्वयं को महान साबित करने की चेष्टा में लगे इंसान की जिह्वा पर सरस्वती का वास कभी हो ही नहीं सकता। भारत में हमने कई प्रधानमंत्री देखे । सबका व्यक्तित्व और चरित्र काफी हद तक साफ सुथरा पाया गया। यदि प्रधानमंत्री पद है तो उस पद पर विराजमान एक व्यक्ति है। इसलिए जब हम प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व की समीक्षा करते हैं तो दरअसल हम उस पद पर बैठे व्यक्ति की समीक्षा कर रहे होते हैं। इसलिए यह स्पष्ट करना जरूरी है कि नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व की आलोचना अथवा समीक्षा प्रधानमंत्री पद की समीक्षा नहीं है।
मैंने कई प्रबुद्ध लोगों के मुंह से सुना है कि मोदी अच्छे वक्ता हैं। यह उसी तरह हुआ जैसे वर्ष 2014 में कई प्रबुद्ध लोग मोदी से प्रभावित हो गये थे और अपना कीमती वोट उन्हें दे आये थे । बाद में स्वाभाविक है पछताना था, सो पछताए और शायद आज तक वह पछतावा पीछा नहीं छोड़ता होगा। अभी हाल ही में ‘सत्य हिंदी’ के शैलेष जी, जो केवल एक ही शो में प्रस्तुत होते हैं नीलू व्यास के , ने कहा कि मोदी अच्छे वक्ता हैं। यही नहीं ‘बहुत अच्छे वक्ता’ भी वे बोल गये। मैंने इस बात पर उनसे आपत्ति जताई तो वे बोले मोदी अच्छे वक्ता तो हैं वे चाहे झूठ बोल कर प्रभावित करें लेकिन जनता उनके भाषण पर ताली बजाती है। बड़ी बेतुकी बात लगी । मदारी जब अपना खेल दिखाता है तो जनता ताली बजाती है। मूढ़ जनता से ताली बजवाना और और प्रबुद्ध जनता को अपने वाक् चातुर्य से सम्मोहित कर लेना दोनों अलग बातें हैं। क्या मोदी के भाषण पर शैलेष जी भी ताली बजाते होंगे। शायद हां भी और शायद ना भी । लेकिन हिंदुस्तान का कौन सा तबका मोदी के भाषण पर ताली बजाता है बताने की जरूरत नहीं। हमने कई बार लिखा है कि तमाम प्रधानमंत्रियों से अलग मोदी ने अपने वोटरों का एक अलग तबका या वर्ग तैयार किया है। मुझे याद है बचपन में अटल बिहारी वाजपेई की पहली जनसभा अपने शहर में मैंने देखी थी। सभा में काफी शोर था लेकिन भाषण के लिए अटल जी मुंह जैसे खुला सभा में सन्नाटा छा गया। पूरी सभा सम्मोहित और मंत्रमुग्ध थी । ताली सिर्फ भाषण के समापन पर बजी और देर तक बजती रही ।
नरेंद्र मोदी को अच्छा वक्ता कहने से पहले उनके व्यक्तित्व और चरित्र को अच्छी तरह परख लें। अक्सर मोदी को गुजरात के मुख्यमंत्री से जाना जाता है। सब जानते हैं कि गोधरा कांड में जले लोगों के शवों को शहर भर में घुमाने और उसके बाद हुए नरसंहार के पीछे किसकी कैसी योजना थी और राजधर्म की कैसी धज्जियां उड़ाई जा रही थीं। प्रधानमंत्री पद के लिए आडवाणी के नाम को पीछे कर किस षड़यंत्र के तहत आरएसएस को मनाया गया था। पिछले नौ सालों में मोदी ने उठापटक के सिवा जनता का कौन सा ऐसा काम कर दिखाया है कि उन्हें याद रखा जाए। फिर भी उनके भाषण पर लोग तालियां बजाते हैं। शैलेष जी उस मोदी को याद करते होंगे जिन्होंने बिहार की एक जनसभा में बिहार को दिए वाले पैकेज की बोलियां लगाई थीं और जनता ने जबरदस्त तालियां बजा कर अच्छे वक्ता को छोड़ उन्हें सब कुछ साबित कर दिया था। इसी तरह अभी परसों ही भोपाल की एक जनसभा में मोदी चिल्ला चिल्ला कर बोल रहे थे – ‘दे दूं, दे दूं, दे दूं ….’ वे विपक्ष के घोटालेबाजों पर कार्रवाई की गारंटी देने की बात कर रहे थे। और जनता उल्लसित हो रही थी। या लोकसभा में छाती पीट कर चिल्लाते हुए बोलना – ‘एक अकेला सब पर भारी’ । क्या आप इन तीनों या चारों वाकियों की तुलना अटल बिहारी वाजपेई से कर सकते हैं। धूर्तता, चालाकी, झूठ, बरगलाने की कला ही जिसका व्यक्तित्व हो उसकी जिह्वा पर सरस्वती का कैसे वास हो सकता है। मैं मान सकता था यदि निर्धन, अनपढ़, भोली, नासमझ (जो स्वयं निर्णय लेने में अक्षम हो) जनता को छोड़ देश की तीन चौथाई से ज्यादा जनता मोदी के भाषणों से सम्मोहित होती तो । वह जनता तो मदारियों और जुमले बाजों की भाषा ही समझती है। 2014 में मोदी को जिताने से ज्यादा लोगों ने कांग्रेस को हराया था। जो मोदी की सोच और कार्यप्रणाली से वाकिफ थे वे उनके आने से खौफ में थे और आज भी हैं। मोदी अपनी भाषा से सिर्फ बरगला सकते हैं। पर अब वह हद भी पार होती दिख रही है। इसलिए आने वाले सारे चुनाव जनता द्वारा लड़े जाने हैं। बेशर्मी मोदी का सबसे बड़ा ‘गुण’ है। आप स्वयं देखिए भोपाल की जनसभा में मोदी शरद पवार की जिस पार्टी पर कार्रवाई की गारंटी दे रहे थे दो दिन बाद उन्हीं सबको अपने साथ शामिल कर लिया। बेशर्मी की तो अनंत मिसालें हैं। ऐसे व्यक्ति की सोच का बहुत कुशलता से मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया जा सकता है। ऐसा व्यक्ति चालाक और धूर्त वक्ता हो सकता है ‘अच्छा’ शब्द को कलुषित न करें । कहा जाता है कि मोदी नैरेटिव चेंज कर देते हैं। यह खूबी मोदी की उतनी नहीं है जितनी बेवकूफी विपक्ष के नेताओं की है। आप किसी को ‘नीच’ कहें तो एक चालाक वक्ता क्या करेगा जिसने खुद को चाय वाला और दूसरों के घरों में बर्तन साफ करने वाली मां का बेटा बता बता कर ‘टीआरपी’ बटोरी हो। जुकरबर्ग से मिलते हुए उनका रुदन याद ही होगा। तो ऐसे व्यक्ति के लिए कभी भी और कैसे भी ‘नैरेटिव’ बदल देना असंभव नहीं। इसलिए उन्हें अच्छा वक्ता तो नहीं कहा जा सकता। मोदी और अमित शाह में मदारियों की अद्भुत कला है। शाह ने मोदी से सीखी है और बहुत फूहड़ तरीके से खुद को पेश करते हैं। इसलिए मित्र लोग वैसे न बनें जैसे 2014 में मोदी से प्रभावित होकर मित्र बन गए थे। शैलेष जी हों, अभय दुबे हों, आशुतोष हों या विनोद अग्निहोत्री जैसे और भी कई लोग हों। इनके मुख से मोदी के लिए अच्छा वक्ता सुन कर ऐसा लगता है जैसे इन्होने अच्छा वक्ता देखा सुना ही नहीं। वे सोशल मीडिया पर आकर चौंक रहे हैं। सोचिए जरा।
इस बार संतोष भारतीय के साथ अभय दुबे कुछ तालमेल नहीं बैठा पाए । संतोष जी के सवाल अलग और सटीक थे लेकिन अभय जी सवालों के बीच से अलग ही विश्लेषण को खींच ले गये। प्रबुद्ध व्यक्ति और विश्लेषक की यही परेशानी है । सवाल थोड़े मनोरंजक थे लेकिन विश्लेषण गहरा और इतना गम्भीर कि हंसी आ जाए । संतोष जी ने पटरी पर लाने की दो तीन बार कोशिश की लेकिन अभय जी विद्वता… । खैर
‘सिनेमा संवाद’ के विषय पूरे विश्लेषण की मांग करते हैं। छोटे में बात संभव नहीं है। इस बार का विषय था -‘क्या सिनेमा समाज को बांट रहा है’ । बिल्कुल बांट रहा है। यह भी इस प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व और कार्यप्रणाली को व्यक्त करता है। किसी प्रधानमंत्री के काल में खास एजेंडा को सामने रख कर फिल्में नहीं बनाई गयीं और न ही किसी प्रधानमंत्री ने किसी हिंसाजनित फिल्म को प्रमोट किया।‌ कश्मीर फाइल्स और केरला स्टोरी’ का अपनी सभाओं में जिक्र कर मोदी ने खुद को पुनर्परिभाषित किया है। इसी विषय पर अमिताभ श्रीवास्तव के ‘सनातनी दिग्गजों’ ने आपस में चर्चा की । सौम्या बैजल इस बार नयी थीं। पहले भी आ चुकी हैं। गनीमत है कि इस बार कमलेश पांडेय नहीं थे वरना कहते कि कौन कहता है कि आज का सिनेमा समाज को बांट रहा है।
‘सत्य हिंदी’ पर रात आने वाला दस बजे का बुलेटिन लेट हो रहा है। आलोक जोशी गौर करेंगे। चलते चलते एक बात कहना जरूरी है कि कोई भी चर्चा में तीन बातें महत्वपूर्ण होती हैं। पहला विषय, दूसरा उसमें शरीक होने वाले पैनलिस्ट और तीसरा एंकर का संचालन। बाकी कुछ भी कहना फिलहाल ठीक नहीं । पर रात दस बजे लंबी तान वाली और बेहूदा किस्म की झन्नाटेदार ‘नमस्कार’ फिर शुरु हो गई है।

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