पिछले दिनों दिल्ली सहित देश के अधिकांश राज्यों में नैस्ले का प्रमुख उत्पाद मैगी खाद्य मानकों पर खरी नहीं उतरी. मैगी में लेड की मात्रा तय मानक से सात गुना ज़्यादा मिली. इसी के साथ हमेशा की तरह केंद्र और राज्य सरकारें उपभोक्ता अधिकारों के प्रति तथाकथित संजीदगी दिखाने में जुट गई हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि सरकार चाहे केंद्र की हो या राज्य की, खाद्य पदार्थों के मसले पर कभी भी गंभीर नहीं रहीं. यदि सरकार चाहती, तो देश के डिब्बाबंद और प्रॉसेस्ड फ़ूड प्रोडक्ट्स इंडस्ट्री में बेहतर लेबलिंग, पैकेजिंग व परीक्षण के नियम सामने आ सकते थे, जिससे जनता अभी तक वंचित है. यही कारण है कि नैस्ले से पहले भी प्रमुख ब्रांड्‌स कैडबरी, केएफसी, कोका कोला भी भारत सहित अन्य देशों में अपने उत्पादों में समय-समय पर मिलावट करते रहे या उनके उत्पाद तय मानकों पर असफल पाए गए, लेकिन उक्त कंपनियों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई, बल्कि आज भी उनके उत्पाद बाज़ार में धड़ल्ले से बिक रहे हैं. सवाल यह है कि खाद्य पदार्थों में मिलावट करने वाली कंपनियों पर सरकार कोई कार्रवाई करेगी भी या इसी तरह उपभोक्ताओं की ज़िंदगी से खिलवाड़ चलता रहेगा?

mixedचुनाव से पहले नरेंद्र मोदी कहते थे कि अच्छे दिन आने वाले हैं. अब मोदी प्रधानमंत्री बन चुके हैं और कह रहे हैं कि अच्छे दिन आ गए. मैं अच्छे दिन ले आया. लेकिन, उपभोक्ताओं के अच्छे दिन तो तभी आएंगे, जब उन्हें शुद्ध खाद्य पदार्थों की आपूर्ति होगी. मैगी में मिलावट का मामला तो एक छोटा-सा नमूना भर है. यदि गंभीरता से जांच की जाए, तो अधिकांश खाद्य पदार्थों में मिलावट देखने को मिल सकती है. कहीं बीपीएल कार्डधारकों को खराब-सड़ा गेहूं और चावल दिया जा रहा है, तो कहीं नौनिहालों को परोसे जाने वाले मध्यान्ह भोजन (मिड डे मील) में मिलावट कर दी जाती है. यही है आज़ाद भारत की हक़ीक़त. नेता, र्एंसर, बिचौलिए, व्यापारी, खाकी वर्दी और काले कोट वाले सब आज़ाद हैं. गुलाम है तो स़िर्फ इस देश का आम आदमी. आज़ादी के नाम पर आप दवा की जगह दारू बेच सकते हैं. खाद्य पदार्थों में मिलावट कर सकते हैं. नकली दवा, दूध, फल, मिठाई, तेल व घी बनाने की आपको पूरी छूट है. आपको दूध में शैंपू, डिटर्जेंट, यूरिया मिलाने की पूरी छूट है. स़िर्फ नेताओं एवं अधिकारियों को अपनी कमाई का एक छोटा-सा हिस्सा देते रहिए और खुले बाज़ार में अपनी सहूलियत के हिसाब से बेरोक-टोक अपना धंधा करते रहिए. यही तो है दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का असल फ़साना.
सवाल यह उठता है कि हमारे प्रधानमंत्री किसके अच्छे दिन लाने की बात कर रहे थे और किसके अच्छे दिन आ गए. देश की जनता को खाद्य पदार्थों के बहाने ज़हर परोसा जा रहा है, ऐसे में उपभोक्ताओं के अच्छे दिन लाने की बात कहना बेमानी है. हां, इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि मोदी जी और उनकी पार्टी के अच्छे दिन आ गए, सत्ता मिल गई. अब जनता की किसे परवाह, खाना बेचो या ज़हर, कौन देखने वाला है! प्रधानमंत्री जी, हमारे देश में मिलावटखोरों का दुस्साहस इस हद तक बढ़ गया है कि उनका वश चले, तो आपकी थाली भी वे सुरक्षित न रहने दें. लेकिन, आप खुशनसीब हैं कि आपकी थाली एसपीजी की निगरानी में रहती है.एसपीजी प्रधानमंत्री के खाद्य-पेय पदार्थों की पहले ही प्रयोगशाला में जांच करा लेती है और देश की जनता को मिलावटखोरों के रहमो-करम पर छोड़ दिया जाता है. प्रधानमंत्री जी, आप आंखें खोलेंगे, तो पाएंगे कि देश के नौनिहालों को भी शुद्ध दूध या खाद्यान्न नसीब नहीं हो रहा है. सच मायने में देखा जाए, तो मिलावटी खाद्य पदार्थों से मां का दूध भी ज़हरीला हो चुका है.
आज दूध में पानी से लेकर जंतुनाशक, डीडीटी, सफ़ेद रंग, हाइड्रोजन-पैराक्साइड आदि मिलाकर सिंथेटिक दूध बनाया जाता है. देश में प्रतिदिन लगभग एक करोड़ लीटर से अधिक दूध की बिक्री होती है. जब दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों में दूध के पंद्रह नमूने लिए गए और उन पर शोध किया गया, तो पता चला कि उसमें 0.22 से 0.166 माइक्रोग्राम जितना डीडीटी था. पंजाब में दूध में डीडीटी अन्य राज्यों की तुलना में चार से 12 गुना अधिक है. मिलावटखोरों की नज़र भारत में डेयरी प्रोजेक्ट के प्रति वर्ष 36,000 करोड़ रुपये के बाज़ार पर है. भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (र्ऐंएसएसएआई) ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि देश में 68.4 फ़ीसद दूध मिलावटी बिकता है. ग्रामीण क्षेत्रों में यह 31 फ़ीसद है. सरसों के तेल और दूसरे खाद्य तेलों में अर्जीमोन मेक्सिकाना का बीज मिलाया जाता है, जिससे लोग ड्रॉप्सी के शिकार हो जाते हैं. अर्जीमोन की मिलावट से सिर में दर्द, डायरिया, त्वचा पर धब्बे होने, बेहोशी, ग्लूकोमा और सांस लेने में तकर्लीें की शिकायत होती है. ड्रॉप्सी 1977 और 1999 में महामारी के रूप में सामने आई थी.
कंज्यूमर गाइडेंस सोसायटी र्ऑें इंडिया ने एक बार कहा था कि मुंबई में बिक रहे खाद्य तेलों में 64 फ़ीसद मिलावट है. इसी तरह 2013 में बड़ौदा में 40 नमूनों का अध्ययन किया गया, जिनमें दाल, अनाज, सब्जी, कंद, जड़ों में आर्सेनिक की मात्रा मानकों से कहीं ज़्यादा थी. इसके अलावा अनाज, फ़ल और दही में कैडमियम की मात्रा भी सामान्य स्तर से ज़्यादा थी. आर्सेनिक स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर डालता है. वहीं कैडमियम से दमा से लेकर कैंसर आदि होने का खतरा रहता है. 2013 में बरेली, देहरादून और इज्जत नगर में अंडों की जांच में पाया गया कि पांच फ़ीसद अंडों में शालमोनेला बैक्टीरिया है. इसी तरह 2011 में कोट्टयम में वाणिज्यिक रूप से इस्तेमाल होने वाली 1.33 फ़ीसद एवं दो फीसद पालतू मुर्गियों और 51.33 फ़ीसद बत्तखों के अंडों में शालमोनेला बैक्टीरिया पाया गया. बत्तख के अंडे कोट्टयम में काफी लोकप्रिय हैं. सबसे अहम अध्ययन सामने आया कि 72,200 नमूनों में से 18 फ़ीसद यानी 13,571 मामले ही फ़ूड सेफ्टी अथॉरिटी के मानकों पर खरे उतर सके, जिनका परीक्षण 2012-13 में किया गया था. वहीं मिलावट के 10,235 मामलों में से केवल 3,845 मामलों में ही दोषियों के खिला़फ आरोप तय हो सके.
दिसंबर, 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने मिलावटी दूध तैयार करने और उसे बेचने वालों को उम्रकैद की सजा देने की हिमायत करते हुए राज्य सरकारों से कहा था कि इस संबंध में क़ानून में उचित संशोधन किया जाए, लेकिन आज तक सरकारों के कानों पर जूं नहीं रेंगी. खाद्य पदार्थों में मिलावट रोकने के लिए एक क़ानून है और फ़ूड एंड ड्रग कमीशन भी है. क़ानून शहरी एवं ग्रामीण, सभी क्षेत्रों में लागू है. शहरों में म्यूनिसिपल अधिकारी इसे लागू कराते हैं और ग्रामीण इलाकों में यह काम राज्य सरकार द्वारा नियुक्त फ़ूड इंस्पेक्टर करते हैं. अभी मिलावट के मामलों में फ़ूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड एक्ट के तहत कार्रवाई होती है. इस क़ानून के तहत दोषी को अधिकतम छह माह की सजा हो सकती है. यह हास्यास्पद है, क्योंकि मिलावटखोरों को तो आजीवन कारावास या फांसी की सजा देनी चाहिए. अन्यथा वे मानवता से खिलवाड़ करते रहेंगे. समस्या की गंभीरता का पता इस बात से भी लगता है कि देश भर की उपभोक्ता अदालतों में मिलावट करने वालों के खिलाफ़ क़रीब चार लाख मामले लंबित हैं.
केंद्रीय खाद्य एवं उपभोक्ता मामलों के मंत्री राम विलास पासवान कहते हैं कि सरकार मिलावट के खिलाफ़ क़ानून और ज़्यादा अधिक सख्त बनाने का प्रयास करेगी. मगर ऐसा कब तक होगा और नया क़ानून सख्ती से लागू करने लायक कोई मशीनरी भी तैयार की जाएगी अथवा नहीं, यह देखना अधिक महत्वपूर्ण होगा. चूंकि स्वास्थ्य एक राज्य सूची का विषय है, ऐसे में क़ानून लागू करने की ज़िम्मेदारी राज्य फ़ूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन की है. कई मंत्रालयों को राज्य सरकारों से तालमेल की ज़रूरत पड़ेगी, लेकिन चिंता की बात यह है कि फ़ूड सेफ्टी को लेकर राज्यों में पर्याप्त सुविधाएं भी नहीं हैं, जिसका असर भी रोकथाम पर पड़ता है. इसके लिए संबंधित महकमों में खाली पद शीघ्र भरने होंगे, उपभोक्ता अदालतों का विस्तार करना होगा, मिलावट के घिनौने खेल में लगे लोगों के लिए कड़ी सजा का प्रावधान करना होगा. हम चीन से बराबरी के सपने देखते हैं. चीन में दूध में मिलावट पर हाल के वर्षों में मौत की सजा दी गई थी. चीन में मौत की सजा की पुष्टि उच्च न्यायालय ही अपने स्तर पर कर सकता है और हमारे यहां मिलावट की सज़ा स़िर्फ छह महीने. क्या स़िर्फ खिलौने बनाकर चीन की बराबरी संभव है?
र्ेंरवरी 2013 में खाद्य पदार्थों में मिलावट कर लोगों की सेहत से खिलवाड़ करने वाले अपराधियों पर ग्वालियर के तत्कालीन कलेक्टर श्री पी नरहरि ने राष्ट्रीय एवं राज्य सुरक्षा अधिनियम के तहत कठोर कार्रवाई करने का आदेश दिया था. उत्तर प्रदेश में फ़ूड सेफ्टी एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन विभाग के डिप्टी कमिश्नर विजय बहादुर ने आठ जनवरी, 2015 को मेरठ में 23,000 लीटर ग़ैर खाद्य तेल जब्त किया. वह कहते हैं कि व्यापारी मुना़फा कमाने के लालच में न केवल ग़ैर-क़ानूनी काम कर रहे हैं, बल्कि निर्लज्जता की सारी हदें पार कर रहे हैं. बहादुर का कहना है कि मिलावट के काम में प्रतिष्ठित ब्रांड भी शामिल हैं. उनकी टीम ने प्रमुख मसाला ब्रांड महाराजा के प्रतिनिधि को मिलावट करते हुए पकड़ा था. दरअसल, व्यापारियों में क़ानून का डर नहीं है. उनका ज़ोर इस बात पर है कि कैसे वे क़ानून को दरकिनार करें और अथॉरिटी की आंखों में धूल झोंके. 1986 में केंद्र सरकार ने प्रीवेंशन र्ऑें फूड एडल्टरेशन क़ानून में संशोधन किया था, जिसके तहत सभी नागरिकों को यह अधिकार मिला कि वे खुद भी उत्पादों की जांच कर सकते हैं, लेकिन ऐसा जागरूकता की कमी के चलते संभव नहीं हो पाया. ऐसे में ग्राहक अभी भी फ़ूड रेगुलेटर की दया पर ही निर्भर है.
फ़ूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी र्ऑें इंडिया के अनुसार, रोजाना इस्तेमाल होने वाले खाद्य पदार्थों जैसे कि दूध से बने उत्पाद मावा, घी, मिठाई, अरहर की दाल, राजमा, सरसों व मूर्ंगेंली का तेल, पोल्ट्री-मांस, फल एवं सब्जियों में मिलावट का ज़्यादा खतरा रहता है. राष्ट्रीय ब्रांड जो पैकिंग में मिलते हैं, कहीं ज़्यादा सुरक्षित होते हैं. हमेशा पैक्ड और लेबल रहित उत्पाद खरीदने चाहिए. मानव शरीर पर मिलावट से होने वाले असर के प्रमुख लक्षण बुखार, उल्टी होना, डायरिया, पेट में दर्द, पक्षाघात, स्नायु में असहजता आदि हैं. लंबे समय से मिलावटी उत्पाद इस्तेमाल करने से कैंसर, हार्मोंस में असंतुलन, किडनी फेल होना, लीवर खराब होना या फिर विकास में रुकावट जैसे मामले भी हो सकते हैं. 2014 में रिसर्च पैर्सेिेंक फॉर टेट्रापैक ने खाद्य सुरक्षा पर एक सर्वेक्षण देश के विभिन्न शहरों में किया, जिसमें यह पाया गया कि 70 फ़ीसद माताओं को गंभीर बीमारियां जैसे जॉन्डिस, कॉलरा एवं टायफाइड होने के पीछे वजह यही है कि उन्हें उच्च मानक वाला भोजन उपलब्ध नहीं हो पाता.


पीएम की थाली में भी मिलावट!
वर्ष 1999 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी पटना यात्रा पर थे. उन्हें परोसे जाने वाले खाद्य-पेय पदार्थों में से मिनरल वाटर नकली पाया गया था. 2010 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को परोसी जाने वाली मूंग की दाल और खरबूजे के बीज अशुद्ध व मिलावटी पाए गए.


डॉक्टरों का कहना है…
डॉक्टर कहते हैं कि मैगी में पाए गए लेड और मोनोसोडियम ग्लूटामेट (एमएसजी) आपकी सेहत के लिए ़खतरनाक हैं. लेड की वजह से किडनी खराब हो सकती है और नर्वस सिस्टम डैमेज हो सकता है. चिंता की बात यह है कि दिल्ली में मैगी के 13 में से 10 नमूनों की जांच में लेड ज़्यादा पाया गया और इसी वजह से सरकार ने मैगी की बिक्री पर रोक लगाई है. लेड टॉक्सिक सब्सटेंस है. दिल्ली में लेड की औसत मात्रा 3.5 पीपीएम तक पाई गई, जबकि तय मानक के अनुसार किसी र्ेंूड प्रॉडक्ट में लेड की मात्रा 0.01 पीपीएम से 2.5 पीपीएम के बीच होनी चाहिए. डॉक्टरों का कहना है कि लेड एक टॉक्सिक मेटल है और यह एमएसजी से भी ज़्यादा ़खतरनाक है. शरीर में अधिक मात्रा में लेड ब्लड सप्लाई को प्रभावित करता है. मैगी मामले पर सुनीता नारायण की संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट के फूड सेफ्टी एंड टॉक्सिन के हेड अमित खुराना से जब बात की गई, तो उन्होंने बताया कि मैगी मसले में जो भी हुआ, उस पर सरकार गंभीर है, लेकिन फूड सेफ्टी के लिए लेबोरेट्री, मैन पावर बढ़ाने और रूटीन प्लान पर बहुत कुछ किए जाने की ज़रूरत है, तभी हम फूड सेफ्टी को लेकर यूरोपीय यूनियन के देशों के समकक्ष खुद को पाएंगे.


बड़े ब्रैंड्स पर भी मिलावट का आरोप

  • मशहूर कैडबरी कंपनी की डेयरी मिल्क चॉकलेट को लेकर 2003 में विवाद छिड़ा था, जब महाराष्ट्र में चॉकलेट में कीड़े पाए जाने का मामला सामने आया.
  • मशहूर ब्रैंड मैकडोनल्ड्स के कोल्ड कॉफी में कनाडा में एक बार चूहा मिलने का मामला सामने आया था. इसके अलावा इंसान के दांत समेत कई चीजें बरामद की जा चुकी हैं. यही नहीं, चीन में मैकडोनल्ड्स की ओर से एक स्थानीय कंपनी के एक्सपायर मीट को दोबारा पैक कर बेचने का मामला सामने आया था. जापान में मीट में प्लास्टिक के टुकड़े पाए जाने का मामला भी सामने आया था.
  • दुनिया भर में अपने लजीज व्यंजनों के लिए मशहूर केर्ऐंसी की डिश पर भी सवाल खड़े हो चुके हैं. फ़ूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया की जांच में दिल्ली के कनॉट प्लेस के सिंधिया हाउस के एक आउटलेट से लिए गए चावल के नमूने में बनावटी रंग का इस्तेमाल किए जाने की बात सामने आई थी. हालांकि कंपनी ने असली रंग के इस्तेमाल का ही दावा किया था.
  • दुनिया भर में कोल्ड ड्रिंक्स के लिए मशहूर कोका कोला और पेप्सी भी विवादों में घिर चुके हैं. 2003 में पहली बार कोका कोला की ड्रिंक्स में कीटनाशक के इस्तेमाल का मामला सामने आया था. इसके बाद 2006 में एक एनजीओ ने पेप्सी और कोका कोला दोनों पर मिलावट काआरोप लगाया था. मध्य प्रदेश और गुजरात में दोनों के नमूनों की जांच में अत्यधिक मात्रा में कीटनाशक होने की बात सामने आई थी. यह तय सीमा से 24 गुना अधिक पाया गया था.
  • 2011 में मुंबई की चर्चित कंपनी सबवे के चिकन टिक्का में कीड़े मिलने का मामला सामने आया था. ऐसा ही एक मामला हैदराबाद में सामने आया था, लेकिन कंपनी के मैनेजर ने यह कहते हुए मामले से पल्ला झाड़ने का प्रयास किया था कि ऐसा सब्जी सप्लाई करने वाले की गलती की वजह से हुआ था. गौरतलब है कि सबवे सैंडविच के लिए ख़ासी मशहूर है।
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