चांँद अगर पूरा चमके तो उसके दाग खटकते हैं
एक न एक बुराई तय है सारे इज़्ज़तदारों में

जब कभी आलोक ख़यालों में आते हैं तो वक्त लेकर आते हैं।उनके बारे में सोचते सोचते पता ही नहीं चलता कि वह कब अंदर सचमुच में बोलने लगते हैं,लतीफे़ सुनाने लगते हैं।नया शेर सुनाने लगते हैं।ठहाके लगाते हुए अपने माथे पे आए ख़म को फारूक शेख की तरह ऊपर करने लगते हैं।आलोक से दोस्ती मिश्रित भायप (रामचरित मानस का शब्द जिसका अर्थ है भाईपन) है तो उनके बारे में रवानी से लिखने के लिए आगे की पंक्तियों में मैं कभी सर्वनाम के साथ आप की जगह तुम और वे की जगह वह लिखने की छूट लेना चाहूंगा।आशा है उनके प्रशंसक मुझसे नाराज नहीं होंगे।खुद आलोक भी इस भाषा के लावण्य को अंगीकार करेंगे, उम्मीद है।
दरअसल मैं पहले थोड़ा ज्यादा अंतर्मुखी ही रहा, दोस्ताना भाषा में कहूँ तो घुन्ना।कम बोलने वाला।स्लो चैटर,इतना कि जब तक बोलूँ तब तक ट्रेन ही निकल जाए।आलोक ने मेरी इस जड़ता को चेतन में बदलने की सुबह शाम कोशिश की।जब वह पहली बार 1995 में मिला (मिले) तो मैं बचता था।इतना तेजस्वी, इतना स्फूर्त और इतनी उपलब्धियों के गौरव को अपने चंचल चेहरे पर लिए यह छोरा मेरे अंदर शून्य पैदा करता।जी हाँ,उसकी झोली में तब तक भी इतनी उपलब्धियां थीं जितनी अब तक भी मेरी झोली में नहीं।इसके बावजूद लेकिन जैसे उसे मुझसे मोहब्बत हो गई थी कि वह मुझे खोज ही लेता। उसके पास हमेशा मुझे हौसला देने के लिए अच्छी बातें होतीं। वह कहता यार आप अपने को कमतर क्यों समझते हो। मैं तो आपसे प्रभावित हूं। इतनी अच्छी शक्ल सूरत, इतनी अच्छी अंग्रेजी, अच्छी नौकरी, अच्छी भाभी अच्छा परिवार। फिर भी आप …।मेरी कविता और मेरी आभा की प्रशस्ति करके मुझे सहज करता और फिर हम दोनों शहर में तफरीह करने निकल जाते।माधव गंज चौराहे की पान की दुकान से पान खाते।फिर सौंठिया फाटक के पास बनी पुलिया पर बैठ शहर के कवियों की बढ़ाई बुराई करते।वे दिन हमारी संगतों के सर्वाधिक गाढ़े दिन थे।हमारी इस संगत का जादू जहां हमारे परिवारों को संगीत की मानिंद था,वहीं शहर में एक चर्चा का मजमून रहा।हमें साथ में ही देखा जाता, साथ में ही सुना जाता।

ठीक हुआ जो बिक गए सैनिक मुट्ठी भर दीनारों में
वैसे भी तो जंग लगा था हथियारों में।

पहली दूसरी मुलाकात में मुझे उसके द्वारा अनुभव कराया गया कि वह मेरे बारे में अच्छे विचार रखते हैं।मेरी समकालीन कविताओं को उन दिनों पत्र पत्रिकाओं में तवज्जो मिलना शुरू ही हुआ था और मैं धीरे धीरे गीत ,ग़ज़ल,क्षणिका, मुक्तक,से उचटने लगा था।शलभ श्री राम सिंह और नरेन्द्र जैन के साथ बातें करने का अवसर तलाशने लगा था।शादी हो गई थी।लेकिन गोष्ठियों में नियमित जाना अभी बरकरार था।बाल और गाल तब तक भरे पूरे थे।गोष्ठी में ही सबसे पहले आलोक मिले।अपनी बारी आने पर उसका वो पहले वज्रासन में बैठना, फिर दुआ की मुद्रा में हाथ उठाना,बड़े भाई और वरिष्ठों से मुखातिब होकर कहना इजाज़त है…

बस यही सवाल तो दामन को थाम लेता है।
हम उठ गए तो तेरी अंजुमन का क्या होगा।

ये शेर हवा में बिखरा नहीं कि हर उपस्थित ने वाह वाह वाहववाह उच्चारा,।मैं चकित था।गोष्ठी ही मैंने पहली बार देखी थी,उसमें इतनी गर्मजोशी, इतनी काव्यात्मक शिददत और इतनी आपसदारी।बहरहाल इस गोष्ठी के बहाने मेरा विदिशा के कविकुल में शुमार हुआ और मुझे यहीं से एक दोस्त और एक भाई मिलने वाला था,यह मुझे थोड़ा थोड़ा तो आभास हो गया था गोया उपरांत महफिल के बाद वह मेरे पास अलग से आकर तआरूफ कर रहा था।

विदिशा की एक कवि गोष्ठी जो मित्र तालिब मोहम्मद वारसी के निवास पर दांत वाले डाक्टर की गली में उनके छत पर हुई थी।कभी नहीं भूल पाता।संचालक ने मुझे कविता पाठ को दावत दी।मैं पढ़कर कवि समाज में आने वाला युवतम कवि रहा।पत्र पत्रिकाओं में अज्ञेय,शमशेर, निराला आदि से लगभग प्रभावित था और अपनी अव्यवस्थित सी कविताओं को नाज से संभाले रहता था।उनमें से ही एक दो कविताएँ मैंनें पढ़ दीं।उसी गोष्ठी में एक वरिष्ठ कवि बल्लभ आर्य कामिल ने आगे एक कविता पढ़ी

नई कविता वो
जो समझ में न आती हो।

मैंने बहुत अपमानित महसूस किया।दो चार दिन बुरा लगता रहा।जब मैंने यह बात आलोक से साझा की तो उसने कहा माना कि नयी कविता की ये कमी है। मगर आप तो बिल्कुल साफ समझ में आने वाली कविता लिखते हो। जैसे आपकी कविता है वो कौनसी ..मेरे भीतर.. फिर उन्होंने मेरी वो कविता लगभग सही सही पढ़कर सुना दी
मेरे भीतर सिमटकर
आ रहा है
प्यार तुम्हारा।

कभी कभी लगता रहा कि आलोक को मुझसे कुछ अलग तरह का राग रहा। ऐसा इसलिए कि उसके तेज और स्फूर्त एवं लगभग शायरी की लोकप्रियता की दुनिया में बढ़ते क़दमों की वजह से मैं उससे दूरी ही रखना चाहता था। लेकिन हर बार उसने मुझे फिर पकड़ लिया। एक दो बार अबोला भी हुआ और मुझे लगा कि अब संबंध खत्म हैं। मगर दस पंद्रह दिन बाद आलोक का फोन आ जाता वह उस मुद्दे पर कोई बात नहीं करके किसी अन्य साहित्यिक पूछताछ से गर्म शुरुआत कर देता।यही ग्राह्यता आलोक को बड़ा बनाती है।उस दौरान मेरे पिताजी ने कहा था कि आलोक में अनन्य प्रतिभा है देखना वह एक दिन हवाई जहाजों में उड़ेगा।उनकी बात पर मैं थोड़ा चौंका था।97-98 में ऐसी भविष्य वाणी बड़ी बात थी।वही हुआ भी।आज आलोक के पास समय ज्यादा कीमती है जिसको बचाने वह हवाई जहाज की कोई भी कीमत दे सकने लायक धन अपने फ़न से ही अर्जित कर लेते हैं। आलोक ने अपनी इस पेशेवर निष्ठा के चलते एकाधिक लोगों को मुफ़्त में आकर शायरी सुनाने के लिए इंकार भी कर दिया, मगर जब मैंने संकोच के साथ अपने पिता की स्मृति के कार्यक्रम में उसे कहा तो उसने अगले निमिष में ही हां कर दी और वह उस कार्यक्रम में बिल्कुल मेरे लिए निर्भार आए। और हवाई जहाज से ही आए। मैं उसके इस अनुग्रह से दबा जा रहा था तो उसने कहा कि वो मेरे लिए भी पिता ही थे। मुझे उनके सान्निध्य का ऋण उतारना है जो शायद ही कभी उतर सके। ज़ाहिर है कि पिताजी और आलोक की कुछ गहन निस्बतें रहीं थीं। पिताजी का पहला संग्रह शंखनाद रामकृष्ण प्रकाशन से आलोक की ही पहल पर आया। और हां उसी किताब का लोकार्पण भी हम मित्रों ने आलोक की रहनुमाई में ही किया था जो यादगार रहा।उसी दिन की एक घटना पर आलोक ने एक कहानी माइकल लिखी थी जो आफ़रीन संग्रह में आई भी है ।

मैंने पहले भी लिखा है कि आलोक शायरी को न तो रवायती तरह से निभाना चाहते हैं न ही अति आधुनिकता के बिंबों को लेकर। कुछ अलग और अनूठी शैली में उन्हें कहने के लिए भेजा गया है धरती पर। ठीक ठीक यह भी नहीं कि उनके पास समकालीन कविता के औजार हैं क्योंकि समकालीन कविता के हिस्से में भी अनेक इल्जाम हैं और इनकी शायरी में जैसे भाषा स्नान करके आई हो ऐसा लगता है।

बूढ़ा टपरा, टूटा छप्पर और उस पर बरसातें सच,
उसने कैसे काटी होंगी, लंबी-लंबी रातें सच।

लफ़्जों की दुनियादारी में आँखों की सच्चाई क्या?
मेरे सच्चे मोती झूठे, उसकी झूठी बातें, सच।

कच्चे रिश्ते, बासी चाहत, और अधूरा अपनापन,
मेरे हिस्से में आई हैं ऐसी भी सौग़ातें, सच।

जाने क्यों मेरी नींदों के हाथ नहीं पीले होते,
पलकों से लौटी हैं कितने सपनों की बारातें, सच।

धोका खूब दिया है खुद को झूठे मूठे किस्सों से,
याद मगर जब करने बैठे याद आई हैं बातें सच।

हम लोग साहित्यिक संदर्भों के आदान-प्रदान के साथ साथ घर परिवार की अंतरंग बातें भी साझा करते थे। उसकी शायरी में यह आता उधर मेरी कविता में भी रिश्ते आते शायद यह बात ही हमें और अधिक जोड़ती। एक शेर यहां हैं

इतनी सी बात आप समझते नहीं सनम
हम लोग आदमी हैं फरिश्ते नहीं सनम।

 

जब हम लोग संगत में आए तो वह बशीर बद्र की बातें अक्सर करते।किसी ने बताया भी था कि वह बशीर बद्र साहब के शागिर्द रहे। रामकृष्ण प्रकाशन में आलोक ने अपने संपादन में अफेक्शन नाम से एक अच्छा कलेक्शन प्रकाशित किया था।मैंने ही पहल करके उस पर एक समीक्षा बैठक की थी जिसमें अच्छी बहस हुई थी।हमने जिन्हें उस गोष्ठी में आहूत किया था वे जानते ही न थे कवि गोष्ठी के अलावा भी साहित्य में गोष्ठी संभव हैं। फिर भी वह यादगार रही।

हमारा पारिवारिक दोस्ताना शहर में भी चर्चित हो गया था। फिर हम लोगों की एक ऐसी टुकड़ी भी थी जो गोष्ठी करने के लिए उद्यत रहती।एक साथी ने तो बड़ा कैमरा खरीद लिया था।तभी मेरी छोटी बहन का विवाह भी तय हुआ था।टुकड़ी में पारिवारिक सहयोग सहकार के संस्कार भी दिये गए थे।इसी के चलते आलोक भाई भोपाल में इंगेजमेंट स्थल पर वीडियोग्राफी करने के लिए आए थे।2000 में मुझे सायटिका का दर्द रहता था। अनेक शामें ऐसी हुईं जब आलोक अपनी बाइक से मुझे फिजियोथैरेपिस्ट तक ले जाते।2004 में मुझे साहित्य परिषद के कार्यक्रम में सोमदत्त स्मृति में जबलपुर में कविता पाठ का अवसर मिला था।उस कार्यक्रम में त्रिलोचन शास्त्री, विष्णु खरे, चंद्रकांत देवताले आदि थे।तो आलोक ने यह तय किया था कि मेरा हौसला बढ़ाने वह भी पहुंचेंगे। मुझे भरोसा नहीं था।पर जब मेरा कविता पाठ चल रहा था तो पीछे से वह इशारे से मुझे हौसला देते हुए दिखाई दिए। विदिशा से जबलपुर तक सिर्फ मेरे पाठ को मित्रवत हौसला देने के लिए चले आना

विदिशा में जब हम लोग प्रगतिशील लेखक संघ की पुनर्रचना कर रहे थे तो ज़ाहिर है मैं इनके बिना कैसे कुछ कर पाता या सोच पाता सो गठन के दिन कुमार अंबुज जी की मौजूदगी में सचिव मैं बना और अध्यक्ष बने आलोक भाई। कमला प्रसाद जी,भगवत रावत के संपर्क में आकर हम दोनों ने मिलकर यहां कुछ स्तरीय गोष्ठियों को अंजाम दिया। स्वयं प्रकाश का कहानी पाठ। पुन्नी सिंह और…भी यहां आए। प्रगतिशील लेखक संघ के शिवपुरी कार्यक्रम में हम दोनों पहुंचे जिसकी अध्यक्षता राजेंद्र यादव ने की थी । इसके अलावा भी एक कार्य विदिशा के लिए बहुत महत्वपूर्ण हुआ। विदिशा से संबंधित और विदिशा के श्रेष्ठ कवियों की कविताओं से संयोजित एक संकलन दिशा विदिशा नाम से वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ। इसमें पूरी मेहनत आलोक भाई की रही। संपादक मंडल में निसार मालवी, शीलचंद पालीवाल,नर्मदेश भावसार और मैं भी रहा।

मुझे जब 2017 में दिल का दौरा पड़ा तो वह कुछ ही दिनों बाद दिल्ली से आए और औपचारिकता के लिए नहीं लगभग पूरे दिन मेरे घर बैठे रहे। मैं जब डी डी उर्दू के मुशायरे में अनेक शायरों के बीच हिन्दी कविता का पाठ करने वाला था तो आलोक को सफल होने की चिंता भी थी और भरोसा भी।जब मेरा पाठ सफल हुआ तो गर्व इनके चेहरे पर आ रहा था जैसे सबसे कह रहे हों देखो ये मेरे शहर के हैं या ऐसी होना चाहिए समकालीन कविता। आलोक ने अपने अनेक साक्षात्कारों में मेरा जिक्र किया है तो मैं यह बात मन में रखता हूं कि संबंधों पर शायरी वह यूं ही नहीं करता।वह बहुत भावुक भी हैं। अभिभूत होना और कृतज्ञता व्यक्त करना भी वह नहीं भूलते। एक कामयाब व्यक्ति में शायद ये गुण नैसर्गिक होते हैं।

आज दुनिया जिस शायर पत्रकार आलोक को जानती है उस आलोक की लगन, सकारात्मकता,सौ प्रतिशत आत्मविश्वास और अद्भुत कार्य क्षमता को मैं ज्यादा जानता हूं। उसके उठते गिरते मनोबल के ग्राफ को विदिशा के संघर्ष के दिनों में मैंने जितना देखा है शायद किसी और ने न देखा हो।आज आलोक के अनेक स्वप्न साकार हो चुके हैं।देश विदेश के हर मंच का अनुभव उनके पास है।वह इल्म और फिल्म दोनों की शायरी कर रहे हैं। उनके अनेक शेर इतने वायरल हो गये हैं जैसे कबीर के और तुलसी के दोहे। इसके बावजूद वह कहते हैं कि मैंने कुछ भी नहीं पाया अभी अभी तो मुझे बहुत लिखना है तब शायद मैं कुछ हो सकूं। रिक्तता का यह एहसास उन्हें सचमुच अभी बहुत सारी उपलब्धियां देने वाला है।

हम दोनों के बीच दोस्तों के बीच होतीं उन बातों के भी पुलंदे हैं जिन को याद करके देर तक हंसा जा सकता है। दोस्ती भाईचारे और निस्बतों की ये किश्त इतनी ही। मुमकिन है शेष आलोक को अभिव्यक्त करने के लिए अगली किश्त दस्तक दे।

फिलहाल आलोक का एक शेर मुझे भी अमल करना है।

मंजिलें क्या हैं रास्ता क्या है।
हौसला है तो फ़ासला क्या है।

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