लोकतंत्र का चौथा स्तंभ भी दरक जाएगा तो बचेगा क्या, महज एक न्यायपालिका ! नरेंद्र मोदी जबसे देश की राजनीति के केंद्र में आये हैं तभी से समझिए देश छनछना कर कीचड़ हो रहा है । कोई क्षेत्र हो, उंगली रख कर बैठिए और शांत मन से अतीत में चलते जाइए तो आप उस अतीत से आज की तुलना में पाएंगे कि आप अनायास ही पाताल के रास्ते पर हैं। इससे आगे जाना कहां है । हर संस्थान चौपट है बरक्स मीडिया चौपट है। पता नहीं कहना चाहिए कि नहीं कि दो दो पैसे के पत्रकार दिग्गज हो रहे हैं । न कोई अध्ययन, न कोई चिंतन, न बहस मुबाहिसा, अखबार भी चला रहे हैं, और अपना मीडिया हाउस भी। मुख्य मीडिया अगर भांड हुआ है तो सोशल मीडिया पक्षपाती। या तो पूरी तरह से इधर का या पूरी तरह से उधर का । सुनने वाले बंट गये हैं। इधर का आदमी उधर को बर्दाश्त नहीं कर सकता और उधर का आदमी इधर को बर्दाश्त नहीं कर सकता। यह सब किसने किया । शुरुआत सत्ता से कहें तो यह अर्धसत्य होगा । सीधे सीधे नाम क्यों न लें , नरेंद्र मोदी यानी व्यक्ति नरेंद्र मोदी ने। सत्ता आती जाती रहती हैं। बीजेपी में लोग आते जाते और बदलते हैं । नरेंद्र मोदी से पहले देश को किसी ने इस तरह कबूतर बना कर नहीं छोड़ा था । नीचे से शीर्ष तक या शीर्ष से नीचे तक । कहीं से कहीं तक देख लीजिए दिमाग, कार्य, कार्यशैली, संबंध, व्यवहार हर किसी का हर स्तर से बदला है । पत्रकार कैसे बचेंगे। पत्रकार और पत्रकारिता सबमें घटियापन समाहित हुआ है। एक छोटा सा उदाहरण देखिए । देश में एक नयी पार्टी आयी , आम आदमी पार्टी। इस पार्टी के चाल , चरित्र, चेहरे को लेकर सारे पत्रकार विभाजित हैं । कोई पत्रकार इसकी तारीफ करता है तो करता चला जाता है कोई बखिया उधेड़ता है तो ऐसे उधेड़ता है जैसे व्यक्तिगत खुन्नस निकाल रहा हो । ‘आप’ को भाजपा की बी टीम बताने वाले पत्रकार भी कम नहीं हैं। लेकिन आज तक हमारे पत्रकार यह पता नहीं कर पाये कि आप बी टीम है या नहीं । कार्यक्रम के कार्यक्रम खलास हो जाते हैं लेकिन बी टीम का किसी को पता नहीं चलता। कार्यक्रम देखने के बाद श्रोता द्वंद्व में छूट जाता है बेचारा । यही आजकल राहुल गांधी के साथ हो रहा है । कांग्रेस की यात्रा से ज्यादा राहुल गांधी को लेकर एक राय नहीं बन पा रही पत्रकारों में। यात्रा से तो किसी को परेशानी नहीं है या तो अधिकांश तारीफ में कसीदे गढ़ रहे हैं या कांग्रेस को नापसन्द करने वाले चुप हैं लेकिन उसके खिलाफ कोई नहीं बोल रहा । पर बात तो राहुल गांधी की है।
पत्रकारों पर विस्तार से लिखने का मन है क्योंकि अब से तीस चालीस पहले की पत्रकारिता और आज की पत्रकारिता में धरती आसमान का फर्क आया है। कहने की जरूरत नहीं। प्रिंट, इलैक्ट्रोनिक मीडिया और सोशल मीडिया इसने पत्रकारिता में विस्तार तो दिया है लेकिन भांडपन के साथ साथ उच्छृंखलता और उद्दंडता को भी बखूबी परोसा है । इसलिए विस्तार से मीडिया पर बात अनंत है।
राहुल गांधी की हर कोई तारीफ कर रहा है। काम तो किया ही है इसलिए प्रशंसा करने वाले तो असंख्य हैं लेकिन स्वस्थ आलोचना करने वालों की कमी होती जा रही है । अब कोई कह नहीं सकता कि राहुल गांधी चांदी की चम्मच लेकर पैदा हुए। जैसा कि कल आरफा खानम शेरवानी कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह से कह रही थीं या कहिए पूछ रही थीं। लेकिन यह तो सत्य है। चांदी की चम्मच वाला मुहावरा गलत कहां है। आज भी राहुल गांधी का व्यक्तित्व सफल और गम्भीर राजनेता का नहीं हुआ है । राजीव गांधी से तुलना कीजिए । दोनों बीच से उठे । राजनीति की गहराई, गम्भीरता और अनुभव से दोनों शून्य। लेकिन राजीव गांधी को भारतीय समाज ने कुछ हालात के चलते और कुछ उनकी छवि के चलते स्वीकार किया था। तब मीडिया अपने गम्भीर स्वभाव में था । आज मीडिया अपने उच्छृंखल स्वभाव में है और राहुल गांधी से गम्भीर नेता के रूप में हर रोज मुलाकात करता है। हमारे विचार में तो राहुल गांधी कहीं से भी फिट नहीं हो पा रहे। लेकिन कांग्रेसी और कांग्रेसी पत्रकार उन्हें हर हालत में प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में ही देख रहे हैं। याद रखिए कि बीच से उठा आदमी कभी परिपक्व नहीं हो सकता। मोदी के खिलाफ चाहे कांग्रेस ,चाहे विपक्ष सब द्वंद्व में है। योजनाबद्ध तरीके से लड़ाई लड़ी जाए तो सब कुछ संभव है और मोदी को परास्त किया जा सकता है। पर उसके लिए हमें नहीं लगता कि पार्टियां कुछ सकारात्मक करेंगी । बल्कि सिविल सोसायटी के लोगों को आगे आकर यह भूमिका निभानी होगी । फिलहाल राहुल गांधी मोदी का पर्याय हो ही नहीं सकते । वैसे आने वाले दिनों में आप देखेंगे कि बहस इस मुद्दे पर होगी कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री के उम्मीदवार बनेंगे या नहीं। ठीक रहेंगे या नहीं। होना चाहिए या नहीं। कुछ ऐसी ही ।
‘सत्य हिंदी’ अपने दिग्गज कहे जाने वाले पत्रकारों से एक बहस इस पर कराये कि आम आदमी पार्टी भाजपा की बी टीम है या नहीं। और एक बार का उचित फैसला दे दे । ढेर सारी आलतू फालतू विषयों पर बहसें होती रहती हैं। पर यह फालतू विषय कतई नहीं है यह श्रोताओं के लिए निर्णायक और लाभकारी होगा । इसलिए भी कि आम आदमी पार्टी भविष्य में बड़ी भूमिका निभाने जा रही है। वे लोग जिद्दी हैं और उनमें इक्कीसवीं सदी में सत्ता की पर्याप्त भूख नजर आती है। इस रूप में भाजपा और आप समान हैं बाकी पार्टियां अपने छोटे छोटे लक्ष्यों को लेकर मैदान में हैं। आलोक जोशी हमेशा इस बात को दोहराते हैं कि राजनीति से अलग हट कर जब भी हम कोई कार्यक्रम करते हैं तो श्रोता नहीं मिलते । इसका कारण क्या है । शायद किसी ने जानने की कोशिश ही नहीं की । दरअसल नरेंद्र मोदी ने विमर्श का एजेंडा सैट किया और आप आकर उसी पर टिक गये और टिक ही नहीं गये रात दिन उसी को फोड़ते रहे । यानी आपने मोदी के ट्रैप में फंस कर लोगों के दिमागों को सैट कर दिया। तो लोग इधर उधर के विषयों पर क्यों जाएं। मैंने ‘सत्य हिंदी’ पर दो कार्यक्रम देखे , एक कंझावला कांड पर था और दूसरा जोशीमठ पर। कंझावला वाले कार्यक्रम से निकल कर क्या आया क्या आपने सोचा ? कार्यक्रम में किसी एक भी जिम्मेदार व्यक्ति या अधिकारी को बुलाया गया जो उस कांड से जुड़ा हो ? कार्यक्रम कर लिया एक औपचारिकता हो गयी। जोशीमठ वाले में वैज्ञानिक महोदय क्या बोल रहे थे उन्होंने ही समझा होगा । तो वह भी औपचारिकता हो गयी । चाय के बड़े बड़े प्यालों की चुस्कियों में गम्भीर और परेशान कर देने वाले विषयों की औपचारिकता पूरी हो गयी। गनीमत है इस पाखंड से मुकेश कुमार बचे हुए हैं और उनके यहां ‘सत्य हिंदी’ के स्थायी रूप से फटीचर पत्रकार नहीं आते हैं । वास्तव में गम्भीर चर्चा वहीं होती है। हालांकि वहां भी कभी कभी गहरी फिसलन होती दिख रही है ।
अलग हट कर विषय पर कल लाउड इंडिया टीवी पर चर्चा हुई । अभय दुबे ने राजनीति से अलग हट कर शिक्षा के पश्चिमीकरण पर अपने विचार साझा किए । अच्छा लगा । अभय जी ने मौजूदा शिक्षा प्रणाली का जो चित्र खींचा वह चिंतनीय तो है ही, यह भी बताता है कि विश्वगुरु होने के नारे का पाखंड और स्वांग किस स्तर का है । वास्तव में यदि यह देश विश्वगुरु बनना चाहता है तो उसका भी खाका उन्होंने बताया । उपयोगी कार्यक्रम है इसे देखा जाना चाहिए। एनडीटीवी से निकले रवीश कुमार पर भी संक्षेप में लेकिन प्रतिबद्धता के साथ उन्होंने जो उद्गार व्यक्त किये वे भी मानीखेज हैं । सुना जाना चाहिए। एक अभय जी हैं जो विविध विषयों पर ज्ञान के धनी हैं दूसरे वे पत्रकार हैं जो चिरकुट समान हैं जो दिन भर कभी इधर कभी उधर उछल कूद करते रहते हैं।
अमिताभ श्रीवास्तव ने इस बार छोटे फिल्मकारों पर बात की । अच्छा लगा यह देखकर कि भाग लेने वाले सब नये लोग थे । पर नये लोगों के साथ एक दिक्कत होती है कि वे इतने अभिभूत होते हैं कि विषय से इतर भी बोलते हैं तो बोलते चले जाते हैं । लेकिन अमिताभ की मेहनत इस साप्ताहिक कार्यक्रम में खिल कर दिखाई पड़ती है । यही शायद इस समय का फिल्मों पर सबसे सशक्त कार्यक्रम है । रविवार की बोरियत को भरता भी है । इस बार लगता है मुकेश कुमार का ‘ताना बाना’ कार्यक्रम नहीं आया । मुकेश कुमार और आलोक जोशी की रौ के पूर्व प्रमुख दुलत साहब से उनकी पुस्तक पर बातचीत बढ़िया और रोचक लगी ।
और अंत में .. राहुल गांधी को कोई समझाए कि पत्रकारों को कम से कम धर्म, गीता और शिव आदि का ज्ञान न दें । यह भी न कहें कि मैंने रामायण महाभारत और उपनिषद वगैरह सब पढ़ा है । अब किसी भी तरह हंसी का पात्र होने से उन्हें बचना होगा । मोदी के असंख्य ठस दिमाग वोटरों में अभी भी राहुल गांधी की छवि वही और वैसी ही है गोदी मीडिया की कृपा से ।
इधर पत्रकार अरविंद मोहन की पुस्तक ‘गांधी कथा’ नाम से पांच खण्डों में आयी है। यह पुस्तक गांधीजी के राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े हुए नेताओं, घटनाक्रमों को कथा के रूप में शानदार ढंग से नये अंदाज में प्रस्तुत करती है । ‘सत्य हिंदी’ या ‘वायर’ वालों को चाहिए कि इस पर कार्यक्रम करें ।
जनता की क्या कहें जब पत्रकार ही पकौड़ा दिमाग हों तो …..
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