जदयू के हालात वैसे ही हैं, जैसे 1942 के बाद अंग्रेजी हुकूमत के थे. सभी जान रहे थे कि अंग्रेजी हुकूूमत अब जाने वाली है, बस केवल प्रकिया तय होनी है. ठीक उसी तरह जदयू विधायकों में यह बात बैठ गई है कि मांझी सरकार की वापसी मुश्किल है. खुद मांझी को भी इसका एहसास होगा, इसलिए वह रिमोट कंट्रोल की सरकार का धब्बा स्वयं पर नहीं लगने देना चाहते. मांझी कई बार कह चुके हैं कि उनके पास वक्त कम है, पर कम वक्त में ही वह नीतीश के विकास से कहीं बड़ी विकास की लाइन खींचना चाहते हैं. लेकिन, उनके बार-बार बदलते बयानों से उनकी बेचैनी साफ़ झलक जाती है.
यह सुनने में बड़ा अजीब लगता है, पर खुद बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी कहते हैं कि निर्णय लेने में मुुझे डर लगता है. कोई आम आदमी या फिर अधिकारी ऐसी बात कहे, तो कुछ देर के लिए समझ में आती है, पर खुद मुख्यमंत्री ऐसा कहें, तो लगता है, बात काफी गंभीर है. आख़िर मांझी के इस बयान के बाद सत्ता और सरकार का रास्ता जाता किधर है. क्या यह माना जा सकता है कि कहीं न कहीं सत्ता की कोई ऐसी दूसरी ताकत है, जो मुख्यमंत्री को फैसले लेने से रोक रही है? या फिर यह मान लिया जाए कि बिहार में सत्ता की गाड़ी बेपटरी हो गई है, हर कोई अपने-अपने हिसाब से फैसले ले रहा है और यही बात मुख्यमंत्री को डरा रही है. सभी जानते हैं कि सरकार बनाने के लिए आंकड़े चाहे कितने भी पक्ष में क्यों न हों, पर सत्ता हनक से चलती है. और, जब सरकार में हनक ही न हो, तो फिर कोई भी सरकार नहीं चल सकती. दरअसल, लगता है, जीतन राम मांझी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ तो ज़रूर गए हैं, पर यह कुर्सी खुद मांझी से कई सवाल रोज कर रही है. उन्हीं सवालों के जवाब देने में मांझी कुछ-न-कुछ बोले जा रहे हैं. मांझी खुद अपने बयान को अगले दिन काट देते हैं और जैसे ही उनका खंडन आता है, उनकी कुर्सी फिर उनसे दूसरा सवाल कर देती है और फिर वह उसका जवाब देते हैं, तो हंगामा मच जाता है.
मुख्यमंत्री के कुछ चर्चित बयानों पर ग़ौर करें. मांझी ने कहा कि अगली सरकार के नेता नीतीश कुमार होंगे. राजद ने इस बयान पर कड़ा विरोध जताया, तो उन्होंने अगले दिन कहा कि
महा-गठबंधन के नेता मिलकर तय करेंगे कि अगला नेता कौन होगा. मांझी कहते हैं कि महादलित 22 फ़ीसद हैं, अगर वे एकजुट हो जाएं और ग़लत आदतें छोड़ दें, तो अगला मुख्यमंत्री महादलितों का हो सकता है. फिर किसी दिन वह कहते हैं कि प्रदेश का अगला मुख्यमंत्री गया ज़िले का होगा. फिर एक दिन उन्होंने यह कहकर सनसनी फैला दी कि उन्हें निर्णय लेने में डर लगता है. वरिष्ठ राजनीतिक चिंतक एवं पूर्व विधान पार्षद प्रेेम कुमार मणि कहते हैं कि यह बड़ी भयावह स्थिति है. जब एक महादलित मुख्यमंत्री को ़फैसले लेने में डर लगता है, तो सूबे के आम महादलितों की स्थिति की कल्पना करने में ही डर लगता है. यह कोई साधारण बात नहीं है. सर्वोच्च कुर्सी पर बैठा महादलित अगर डर रहा है, तो यह मान लीजिए कि सब कुछ ठीक नहीं है. मणि कहते हैं कि दरअसल, दिक्कत यह है कि मांझी को विधायकों ने अपना नेता नहीं चुना. विधायकों ने पहले नीतीश कुमार को अधिकृत किया और फिर नीतीश ने मांझी को नामांकित कर दिया. नीतीश अच्छी तरह जानते थे कि विधायक किसी भी हालत में मांझी के नाम पर तैयार नहीं होंगे, इसलिए उन्होंने यह सुरक्षित रास्ता निकाला. पार्टी के अंदर चुनाव जीतने को लेेकर बेहद बेचैनी है.
मणि कहते हैं कि जदयू के हालात वैसे ही हैं, जैसे 1942 के बाद अंग्रेजी हुकूमत के थे. सभी जान रहे थे कि अंग्रेजी हुकूूमत अब जाने वाली है, बस केवल प्रकिया तय होनी है. ठीक उसी तरह जदयू विधायकों में यह बात बैठ गई है कि मांझी सरकार की वापसी मुश्किल है. खुद मांझी को भी इसका एहसास होगा, इसलिए वह रिमोट कंट्रोल की सरकार का धब्बा स्वयं पर नहीं लगने देना चाहते. मांझी कई बार कह चुके हैं कि उनके पास वक्त कम है, पर कम वक्त में ही वह नीतीश के विकास से कहीं बड़ी विकास की लाइन खींचना चाहते हैं. लेकिन, उनके बार-बार बदलते बयानों से उनकी बेचैनी साफ़ झलक जाती है. जदयू के प्रमुख नेता एवं मंत्री विजय चौधरी कहते हैं कि आप लोग डरने वाली बात को ग़लत संदर्भ में देख रहे हैं. दरअसल, उन्होंने समाज के कमजोर वर्गों की हालत पर यह टिप्पणी की थी. जदयू समाज के कमजोर वर्गों को शक्ति देने की लड़ाई लड़ता रहा है और आगे भी लड़ता रहेगा. महादलित समाज से आने वाले मांझी को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाकर नीतीश ने त्याग और सामाजिक समरसता का बेजोड़ उदाहरण पेश किया है. अफवाह फैलाकर समाज को तोड़ने वाले राजनीतिक दलों को इससे करारा जवाब मिला है.
जानकार सूत्र बताते हैं कि बात इतनी आसान भी नहीं है. मांझी को मुख्यमंत्री बनाकर नीतीश ने महादलितों के बीच एक ठोस संदेश देने की कोशिश की थी, लेकिन मांझी के हालिया बयानों एवं फैसलों ने जदयू खेमे को निराश कर दिया. उनका पहला बयान यह था कि नीतीश के शासन में विकास तो हुआ, पर साथ ही भ्रष्टाचार भी बढ़ा. गांधी मैदान में भगदड़ की घटना के बाद जिस तरह कुछ डॉक्टरों एवं बड़े प्रशासनिक अधिकारियों पर गाज गिरी, उससे भी नीतीश खेमा खुश नहीं है. बताया जा रहा है कि पार्टी और सरकार के बीच समन्वय का घोर अभाव है और दोनों के संदेश एक-दूसरे तक सही ढंग से नहीं पहुंच पा रहे हैं. अभी हाल में नीतीश के घर विधायक दल की बैठक हुई, पर मांझी उसमें नहीं गए. दरअसल, उस बैठक में न जाना मांझी की मजबूरी थी, क्योंकि उसमें विधायकों से मांझी के कामकाज पर फीडबैक भी लिया जा रहा था. ऐसी बैठक में जाकर मांझी अपनी भद्द नहीं पिटवाना चाहते थे. लेकिन, सवाल उठा कि विधायक दल की बैठक में अगर उसका नेता ही न आए, तो फिर सत्ता और सरकार का रास्ता जाता किधर है. भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी इसे कुछ अलग नज़रिये से देखते हैं. मोदी कहते हैं कि नीतीश का रिमोट खराब हो गया है, इसलिए वह जो तस्वीर देखना चाहते हैं, उसे देख नहीं पा रहे हैं. महादलित-महादलित का ढोल पीटते हैं और जब एक महादलित मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा है, तो उसे काम नहीं करने दे रहे. इससे साफ़ है कि नीतीश ने हमेशा महादलितों को ठगने का काम किया. जदयू के भीतर भारी बेचैनी है, चुनावी हार के डर से विधायक सहमे हुए हैं. उन्हें नीतीश पर भरोसा नहीं रह गया है और इसी डर से मांझी भी ग्रसित हैं. मांझी जानते हैं कि चुनावी हार का ठीकरा नीतीश उनके ही सिर फोड़ेंगे, इसलिए वह कुछ स्वतंत्र निर्णय करना चाहते हैं, लेकिन कर नहीं पा रहे हैं. मांझी को बताना चाहिए कि आख़िर उन्हें कौन डरा रहा है. अगर मुख्यमंत्री डर रहे हैं, तो यह वाकई बिहार के लिए दुर्भाग्य की बात है.
दरअसल, जीतन राम मांझी के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है. इसलिए वह चाहते हैं कि उन्हें एक ऐसे मुख्यमंत्री के तौर पर याद किया जाए, जिसने कम समय में ही बिहार के विकास में जोरदार योगदान किया. यह इसलिए भी ज़रूरी है कि बार-बार जो सवाल कुर्सी मांझी से पूछ रही है, उसका जवाब इसी रास्ते से निकलेगा. इसलिए यह मानकर चलिए कि अभी हैरतअंगेज बयानबाजी का सिलसिला थमने वाला नहीं है.
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