manipurसियासी व सामाजिक उथल-पुथल के लिए जाना जाने वाला मणिपुर अब चुनावी परिणामों के जरिए चौंकाने वाले प्रदेश के रूप में भी जाना जाएगा. चुनावों से पहले और चुनावों के दौरान भी जो मुद्दे मणिपुर की हवा में छाए रहे, उनसे स्पष्ट ही नहीं हो पाया कि मणिपुर का मतदाता इवीएम के किस बटन पर उंगली दबाएगा.

हालांकि भारी मतदान प्रतिशत ने यह तो संकेत दे ही दिया था कि इस बार कुछ अद्भूत होने वाला है. हर बार की सरकार विरोधी लहर के बाद भी अंत समय में जीत से बाजी पलट कर लगातार तीन बार से सत्ता पर काबिज होने वाली कांग्रेस भी इस बार बहुमत का आंकड़ा नहीं छु पाई. वहीं, वह भाजपा भी जादूई आंकड़े से दूर रह गई, जिसे उम्मीद थी कि नाकेबंदी और सत्ता विरोधी लहर उसे इस बार मणिपुर की सियासी वैतरणी पार करा देंगे.

सबसे चौंकाने वाला नतीजा रहा इरोम शर्मिला की प्रजा पार्टी (पिपल्स रिसर्जेन्स एन्ड जस्टिस अलायंस) की शर्मिंदगी भरी हार. मणिपुर की पारंपरिक राजनीति और दलों का विकल्प बनने को चुनावी मैदान में उतरी शर्मिला, वोटों के मामले में खुद तिहाई का आंकड़ा भी नहीं छु पाई. चुनाव हारने के बाद शर्मिला को जनमत को स्वीकार करते हुए यह कहना पड़ा कि अब भविष्य में कभी भी मैं चुनाव नहीं लड़ूंगी.

नाकेबंदी ने कर दी वोटबंदी

60 सदस्यीय मणिपुर विधानसभा में 2012 में कांग्रेस को 42 सीटें मिली थीं और इसने सरकार बनाई थी. लेकिन एक-एक कर ऐसी सियासी घटनाएं घटीं, जिनसे कांग्रेस जमीनी स्तर पर कमजोर होती गई. कुछ तो सरकार के फैसलों और कुछ अपनों की नाराजगी ने कांग्र्रेस को बहुमत से दूर कर दिया. सात नए जिलों का गठन और बिरेन सिंह एवं वाई इराबोत का भाजपा में शामिल होना ऐसे ही दो कारण हैं. नए जिलों के गठन का निर्णय लेते हुए इबोबी सिंह ने भी नहीं सोचा होगा कि ये फैसला ही उनकी सियासी ताबूत का कील साबित होगा.

इस फैसले ने एक तरफ नगा आंदोलन की आग में घी डालने का काम किया, वहीं दूसरी तरफ मणिपुर में जमीन तलाश रही भाजपा को बना बनाया मुद्दा मिल गया. नए जिलों के गठन वाले फैसले ने उस नगा समुदाय को पूरी तरह से कांग्रेस से दूर कर दिया, जिसकी राज्य में आबादी लगभग 30 प्रतिशत है. यह नगाओं की नाराजगी का ही नतीजा था कि उखरूल जिले में हॉस्पीटल का उद्‌‌घाटन करने गए सीएम इबोबी पर दिन दहाड़े गोली चली, जिसमें वे बाल-बाल बचे.

1 नवंबर से शुरू हुई नाकेबंदी आज भी जारी है और जनता सरकारी फैसले व नगा समर्थित अलगवावादी संगठनों के टकराव के बीच पीस रही है. यही कारण भी रहा कि जनता का कांग्रेस से मोह भंग हो गया और मोइरांग, चूराचांदपुर व हैरोक जैसी सीटों से भाजपा ने जीत दर्ज की, जो कांग्रेस का गढ़ रही हैं. कांग्रेस के लिए यह भी कम चिंतनीय नहीं है कि उसकी पारंपरिक सीट कही जाने वाली जीरीबाम से एक निर्दलीय उम्मीदवार ने जीत दर्ज की है. हालांकि इबोबी सिंह का सियासी परिवारवाद इस बार भी सफल हुआ है.

वे खुद तो चुनाव जीते ही, उनके बेटे और भतीजे ने भी जीत दर्ज की है. उनकी पत्नी द्वारा खाली किए गए सीट खांगाबॉक से बेटे ओ सुरज कुमार ने 9,452 वोटों के अंतर से भाजपा के जदुमनी सिंह को हराया. वहीं, भतीजे ओ हेनरी सिंह ने वांगखैइ से भाजपा के इराबोत सिंह को 4,336 वोटों से मात दी. गौर करने वाली बात ये है कि इराबोत सिंह ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा ज्वाइन किया था.

बागी कांग्रेसी बना भाजपा का खेवैया

पूर्वोतर के ही असम में भाजपा की एंट्री में जो योगदान पूर्व कांग्रेसी हेमंत विश्वेशर्मा का था, वहीं रोल मणिपुर में नोंगथोमबम बिरेन सिंह का रहा. फुटबॉलर से पत्रकार और पत्रकार से राजनेता बने बिरेन सिंह ने न सिर्फ अपनी हैगांग सीट से भारी जीत दर्ज की बल्कि पूरे राज्य में भाजपा की विजय पताखा फहराने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. लगातार तीन बार विधायक रहे इस पूर्व कांग्रेसी नेता ने अक्टूबर, 2016 में मुख्यमंत्री इबोबी सिंह के खिलाफ ही पार्टी में विद्रोह का बिगूल फूंक दिया था.

इसके बाद उन्होंने विधानसभा से इस्तीफा दे दिया और फिर 17 अक्टूबर, 2016 को भाजपा का दामन थाम लिया. भाजपा ने भी उन्हें सर आंखो पर बिठाया और तुरंत ही पार्टी का प्रवक्ता व प्रदेश इकाई की चुनाव प्रबंधन समिति का सह-संयोजक बना दिया. चुनावी राजनीति के लिहाज से भाजपा के लिए पूरी तरह से नए इस राज्य में पार्टी के लिए जमीन बनाने के महत्वपूर्ण काम बिरेन सिंह ने ही किया.

नहीं चला शर्मिला का जादू

किसी ने भी नहीं सोचा था कि डेड़ दशक से ज्यादा समय तक अपनी जिजीविषा और जुनून के आगे व्यवस्था को झुका देने वाली ये आयरन लेडी सियासत के मैदान में इस तरह से औंधे मुंह गिरेगी. हैरानी की बात तो ये है कि जितने लोगों ने नोटा पर बटन दबाया उसका लगभग 1 प्रतिशत वोट ही शर्मिला को नसीब हो पाया.

18 अक्टूबर को जब इरोम शर्मिला ने राजनीति में आने और चुनाव लड़ने की घोषणा की, तो यह मणिपुर के साथ-साथ पूरे देश के लिए खुशखबरी थी. क्योंकि शर्मिला ने लगातार 16 साल तक अनशन कर के अफ्सपा का विरोध किया था. व्यवस्था में आकर व्यवस्था को बदलने का सपना न सिर्फ लोकतांत्रिक पद्धति को स्वीकृति थी, बल्कि शर्मिला का यह फैसला मणिपुर के लिए एक विकल्प भी था.

हालांकि चुनाव परिणाम ने शर्मिला के सपने पर पानी फेर दिया. स्थानीय सियासी समीकरणों को समझने वालों का मानना है कि शर्मिला का अति आत्मविश्वास ही उनकी इस हार का कारण बना. पहली बात तो ये कि बिना फंड और बिना कैडर के उस राज्य में चुनाव लड़ना खुद के पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है, जहां एक दल पिछले 15 सालों से सत्ता में काबीज है.

दूसरी बात ये है कि शर्मिला ने चुनाव लड़ने के लिए मुख्यमंत्री इबोबी सिंह की सीट का ही चुनाव किया. गौरतलब है कि इबोबी सिंह के विधानसभा क्षेत्र थौबाल की मणिपुर के बाकी क्षेत्रों के मुकाबले वही स्थिति है, जो सैफई की उत्तर प्रदेश के बाकी क्षेत्रों की तुलना में. यही कारण भी है कि एक तरफ जहां ओकरम इबोबी सिंह को 18,649 वोट मिले, वहीं शर्मिला 90 वोटों पर सिमट गईं. न सिर्फ शर्मिला बल्कि उनकी पार्टी के अन्य उम्मीदवार भी बुरी तरह से हारे.

मणिपुर के सियासी इतिहास में पहली बार चुनाव लड़ने वाली मुस्लिम महिला नजीमा बीबी ने तमाम कट्टरपंथी सामाजिक संगठनों के विरोध को तो मात दे दिया, लेकिन चुनावी रण में नहीं टिक पाईं और उन्हें केवल छठा स्थान नसीब हुआ. वाबगाइ विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ी नजीमा बीबी को महज 33 वोट मिले, जबकि इस सीट से जीत दर्ज करने वाले कांग्रेसी उम्मीदवार मोहम्मद फजूर रहीम को 12,474 वोट मिले.

किसे कितनी सीटें मिलीं

कांग्रेस                28

भाजपा                21

एनपीपी              04

एनपीएफ              04

लोजपा                01

तृणमूल कांग्रेस         01

अन्य                01

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