एक गृहस्थ किस प्रकार अपने व्यवसाय एवं पारिवारिक दायित्वों का निर्वाह करते हुए बाबा से संबद्ध कार्यों में संलग्न हो सकता है?
एक गृहस्थ को अपने परिवार के प्रति अपने सभी दायित्वों का श्रेष्ठता से निर्वाह करते हुए बाबा के लिए समय निकालना है. उसे अपने गृहस्थ जीवन को सरल बनाना चाहिए. रहन-सहन को सादा रखना चाहिए, ताकि उसे आसानी से संभाला जा सके. नित्य कर्मों को अत्यन्त व्यवस्थित करते हुए न्यूनतम समय में करने का प्रयास करना चाहिए, जिससे बाबा के कार्य के लिए अधिक से अधिक समय मिल सके. अपने व्यवसाय एवं अधिकार संबंधी कार्यों को इस प्रकार व्यवस्थित करना चाहिए कि प्रत्येक कार्य को करते समय उससे संबद्ध अन्य कार्यों के भार से मन पूर्णतः मुक्त रहे. व्यवस्थित होने से ही यह संभव होता है. जिस समय जो भी कार्य करें, उस पर पूर्ण ध्यान दें और उसे निष्ठावान होकर सुव्यवस्थित रूप से पूरा करें. बड़े से बड़े और छोटे से छोटे प्रत्येक कार्य के लिए समय रखना चाहिए. कोई भी कार्य चाहे वह स्वयं का हो अथवा सौंपा हुआ हो, उसे पूरी सच्चाई, ईमानदारी और पूर्णतावादी दृष्टि से करने का प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि ईश्वर पूर्ण हैं. यदि अपने जीवन में प्रत्येक कार्य को निष्ठा, दक्षता एवं पूर्णता के साथ किया जाएगा तो ईश्वर के सान्निध्य का अनुभव होगा. प्रत्येक कार्य को करते समय ईश्वर को सदा अपने ध्यान में रखो. उसे अपने हर पल का साथी बनाओ.
पारिवारिक चिंताएं
परिवार और बच्चों के बारे में हम आमतौर पर चिंतित रहते हैं. इनको कैसे निभाया जाए?
सब कहते हैं ईश्वर दुनिया चलाते हैं. पिछली पीढ़ी में बाप-दादा आए थे और अगली पीढ़ी में पौत्र-प्रपौत्र होंगे. ये सब जीव पूर्व जन्मों के बंधन के कारण हमारे अपने बने और पहले का ऋृण खत्म होने के बाद अपनी-अपनी जीव-दशा को प्राप्त हुए. इस जन्म के पिता अगले जन्म में पिता बनेंगे या इस जन्म की संतान आगे के जन्म में भी संतान होगी, इस बात की कोई निश्चितता नहीं है. ये अपने कर्मफल भोगेंगे जैसे कि हम भोग रहे हैं. हम केवल पूर्वजन्मों के ऋृण के कारण सहायता कर सकते हैं-अपनी सीमाओं के भीतर. जो हमारी सीमाओं के बाहर है, जैसे कि जन्म-मृत्यु, यश-अपयश, हानि-लाभ आदि, तो वह उनको अपने प्रारब्ध के अनुसार अवश्य मिलेगा. अगर हम सब अपनी इच्छानुसार इसको और ज्यादा बढ़ाना चाहते हैं, तो हमें कष्ट भोगना पड़ सकता है, क्योंकि चाहे अपना बच्चा ही हो, वह हमसे ज्यादा ईश्वर की इच्छानुसार आगे बढ़ेगा. अगर हम सोचें कि हम जीवन के प्रारम्भ में क्या बनना चाहते थे और हमारे माता-पिता ने भी हमें क्या बनाना चाहा, फिर हम आगे चलकर क्या बने, इसमें काफी पार्थक्य है. कभी-कभी तो हम अपने बच्चों के बारे में जो सोचते हैं, वे उससे भी आगे बढ़ जाते हैं.
अनावश्यक परंपराओं का त्याग
क्या धार्मिक, सामाजिक-परंपरा को परिवर्तित करना चाहिए?
पृथ्वी के इतिहास में कई परंपराएं बनती रही हैं और लुप्त होती रहीं. कहीं कोई सनातन परंपरा नहीं है. यहां तक कि धर्मों की परंपराएं भी सनातन नहीं हैं. केवल ब्रह्म ही सत्य है. मात्र यही परंपरा परिवर्तित नहीं होगी. बाकी हर जगह परंपरा में बदलाव आएगा. आज जो भी परंपराएं बनी हैं, वे पिछली परंपराओं को तोड़कर बनी हैं. उसी प्रकार आज की परंपराओं को कल की परंपराएं तोड़ेंगी. परंपराएं जब बनती हैं, तो उनका उद्देश्य जीवन को सहज करना होता है. अनावश्यक को छोड़ने से ही जीवन सहज हो सकता है. अगर परंपरा जीवन की प्रगति को रोक दे, तो उसका क्या लाभ? जो सामाजिक परंपराएं समाज की प्रगति में बाधक हैं, उनको तोड़ने के लिए ही अवतार आते हैं. महाभारत में असंख्य ऐसी परंपराएं थीं, जिनको तोड़ने के लिए कृष्ण आए और युद्ध किया. जो परंपराएं सुख न दें और समाज की प्रगति में बाधक हों, उनको बदलना ही श्रेयस्कर है. श्री शिरडी साईं बाबा ने भी इसीलिए अनेक धार्मिक एवं सामाजिक परंपराओं को तोड़ा और नई परंपराओं की शुरुआत की. रामनवमी के दिन उर्स का आयोजन इसका एक ज्वलंत उदाहरण है.
भिखारी-रूप
मंदिरों के बाहर बहुत से बच्चे भीख मांगते हुए दिखाई देते हैं. क्या उन्हें ऐसा करने से रोकना चाहिए?
ये बच्चे किसी लोभ-भावना से भीख नहीं मांगते हैं. उनकी तो मात्र इतनी इच्छा होती है कि उन्हें कुछ मिष्ठान, नारियल का टुकड़ा या अन्य कोई खाद्य-सामग्री मिल जाए. उनके चेहरों पर कितना निश्छल भाव होता है. इतने निर्धन होते हुए भी इन बच्चों के चेहरों पर कितनी खुशी दिखाई देती है. धन का लोभ तो उन्हें है, जिनके पास लाखों-करोड़ों हैं और फिर भी इस चक्कर में पड़े हुए हैं कि लाखों-करोड़ों और मिल जाएं. इसके लिए वे अनेक टेढ़े-मेढ़े काम करते हैं. आवश्यक है कि ये लोग अपनी मनोवृत्तियां बदलें. ये दूसरी तरह से भीख मांगते हैं, किंतु इन पर सबका ध्यान नहीं जाता.