bosssविजय माल्या विदेश चले गए. बहस होती रही, बैंक सीबीआई को ख़बर करते रहे. स्टेट बैंक ऑफ इंडिया सहित 17 बैंक सुप्रीम कोर्ट चले गए कि विजय माल्या को विदेश जाने से रोका जाए. लेकिन, लगता है कि सबने मिलकर विजय माल्या को इस देश से बाहर जाने में मदद की. वित्त मंत्रालय के अधिकारी और खुद वित्त मंत्री विजय माल्या के सबसे घनिष्ठ दोस्तों में हैं. विजय माल्या बीते दो मार्च की रात विदेश चले गए, ऐसा सरकारी वकील ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है.

विजय माल्या के ऊपर 7,000 करोड़ रुपये का सरकारी कर्ज है, जिसे बैंकों ने कहा है कि वसूला नहीं जा सकता. विजय माल्या के ऊपर इस 7,000 करोड़ के कर्ज को राजनीतिक तौर पर प्रचारित भी किया गया. लेकिन, जब यह कर्ज चढ़ रहा था और किंगफिशर डूब रही थी, उस समय न सरकार चेती, न बैंक चेते, न सीबीआई चेती. सरकारी बैंकों ने जो 1.14 लाख करोड़ रुपये एनपीए में डाले हैं और एक तरीके से उन्हें माफ़ कर दिया है, उनमें कुछ प्रमुख नाम उन उद्योगपतियों के हैं, जो सरकारी पैसे को अपना पैसा समझते हैं.

भूषण स्टील के ऊपर 40 हज़ार करोड़, एस्सार स्टील के ऊपर 30 हज़ार करोड़, एबीजी शिपयार्ड के ऊपर 11 हज़ार करोड़, भारती शिपयार्ड पर 8,000 करोड़, किंगफिशर एयरलाइंस यानी विजय माल्या के ऊपर 7,000 करोड़, होटल लीला के ऊपर 4,500 करोड़, विनसम डायमंड एंड ज्वेलरी के ऊपर 3,200 करोड़, इलेक्ट्रोथर्म इंडिया पर 2,600 करोड़, ज़ूम डेवलपर के ऊपर 1,810 करोड़, स्टर्लिंग बायोटेक के ऊपर 1,732 करोड़, एस कुमार्स नेशनवाइड के ऊपर 1,692 करोड़ और सूर्य विनायक इंडस्ट्रीज लिमिटेड के ऊपर 1,446 करोड़ रुपये बकाया हैं.

सीबीआई या बैंक इन कंपनियों के बारे में खामोश हैं और स़िर्फ विजय माल्या का नाम तोते की तरह रट रहे हैं. यह भी एक तरीका है कि सबको बचा लो, किसी एक के ऊपर सारी जांच केंद्रित कर दो और फिर उसे भी देश से बाहर निकाल दो. 1.14 लाख करोड़ रुपये जनता के पैसे हैं, लेकिन इसकी चिंता किसे है? इन सारे लोगों के ऊपर जब एनपीए बढ़ रहा था, तब किसी का ध्यान नहीं गया. इनमें से कई लोग, खासकर विजय माल्या शौकीन और रंगीन पार्टियां देने के लिए मशहूर रहे हैं.

माल्या का चाहे बेंगलुरु स्थित घर हो या गोवा स्थित, दोनों ही राजनेताओं एवं नौकरशाहों के सर्वाधिक सुप्रसिद्ध मनोरंजन के स्थान हैं. वहां जो लोग जाते थे, वे कांग्रेस के भी बड़े नेता होते थे और विपक्ष के भी. विपक्ष के जो नेता उन पार्टियों में जाते थे, आज वे भारत सरकार में सर्वाधिक महत्वपूर्ण मंत्री हैं. कैसे मान लें कि सरकारी पैसे की कोई वसूली हो पाएगी, क्योंकि राजनीतिक इच्छाशक्ति पैसा वसूलने के ख़िलाफ़ है और इस मसले में मौजूदा सत्तारूढ़ पार्टी और तथाकथित विपक्षी पार्टी कांग्रेस के बीच कहीं न कहीं आपस में समझौता है.

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हमेशा खामोश रहते थे. जिन कुछ अवसरों पर उन्होंने मौन तोड़ा, उनमें एक मौक़ा किंगफिशर एयरलाइंस को बेलआउट पैकेज देने का भी रहा. उन्होंने कहा कि हम किंगफिशर को डूबने से बचाने के लिए कुछ उपाय करेंगे और उसके बाद तत्कालीन नागरिक उड्डयन मंत्री वयालार रवि ने तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के साथ मिलकर इसके रास्ते निकालने शुरू किए. उनके निर्देश पर तत्कालीन मंत्री स्वर्गीय मुरली देवड़ा एवं जितेंद्र प्रसाद ने सरकारी बैंकों के साथ बैठकें शुरू कीं.

नतीजा यह हुआ कि 900 करोड़ रुपये बकाया होने के बावजूद सरकारी तेल कंपनियों ने विजय माल्या के हवाई जहाजों में ईंधन भरना शुरू कर दिया. उनके दबाव से एयरपोर्ट अथॉरिटी ने विजय माल्या से ग्राउंड टैक्स नहीं वसूला, तेल कंपनियों ने अपना पैसा नहीं वसूला और विजय माल्या की एयरलाइंस सरकारी पैसे से उड़ती रही. उन्हें जो बेलआउट पैकेज मिला, वह सारा पैसा इस देश या सरकारी हाथों से, जनता के हाथों से निकल कर विजय माल्या की संपत्ति बन गया.

विजय माल्या के बारे में हम इतना सब कुछ इसलिए जानते हैं, क्योंकि उन्हें तत्कालीन नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल ने नागरिक उड्डयन मंत्रालय की स्थायी समिति का सदस्य बनवा दिया. जिस शख्स के ऊपर नागरिक उड्डयन मंत्रालय या सरकार का इतना कर्ज हो, वह नागरिक उड्डयन मंत्रालय की स्थायी समिति का सदस्य बन गया! ऐसे में सरकारी कंपनियां उसके ख़िलाफ़ कैसे जा सकती थीं? और, यह सब तत्कालीन सरकार की जानकारी में हुआ. दूसरी सरकार आई. उसने जब पैसे वसूलने का मन बनाया या एनपीए की सूची बनानी शुरू की, तब उसे समझ में आया कि उसके भी दोस्त इस कतार में हैं. लिहाजा बैंकों से कहा गया कि वे अपनी वसूली की तैयारी करें. तब बैंकों ने कहा कि हम वसूल ही नहीं सकते, क्योंकि जिस कंपनी को हमने कर्ज दिया है, उसके पास कोई एसेट्स नहीं है.

कमाल की बात यह कि जब राजनीतिक तौर पर विजय माल्या को चुना गया, तो उनके दोस्तों, जो मौजूदा सरकार में असरदार मंत्री हैं, ने उनके देश से बाहर जाने के रास्ते साफ़ कर दिए. यह हमारा आरोप नहीं है, बल्कि परिस्थितिजन्य साक्ष्य बताते हैं कि ऐसा ही हुआ होगा. वरना यह कैसे हो सकता है कि देश का पैसा हज़म करने वाला शख्स विदेश चला जाए और सीबीआई देखती रह जाए, बैंक देखते रह जाएं, सरकार देखती रह जाए. यहीं पर समझ में आता है कि आप न पठानकोट कांड के मुलजिमों को पकड़ सकते हैं, न देश के ख़िलाफ़ साज़िश रचने वालों को पकड़ सकते हैं. आप स़िर्फ और स़िर्फ बोल सकते हैं.

यह आरोप नहीं, दर्द है. यह दर्द हम इसलिए बयान कर रहे हैं, क्योंकि विजय माल्या के अलावा जो लोग इस सूची में शामिल हैं, उनके नाम किसी टेेलीविजन चैनल या अख़बार ने प्रमुखता से नहीं बताए-छापे हैं. भूषण स्टील 40 हज़ार करोड़ रुपये और एस्सार स्टील 30 हज़ार करोड़ रुपये लेकर बैठी हुई है, लेकिन उनसे उक्त कर्ज

वसूलने की कोई योजना सरकार के सामने नहीं आई है. आख़िर क्यों नहीं सरकार एक क़ानून बनाकर उनकी दूसरी कंपनियों एवं प्रमोटर्स की व्यक्तिगत एसेट्स जब्त करती है, ताकि देश का पैसा वसूल हो सके और आगे से कोई शख्स सरकार या देश को चूना लगाकर, धोखा देकर पैसा खाने की हिम्मत न करे. इस मामले में हमारे विपक्षी भाई और सत्ताधारी भाई दोनों एकराय हैं कि ऐसा कोई क़ानून नहीं बनना चाहिए.

यह सारा पैसा वसूलने के लिए संसद में अब तक कोई बहस नहीं हुई. संसद में उन सवालों के ऊपर बहस होती है, उन सवालों के ऊपर संसद स्थागित होती है, जो नॉन इश्यू हैं. लेकिन, जो इश्यू हैं, जिनसे देश की अर्थव्यवस्था बर्बाद होती है, वे इस संसद की चिंता का विषय नहीं हैं. कारण फिर वही हो सकता है और हम अंदाज़ा लगा सकते हैं कि शायद सत्तापक्ष एवं विपक्ष के लोगों को यह पैसा खाने वाले लगातार उपकृत करते रहे हैं. यह आरोप हम पुन: परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर लगा रहे हैं.

हमारा आग्रह सरकार से है, हमारा आग्रह प्रधानमंंत्री नरेंद्र मोदी से भी है. अगर आप अर्थव्यवस्था और देश के प्रति जरा भी ईमानदार हैं, तो कम से कम इस बात पर शर्म कीजिए कि 25 हज़ार रुपये से लेकर सवा लाख रुपये तक का कर्ज चुकाने में नाकाम रहने पर एक किसान आत्महत्या कर लेता है और हज़ारों करोड़ रुपये डकारने वाले पूंजीपति ऐश करते रहते हैं, उनके दरवाजे पर एक नोटिस भी नहीं चिपकता.

किसानों द्वारा आत्महत्या को अनदेखा मत कीजिए प्रधानमंत्री जी. किसानों की मौत आपके माथे पर एक बदनुमा दाग है. जितना पैसा आपकी सरकार या आपसे पहले की सरकार ने पूंजीपतियों के हवाले किया है, उसका अगर आधा हिस्सा भी आपने किसानों के लिए आवंटित कर दिया होता, तो आत्महत्याएं रुक सकती थीं, किसानों की ज़िंदगी में खुशहाली की झलक दिखाई पड़ सकती थी. कम से कम आत्महत्या तो नहीं होती. क्या यह देश कॉरपोरेट बनाम किसान की लड़ाई की तरफ़ जा रहा है? प्रधानमंत्री जी, सोचिए.

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