नबीला कौन है? इसका पता लगाने की फुर्सत शायद ही किसी को मिले. लोग उसके बारे में नहीं जानते लेकिन मलाला यूसुफजई को सभी जानते भी हैं और उसके लिए खुशी भी मना रहे हैं. मनानी भी चाहिए , आखिर उसने काम ही ऐसा किया है. दरअसल ये दोनों ल़डकियां एक ही देश की हैं. एक ही देश की नहीं लगभग एक ही इलाके की, पाकिस्तान के कबायली इलाके की. एक को नवाज शरीफ प्राइड ऑफ पाकिस्तान कहते हैं और दूसरी… शायद दूसरी को वे जानते भी न हों. दरअसल ये दोनों ल़डकियां अमेरिका और पश्चिमी देशों के दो चेहरे हैं. दोनों दो तरह की कहानी बयान करते हैं. एक अमेरिका के चमकते हुए चेहरे की दूसरी खौफनाक अमेरिका की. आइए जानने की कोशिश करते हैं, क्या अंतर है इन दोनों की कहानी में…
मलाला यूसुफजई ने भले ही नोबेल पुरस्कार जीत लिया हो लेकिन बहुत सारे पाकिस्तानी लोग उससे आज भी नफरत करते हैं. देश के ये लोग मलाला को पश्चिमी देशों के एजेंट के तौर पर देखते हैं. उनका मानना है कि मलाला ने अमेरिकी एजेंट के तौर पर पाकिस्तान में मौजूद उन बातों का प्रचार किया, जो बुरी हैं लेकिन ऐसा नहीं कि देश में सबकुछ बुरा ही है.
मलाला को दो साल पहले तालिबान आतंकियों ने ल़डकियों की शिक्षा के लिए आवाज उठाने को लेकर सिर में गोली मार दी थी. इसकी अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में काफी आलोचना भी हुई थी. देश में मलाला के समर्थकों के साथ दिक्कत यह भी है कि यहां का मिडिल क्लास अपनी बच्चियों को प़ढाना तो चाहता है लेकिन इस समस्या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ले जाकर अपने देश की बदनामी नहीं कराना चाहता. नोबेल पुरस्कार की घोषणा के बाद से टि्वटर पर सक्रिय कई पाकिस्तानी लोगों ने मलाला के खिलाफ टि्वट किए.
एक युवक अदनान करीम राना ने ट्विट किया कि मलाला को नोबेल की जगह ऑस्कर पुरस्कार दिया जाना चाहिए क्योंकि उसके सिर में गोली मारे जाने से लेकर उसका इजाज तक, सारी बातों फिल्मी थीं. ये सभी एक षड्यंत्र का हिस्सा थे. राना के हिसाब से इस पूरे षड्यंत्र में ब्रिटेन शामिल था और इसी वजह से मलाला अब ब्रिटेन में ही रह रही है. पेशावर के 45 वर्षीय इंकिलाब, पेशावर उन मुख्य शहरों में है जो आतंकियों से परेशान है, कहते हैं कि आखिर मलाला को शांति का नोबेल पुरस्कार क्यों दिया गया, यह बात उनकी समझ से परे है. उनका कहना है कि मलाला के जरिए यह पाकिस्तान की छवि को सिर्फ एक आतंकी देश घोषित करने की साजिश है. इससे देश की ऐसी छवि बनाने की कोशिश हो रही है जैसे पूरे पाकिस्तान में सिर्फ आतंकियों का ही राज है.
हालांकि इन सबके बीच मलाला को देश के लोगों और राजनेताओं की तरफ से वाहवाही भी मिली. प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने उसे प्राइड ऑफ पाकिस्तान तक कह डाला. लेकिन अगर इसके उलट देखा जाए तो मलाला की आत्मकथा आई एम मलाला बुक स्टॉलों से गायब है. आतंकियों ने दुकानदारों को इसके लिए धमकी भी दी है कि अगर उन्होंने मलाला की किताब बेची तो उन्हें अपनी जान से हाथ धोना प़डेगा.
एक और बात जो पाकिस्तानी लोगों के बीच चर्चा का विषय बनी हुई है, वह यह है कि अगर तालिबान के खिलाफ आवाज उठाने वाली मलाला को नोबेल पुरस्कार दिया गया तो ड्रोन हमले में बाल-बाल बचने वाली नबीला रहमान के बारे में अमेरिका और पश्चिमी देशों का क्या कहना है? मलाला को पश्चिमी देशों का एजेंट मानने वालों का मत है कि जिस समय मलाला को पश्चिमी देशों द्वारा लोकप्रियता दी जा रही थी, ठीक उसी समय अमेरिका वजीरिस्तान में बहुत ज्यादा ड्रोन हमले कर रहा था. उनका मानना है कि इन हमलों से होने वाली त्रासदियों को छिपाए रखने के लिए ही अमेरिका और उसके पिछलग्गू पश्चिमी देशों ने मलाला को एक ऐसा हथियार बनाया जिसकी आ़ड में उसके सारे अपराध छिप जाएं और लोगों का ध्यान सिर्फ इस बात पर चला जाए कि पाकिस्तान आतंकियों का ग़ढ बन गया है. नबीला का नाम सुनने पर किसी को भी यह जिज्ञासा हो सकती है कि आखिर यह ल़डकी कौन है? इसका जिक्र इस खबर में क्यों किया जा रहा है? दरअसल यह ल़डकी उस सच्चाई की तरफ उंगली उठाती है जिसकी तरफ से दुनिया के लगभग सभी संभ्रांत और तथाकथित अमन पसंद देश आंख मूंदे हुए हैं. साल 2012 में आठ वर्षीय नबीला के परिवार पर ड्रोन हमलों का कहर बरपा था. इस हमले में उसकी दादी की मौत हो गई थी, परिवार के ही सात बच्चे घायल हो गए थे. वह और उसका भाई किसी तरह बच पाए थे. इसे लेकर नबीला और उसके पिता, जो एक प्राइमरी स्कूल में टीचर हैं, संयुक्त राष्ट्र सभा में भी जा चुके हैं और न्याय की गुहार लगा चुके हैं. लेकिन संयुक्त राष्ट्र सभा में बैठे लोगों ने नबीला की तकलीफ से ज्यादा मलाला को तरजीह दी. इसका एक कारण भी है. संयुक्त राष्ट्र में पश्चिमी देशों का ही प्रभुत्व चलता है, अगर नबीला की कहानी को और ज्यादा उछाला गया होता तो शायद दुनियाभर में अमेरिकी ड्रोन हमलों की भर्त्सना और ज्यादा ब़ढ गई होती लेकिन मलाला का मामला इससे बिल्कुल उलटा है. इस मामले में न सिर्फ पश्चिमी देश वाहवाही ही लूट रहे हैं बल्कि पूरी दुनिया को सिर्फ यह मानने पर मजबूर कर रहे हैं कि पाकिस्तान और आंतकवाद एकदूसरे के पर्यायवाची हैं.
दरअसल मलाला और नबीला के बीच में यह ब़डी खाई किसी और नहीं ख़डी की है. यह उन देशों द्वारा बनाई गई खाई है जिनके लिए युद्ध होते रहना दैनिक दिनचर्या की तरह ही जरूरी है. मलाला पश्चिमी सभ्यता के लिए उस प्रतीक के तौर पर है जो उन्हें न सिर्फ पाकिस्तान बल्कि दुनिया के अन्य देशों में भी आतंकवाद के खिलाफ जंग चलाते रहने की सहूलियत देती है. अगर पश्चिमी देश सिर्फ आतंकवाद के खिलाफ ही ल़डाई ल़ड रहे है तो उन्हें ड्रोन हमलों के दौरान मरने वाले आम नागरिकों का ख्याल क्यों नहीं रहता. एमनेस्टी इंटरनेशनल संस्था के मुताबिक पिछले साल अमेरिकी ड्रोन हमले में मरने और घायल होने वाले नागरिकोंे की संख्या लगभग 900 है.
ऐसे मेंे जहां मलाला अमेरिकियों के चेहरे की चमक ब़ढा देती है वहीं नबीला जैसी बच्चियों की कहानी उसके चेहरे की चमक को फीका करती है. नबीला की कहानी बताती है कि तालिबान के अत्याचारों से कम दुखदाई अमेरिकी ड्रोन हमले भी नहीं हैं.
ऐसे हमलों से पी़िडत परिवारों के लिए सबसे दुखद बात यह है कि वे दोहरी मजबूरियों में फंसे हैं. उनके लिए एक तरफ कुआं और दूसरी तरफ खाई वाली अवस्था है. जहां तालिबान पूरी तरह उनकी आजादी को अपने वश में करना चाहता है. उनकी जिंदगी से हर सुकून छीनकर उन्हें धार्मिक जिहादी बनाने पर तुला हुआ है तो वहीं उनकी आजादी के लिए ल़डाई ल़डने वाले अमेरिका का भी हाल कुछ जुदा नहीं है. अमेरिका भी हमले में तो आतंकियों को निशाना बनाता है लेकिन निशाना आम लोग बन जाते हैं. कम से कम आतंकी तो पूरी दुनिया में बदनाम हैं लेकिन अमेरिका तो अपनी इन कारस्तानियों के बावजूद भी दुनिया भर में सीना चा़ैडा करके घूमता है. इसलिए मलाला के लिए खुशी मनाने वाले लोगों को ठहरकर एक बार सोचना प़डेगा कि इस नोबेल के पीछे की वास्तविक कहानी आखिर क्या है?
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