जीतनराम मांझी जदयू के भीतर खुद को दल के अघोषित सुप्रीमो नीतीश कुमार के समानांतर खड़ा करने की जी-तोड़ कोशिश में हैं? वह राज्य की राजनीति, विशेष तौर पर दलित राजनीति में नए आयाम जोड़ना चाहते हैं? पटना के राजनीतिक गलियारे में ये सवाल आम हो गए हैं. मंदिर प्रकरण ने इन सवालों को नया और तीखा बना दिया है. मुख्यमंत्री ने बीते अगस्त माह में विधानसभा उपचुनाव के दौरान हुई एक घटना का जिक्र करते हुए कहा कि वह मधुबनी के एक गांव में स्थित मंदिर में गए थे, जिसे उनके वापस आने के बाद धोया गया था. उन्हें यह बात उनके मंत्री रामलखन राम रमण ने बताई. उन्होंने कहा कि उनके साथ अब भी भेदभाव होता है. लोग काम के लिए आने पर मेरे पैर छूते हैं, लेकिन जब मैं मंदिर जाता हूं, तो मेरे वापस लौटने के बाद उसे धोते हैं.
पूर्व सांसद देवेंद्र प्रसाद यादव ने इस रहस्योद्घाटन के लिए मुख्यमंत्री को बधाई दी. मांझी की इस बात को जदयू के मंत्री नीतीश मिश्र एवं विधान पार्षद विनोद सिंह ने गलत बताया है. मांझी सरकार में खान एवं भूतत्व मंत्री रामलखन राम रमण ने भी मुख्यमंत्री को ऐसी किसी घटना की जानकारी देने से इंकार किया है, लेकिन मांझी को अपने किसी मंत्री या विधान पार्षद पर भरोसा नहीं है. लिहाजा उन्होंने इस प्रकरण की प्रशासनिक जांच के आदेश दिए हैं. दरभंगा के आयुक्त एवं पुलिस महानिरीक्षक मामले की जांच करके रिपोर्ट देंगे और तब आगे की कार्रवाई होगी.
मधुबनी ज़िले के ठाढ़ी गांव में परमेश्वरी स्थान नामक यह मंदिर किसी देवता का नहीं, बल्कि ग्राम देवी का है और मिट्टी का पिंडा है. चूंकि इसे धोया नहीं जाता है, इसीलिए सुबह-शाम इसकी सफाई ही होती है. राजनगर उपचुनाव में प्रचार अभियान के दौरान नीतीश मिश्र एवं विनोद सिंह के साथ मांझी यहां पहुंचे थे, पूजा-अर्चना की थी. उनके साथ रामलखन राम रमण या कोई दूसरा बड़ा नेता नहीं था. रमण ने खुद ऐसी कोई जानकारी मुख्यमंत्री को देने से इंकार किया और कहा, पूर्व सांसद एवं जदयू नेता देवेंद्र प्रसाद यादव ने ही इस वाकये के बारे में मुख्यमंत्री को बताया था. उस समय मैं भी वहां मौजूद था. यानी मुख्यमंत्री को इस घटना की जानकारी सुनी-सुनाई बातों के आधार पर दी गई, वह चाहे रमण ने दी हो या यादव ने. यदि मुख्यमंत्री की बात पर भरोसा करें, तो वह लोगों को यह नहीं बताते कि रमण ने उन्हें इसकी जानकारी कब दी. वह यह भी नहीं बताते कि उन्हें जब इस वाकये के बारे में बताया गया, तो उन्होंने इसे जनसभा में बताने की बजाय इसकी जांच कराना मुनासिब क्यों नहीं समझा? क्या वह सियासी हंगामा पैदा करने लायक माहौल की प्रतीक्षा कर रहे थे?
जाहिर है, मुख्यमंत्री की चुनावी यात्रा के दौरान प्रशासन ने अपनी ओर से खास व्यवस्था की होगी. लिहाजा उस गांव में भी वैसी व्यवस्था हुई होगी. मंदिर से सात किलोमीटर की दूरी पर थाना और प्रखंड कार्यालय है. पंचायत में मुखिया है, सरपंच है, चौकीदार है. किसी ने कोई जानकारी अपने वरिष्ठ अधिकारी को क्यों नहीं दी, कोई कार्रवाई क्यों नहीं की? लगभग दो महीने तक पुलिस और ज़िला प्रशासन खामोश क्यों रहा? रमण और यादव को यदि इसकी पक्की जानकारी थी, तो उन्होंने मधुबनी के ज़िला प्रशासन को इसकी सूचना क्यों नहीं दी? यदि उन्होंने मुख्यमंत्री को गलत जानकारी दी है, तो उनके ख़िलाफ़ क्या कार्रवाई की जाएगी? यदि मंदिर धोने की घटना सही है, तो मुख्यमंत्री को झूठा साबित करने वाले मंत्री एवं जदयू विधान पार्षद के ख़िलाफ़ क्या कार्रवाई की जा रही है? मामले की जांच कराने की घोषणा जदयू ने भी की है. वह अपनी टीम भेजेगा, लेकिन कब टीम भेजी जाएगी और उसमें कौन लोग शामिल होंगे, यह घोषणा अभी नहीं की गई है. राज्य में महादलित आयोग है, मानवाधिकार आयोग है, अनुसूचित जाति आयोग है, लेकिन मुख्यमंत्री के साथ ऐसा अमानवीय-आपराधिक भेदभाव हो रहा है और सभी खामोश हैं. मामले की जांच भी स्वयं मुख्यमंत्री के आदेश पर हो रही है.
मांझी चार दशकों से अधिक समय से सक्रिय राजनीति में हैं और तीन दशकों से अधिक समय से मंत्री. कांग्रेस की सरकारों में हिस्सेदारी निभाने और लालू-राबड़ी की कप्तानी झेलने के बाद वह नीतीश कुमार की सरकार में मंत्री रहे. इतनी लंबी यात्रा के बाद नीतीश कुमार की कृपा से (बतौर उनकी कठपुतली) उन्हें मुख्यमंत्री का पद मिला. मांझी जानते और सार्वजनिक रूप से कहते भी हैं कि वह अगले कुछ महीने ही मुख्यमंत्री हैं.
उम्मीद है कि इस संवेदनशील मामले की जांच तत्परता और पूरी गंभीरता से जल्द पूरी कर ली जाएगी. यह सामान्य बात नहीं है. आज़ादी के 67 सालों बाद भी देश में ऐसा होता है, यह किसी भी सभ्य समाज की कल्पना से बाहर है. लिहाजा किसी की यह अपेक्षा सहज है कि इस प्रकरण में (यदि यह सही साबित होता है) सभी दोषियों को कठोर दंड मिले. दंड उन्हें भी मिले, (अधिकारियों एवं जन-प्रतिनिधियों) जिन्होंने इस प्रकरण को दबाकर रखा और समाज में ग़ैर संवैधानिक व्यवस्था के पोषक लोगों की मदद की. सवाल यह भी है कि यदि मामला गलत साबित होता है, तो क्या होगा? समाज में जातीय उन्माद की हवा चलाने वालों के ख़िलाफ़ क्या कार्रवाई की जाएगी? क्या राजनीतिक दल ऐसे तत्वों को दल के भीतर पद और चुनाव में उम्मीदवारी देकर सम्मानित करने से बाज आएंगे?
दरअसल, ऐसे नाजुक मामलों में कान से अधिक चेतना और दिल से नहीं, दिमाग से काम लेने की ज़रूरत होती है. सिर्फ सत्ता-शीर्ष पर मौजूद नौकरशाह नहीं, राजनेताओं से भी यही अपेक्षा रहती है. मांझी को भी इस प्रकरण पर किसी आमसभा में राय रखने या प्रतिक्रिया व्यक्त करने के पहले आधिकारिक तौर पर पक्की जानकारी हासिल कर लेनी चाहिए थी. उनके पास पूरी सरकार है, सारी सूचनाएं मिनटों में उन तक पहुंच सकती हैं, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. आख़िर क्यों?
मांझी चार दशकों से अधिक समय से सक्रिय राजनीति में हैं और तीन दशकों से अधिक समय से मंत्री. कांग्रेस की सरकारों में हिस्सेदारी निभाने और लालू-राबड़ी की कप्तानी झेलने के बाद वह नीतीश कुमार की सरकार में मंत्री रहे. इतनी लंबी यात्रा के बाद नीतीश कुमार की कृपा से (बतौर उनकी कठपुतली) उन्हें मुख्यमंत्री का पद मिला. मांझी जानते और सार्वजनिक रूप से कहते भी हैं कि वह अगले कुछ महीने ही मुख्यमंत्री हैं. पटना के राजनीतिक हलकों में उन्हें गया का और गया में महकार (मुख्यमंत्री का पैतृक गांव) का मुख्यमंत्री कहा जाता है. लेकिन, वह बिहार के दलित नेता के तौर पर अपनी पहचान के लिए काफी परेशान हैं.
वह केवल दलितों-महादलितों को नहीं, बल्कि उन तमाम छोटी, उपेक्षित, वंचित एवं अति पिछड़ी जातियों को भी समेटना चाहते हैं, जिनके हिस्से का विकास कुछ खास सामाजिक समूह लूट ले जाते हैं. मांझी खुद को उनके हित-संरक्षक के तौर पर पेश कर रहे हैं. मंदिर प्रकरण की वास्तविकता जो भी हो, लेकिन उसका राजनीतिक संदेश मांझी ने दे दिया कि दलित सम्मान और स्वाभिमान की रक्षा किसी दूसरे के बूते की बात नहीं है.
मांझी के इस नए अवतार से जदयू और नीतीश कुमार को जो भी लाभ मिले, फिलहाल इससे उनकी कट्टर विरोधी भारतीय जनता पार्टी का बिगड़ा काम अनायास बगैर कुछ किए बन गया. भाजपा से दूर होते कुछ खास सामाजिक समूह के मतदाता एक बार फिर उसके प्रति नरम हो सकते हैं. राम विलास पासवान एवं भाजपा के प्रवक्ता योगेंद्र पासवान की प्रतिक्रियाएं कुछ यही संकेत देती हैं. शायद यही कारण है कि जदयू के कई पुराने नेता मांझी के राजनीतिक बात-व्यवहार को दल के लिए परेशानी का सबब मान रहे हैं और मंदिर प्रकरण के बाद तो वे सब उबाल पर हैं.