”नई मीडिया की चुनौतियां”

संतोष भारतीय : विक्रम रावजी एक महत्वपूर्ण स्थिति आज देश में है। आज मीडिया देश के सवालों पर बात ही नहीं करता है, रिपोर्ट ही नहीं करता है। आपके जमाने में अक्सर होता था कि जर्नलिस्ट सरकार की बात को एग्जामिन करते थे, इनवेस्टिगेट करते थे और तब डिसाइड करते थे कि सत्य क्या है? आज वो नहीं हो रहा है और चूंकि नहीं हो रहा है तो समाज बिलकुल अंधेरे में है, समाचारों के लिहाज से।

के.विक्रम राव : आपने जो विश्लेषण किया है तो गौर करें कि ऐसी नौबत क्यों आयी भारत में? वही अखबार जो खुलकर लिखते थे, कभी खबर नहीं दबाते थे। तब और अभी हाल ही में कुछ वर्षों पहले तक व्यापार और पत्रकारिता में (रिपोर्टिंग में) जुड़ाव नहीं था। ये नाभि—नाल जो कट चुका था, आज वो फिर से सट गया है। व्यापार में लाभ की नजर से देखा जाता है कि क्या खबर छपे। मसलन बड़ौदा में एक होटल पर रेड पड़ी, लड़कियां पकड़ी गयीं। किसी अखबार ने भी ये खबर नहीं छापी। एक ने मुझे कहा टाइम्स ऑफ इंडिया में छापकर देखो। मैंने कहा छाप दूंगा। खबर छप गयी। व्यापारी लोग नाराज हो गये, विज्ञापन बन्द करने की धमकी मिली। ये शुरुआत थी, संतोष भाई। विज्ञापन से जोड़ देंगे तो विज्ञापनदाता बड़ा हो जायेगा, पत्रकार कटेगा। हम मजदूर लोग, श्रमजीवी पत्रकार लोग चपरासी से नीचे हो जायेंगे। यही स्थिति हो रही है। संपादक के सम्मान तथा अधिकार के लिए हम इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट के लोग संघर्ष करते रहे है ताकि ”एडिटर कैन कॉल हिज सोल हिज ऑन (संपादक अपनी आत्मा को अपना कहा सके)। तभी स्थिति सुधरेगी। पांच दशक पूर्व हम पत्रकारों को यही सिखाया गया गया था कि जिसका संतोषभाई आपके सवाल से सीधा रिश्ता—नाता है। आज एक आम शिकायत है कि पत्रकार बहुत झूठ लिख रहे हैं। हमें शपथ लेनी होगी कि ”हम सच नहीं लिख सकते, क्योंकि हम पर दबाव है। लेकिन हम रिपोर्टर झूठ नहीं लिखेंगे।” ये संकल्प होगा है। इसी संदर्भ में पत्रकारिता की प्रासंगिकता और अनिवार्यता दिखती है।
मेरा आपसे यही कहना है कि जर्नलिज्म ट्रेनिंग के बारे में हमारे दौर में ठीक से कोई ध्यान नहीं दिया गया था। चाहे जैसा भी ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता मैं हूं, लेकिन मैं आभारी रहूंगा साहू— जैन कम्पनी का कि भारत में पहला ट्रेनिंग प्रोग्राम ”टाइम्स ऑफ इंडिया” मुम्बई ने शुरू किया था। 1962 में और मुझे गर्व है कि मैंने उस प्रोग्राम को ज्वाइन किया था। भारत भर की चयन प्रक्रिया में लगभग बारह हजार प्रतिस्पर्धी थे। हम 6 ही लोग चयनित हुए। मेरे साथ और लोगों में थे गणेश मंत्री, धर्मयुग के एडिटर थे। विश्वनाथ सचदेव रहे। बाद में एमजे अकबर आये थे। विनोद तिवारी ‘माधुरी’ के संपादक रहे। जो भी उस ट्रेनिंग से निकल के आये, उन्होंने फायदा उठाया। मुझे तो बहुत ही लाभ हुआ। कम से कम भाषा तथा विषय की समझ का, प्रवाहमयी अभिव्यक्ति का।

संतोष भारतीय : मैं आपकी रिपोर्ट और पत्रकारिता पर आऊँ, उसके पहले, क्योंकि आप जिक्र कर चुके हैं, इसलिए आगे बढ़ने से पहले पूछना चाहूंगा कि पत्रकार रहते हुए जो बड़ौदा डायनामाइट केस में आपने रोल प्ले किया, और जिसकी वजह से आपको जेल हुई और आपको फांसी की सजा होते—होते रह गयी। उस बड़ौदा डायनामाइट केस में आप कैसे सम्मिलित हो गये? और वह केस क्या था? क्योंकि वह आज तक लोगों को नहीं पता है।

के.विक्रम राव : मैं बताता हूं। इमरजेंसी थोप दी गयी थी। ऑल इंडिया रेडियो का जो प्रोग्राम अधिकारी बड़ौदा में था वो मेरा सेंसर था। उसे न गुजराती आती थी, न हिन्दी। वो निर्देश देता था कि अंग्रेजी में मैं क्या लिखूं ”टाइम्स ऑफ इंडिया” में। बड़ी ग्लानि आती थी मुझको। उसी दौर में एक दिन मेरे साथी जॉर्ज फर्नाडिस घर आये। हम लोग डा.लोहिया के साथ काम कर चुके थे। 27 जुलाई 1975 को अचानक आते ही उन्होंने कहा कि ”विक्रम, मैं अपने देश में ही शरणार्थी हो गया हूं।” काफी भावुक थे वे। सिख वेश में थे।
चर्चा हुई कि कैसे आपातकाल का विरोध करें? और जार्ज की एक राय से मैं सहमत था। सारे नेता लोग, सवा लाख, डेढ़ लाख जाकर जेल में बैठ गये। लोकनायक को तो खैर पकड़ा गया जबरदस्ती। चन्द लोग अंडरग्राउंड रहे। नानाजी देखमुख वगैरह बाद में पकड़े गये। जॉर्ज का इनकाउंटर करने की कोशिश की, मगर हाथ नहीं आये। और जब मेरे घर आये तो मैं उनसे यही कहता रहा कि जनतंत्र समर्थकों से यथा संभव भेंट हो। इंडियन एक्सप्रेस तथा यूएनआई के मेरे साथियों से जॉर्ज ने कहा कि हम अंडरग्राउण्ड विरोध की तैयारी करेंगे। लिटरेचर बंटवाओं, अहमदाबाद से हांगकांग भिजवाओं, ताकि विदेश को पता चले कि इंदिरा गांधी का विरोध हो रहा है। तब तक हम लोगों का संपर्क एक फैक्ट्री मालिक से हो गया, जो डायनामाइट का इस्तेमाल करता था, अपनी फैक्ट्री में और सड़क बनाने में। तो जॉर्ज का दिमाग तो बहुत ही तेज रहा हमेशा, उसकी एक आवाज से बम्बई बंद हो जाती थी। मैंने कहा कि यह डायनामाइट है। वो समझ गये। फिर वहां से मैंने एक स्कीम बनाई। तब मैं बहुत छोटा सा, मामूली रिपोर्टर था। फिर भारत के तमाम साथी बड़ौदा में जमा हो गये।
संतोष जी तब आप से भी मेरी भेंट हुई। रेलवे कर्मचारी, हिन्द मजदूर किसान सभा के जिन पर आधारित था बड़ौदा डायनामाइट का पूरा केस। और ज्यादा नहीं बताऊंगा, क्योंकि मेरे कई साथी वहां फंस गये थे मेरे साथ। जैसे कमलेश शुक्ल। अब कमलेश जैसे सज्जन आदमी। पूर्वी यूपी के ब्राह्मण, वो मेरे कुसंग में आ गये, जेल चले गये और फांसी का सामना कर रहे थे। उनसे मैंने कहा ”कमलेश अगर तुम बक्सेवाली मेरी चाभी नहीं रखते तो दिल्ली में तो तुम फंसते भी नहीं। अब मै भगवान से प्रार्थना करुंगा कि भगवान मुझे दण्डित करें।” कमलेश बड़े सीधे आदमी थे। पटना के एक महेंद्र नारायण वाजपेयी, रेलवे कर्मचारी नेता थे। चौबीस घंटे मानस का पाठ करने का जिम्मा पंडित जी पर था। विजय नारायण थे, बनारस के। काफी एक्टिव युवजन सभा में। ये सब 25 लोग बड़े शूर तथा सज्जन थे। तभी ग्रीस (यूनान) में सोशलिस्ट पार्टी सत्ता में आ गयी, फौज को हटाने के बाद। सब जॉर्ज के दोस्त थे। ग्रीस के सोशलिस्टों ने कहा कि आपको हम अंडरग्राउंड रेडियो तथा एक जहाज भी दे देंगे, जहां से समानांतर ब्रॉडकास्ट भी कर सकेंगे।
तभी करीब बीस लोग विभिन्न राज्यों में गिरफ्तार हो गयें। श्रृंखला टूटी, फिर तो कड़ी जुड़ना मुश्किल हो जाता है। सारा लिंक टूट गया। जॉर्ज भी गिरफ्तार हो गए थे। यहां मैं एक बात बताना चाहूंगा। अक्सर लोग कहते हैं कि हम लोग हिंसा करते थे। संतोष भाई, हम लोग जॉर्ज के साथी हमेशा अहिंसक रहें। बापू के सिद्धांतों पर चले। मैंने गांधीजी के पैर छुयें थे सेवाग्राम में। तब मैं पांच साल का था। बापू एक ऋषि थे, देवता थे। लोग क्या जाने समझेंगे कि क्या थे वे?

हम में से किसी ने भी नहीं कहा कि हिंसा होगी। बापू ने भी लिखा था: ” I Shall risk violence a hundred times rather than the emasculation of a whole nation.” (बजाय इसके कि पूरा देश क्लीव हो जाय, मैं हिंसा का खतरा उठाऊंगा)।” अत: हमारा लक्ष्य था कि हम तानाशाह के पुर्जे—पुर्जे को हिलाने की कोशिश करेंगे। और अंजाम भी दिया हम लोगो ने। कई जगह किया इस काम को। गमनीय है कि सीबीआई एक भी सबूत पेश नहीं कर पायी कि हमारे संघर्ष से कोई प्राण हानि हुई है।
एक बात बताऊं, संतोषभाई, हमारी बैठकों में अक्सर चर्चा चलती थी। फिदेल कास्रो, शी गुवेरा आदि लैटिन अमेरिका के क्रान्तिकारी सोचते थे कि क्यों न तानाशाह को मार दें? तानाशाह मर जायेगा, अपने आप मसला खत्म हो जायेगा। बहस खूब चली थी। मेरी राय अभी भी थोड़ी बहुत, वैसी ही है। पोलिटिकल साइंस का छात्र रहा, लखनऊ विश्वविद्यालय में रहा। कई छह महाद्वीप घूम चुका हूं, लैटिन अमेरिका भी जा चुका हूं। मैंने पूछा था साथियों से कि हत्या से क्या होगा? एक मरेगा, दूसरा आ जायेगा। तो देश तो वैसा ही रहेगा। तानाशाह खराब है, वो मार डाला जायेगा, तो उसका बेटा आ जायेगा। आवश्यक है कि हम लोग जड़ से बदले, लोगों की मानसिकता बदले। तो यह तय हो गया कि हम हिंसा नहीं करेंगे, हत्या नहीं करेंगे, सिर्फ वहीं जो सन 42 में लोकनायक ने और लोहिया ने किया था वहीं करेंगे। सोते देश को जगायेंगे। वहां सुप्रीम कोर्ट में हमारे बचाव में इससे बेहतर तर्क रामजेठमलानी पेश नहीं कर सकते थे। उन्हीं के कारण न्यायामूर्ति द्वय वीआर कृष्ण अय्यर तथा ओ. चिन्नप्पा रेड्डि ने हमे रिहा किया था।

उसे समय कि एक घटना का उल्लेख करूं। टाइम्स ऑफ इंडिया से जुड़ी हुई है। मेरी गिरफ्तारी की बात। मैं जब कैद होकर पुलिस कस्टडी में था तो बड़ी यातना दी गयी थी। वो हेलीकाप्टर की भांति पंखे से टांगने का, ठंड़ी फर्श पर लेटना, सोने नहीं देते थे। खैर सोने की आदत नहीं थी, रात की ड्यूटी जो करता रहा सालों तक। पुलिस वाले समझते कि ये तो रात में जागकर परेशान होगा। उस दौर में एक आईपीएस ऑफिसर थे। बहुत बढ़िया ऑफिसर थे। थिंकिंग पुलिसमैन। मुझसे कहा : ”विक्रम ये बताओ कि भारत के सारे पत्रकार तो पटरी पर आ गये थे। तुम दो बच्चों के बाप हो, तुम्हें ये बहादुरी क्यों सूझी? तुमसे किसने कहा था हीरो बनने के लिए।”
मैंने कहा, ”आपने बहुत अच्छा सवाल पूछा, अब मेरा जवाब भी सुन लीजिये। एक तो मेरा बैकग्राउण्ड भी है कि मैं जेल देख चुका हूं, बचपन में ही पिताजी के समय से।” फिर मैंने पूछा साहब: ”आप कौन सा अखबार पढ़ते हो?” उन्होंने कहा, ”टाइम्स ऑफ इंडिया।” मैंने कहा ये मेरा अखबार है। 25 जून 1975 के पहले टाइम्स ऑफ इंडिया पढ़ने के लिए आज कितना समय लेते थे?” उन्होंने कहा: ”करीब 18—20 मिनट।” मैंने फिर पूछा: ”25 जून, जब सेंसरशिप आ गयी, उसके बाद आप कितना समय लेते थे?” उन्होंने कहा: ”करीब 9—10 मिनट।” मैंने कहा: ”आईजीपी राईटर साहब, मैं आपके नौ मिनट वापस दिलवाने के लिए जेल में आया हूं।” वो समझ गये मेरा आशय। उठकर चले गये।
इसी से मिलती—जुलती एक और घटना कार्यालय में हुई। एक बार मैं रात्रि ड्यूटी पर अकेला था। एक सज्जन आये। बोले,” एक प्रार्थना करने आया हूं। यह खबर न छपे तो आभारी रहूंगा।” चकित होकर मैंने इन अरबपति मिल मालिक से कहा: ” साहब, यहां लोग खबर प्रकाशित करवाने आते है। समाचार न छापने की बात अखबार के कार्यालय में मंदिर में पुजारी से गौहत्या जैसी की होगी। ”मैं ऐसा नहीं कर सकता।” फिर भी मैंने पूछा,” खबर है क्या?” वो बोले, ”मेरी इकलौती बेटी और मेरा ड्राइवर तीन दिन से दिखाई नहीं दे रहे हैं। यदि यह बात छप गई तो मेरा कुटुंब बरबाद हो जायेगा।” मैने इन सेठ जी,” टाइम्स के पाठकों का कोई सरोकार या रूचि नहीं है कि आपकी बेटी क्या करती है। मेरे रहते यह खबर नहीं छपेगी।”
उन्हें आश्चर्य हुआ। बोले: ”मैं आपके पास आया था तो आशंका थी उस समय कि एक श्रमिक पुरोधा मेरी बेटी की खबर को अवश्य छापना चाहेगा। मगर यह मेरा भ्रम निकला था” आज मेरी इकलौती पुत्री विनीता की निगाहों में मैं उसका आदर्श पिता हूं।

संतोष भरतीय : जी बिलकुल! आप के जमाने में जब आप रिपोर्ट कर रहे थे तो उसे दौरान पूर मीडिया का दृश्य क्या था? सब लोग एक ही तरह से रिपोर्ट कर रहे थे। या फिर रिपोर्ट को तोड़ मरोड़ कर के सत्ता के पक्ष में लिखने की कोशिश कर रहे थे। आप जैसे प्रो—पीपल जर्नालिज्म कर रहे थे। उस समय जर्नलिज्म का ओवर ऑल टोन क्या था?
के. विक्रम राव: नहीं, वो हमेश इतिहास में रहा है। पहले कइ लोग अंग्रेजो के भक्त रहे, कुछ अंग्रेजों के विरोधी रहे। आजादी के बाद भी यही रहा। पत्रकारिता बटी रही। मुझे शिकायत है, खासकर नेहरू के युग की। नेहरू के युग में कांग्रेस का जो महिमामंडन मीडिया करती रही, 16 साल तक। लोहिया का एक अक्षर भी नहीं छपता था। लोकनायक जयप्रकाश के ने काल दी रेलवे हड़ताल की, नहीं छपी।

संतोष भारतीय : आपने जितनी बातें कहीं, वह आपकी जिंदगी का बहुत छोटा हिस्सा है। क्योंकि इससे बहुत ज्यादा आपके संघर्ष और अनुभव को मैं जानता हूं। पर मुझे यह आपके मुंह से ही सुनना था। मैं आपसे एक आग्रह और करना चाहता हूं कि मैं आपकी यादें को लेकर एक प्रोग्राम में बुलाऊंगा क्योंकि आपके पास न केवल जॉर्ज साहब की यादें है, राजनारायण की भी यादें हैं, मधु लिमये जी की भी यादें हैं। ये लोगों के पास जाने चाहिए। के. विक्रम राव : एस.एम. जोशी, मृणाल गोरे।

K Vikram Rao
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