कौन नहीं जानता कि मतदान में क्या-क्या होता है, लेकिन आजकल जो हो रहा है, उसी को मानकर सोचने से काम कैसे चलेगा? सोचना यह चाहिए कि जब उम्मीदवार के चयन का तरीका नया सोचा गया, तो चुनाव लड़ने का तरीका भी नया सोचना चाहिए. अगर वह न हुआ, तो दलीय उम्मीदवार की जगह लोक उम्मीदवार से क्या फायदा?  
किस पद्धति से मतदान होगा?
उसी पद्धति से, जिसके द्वारा गांव-गांव की प्राथमिक इकाई से निर्वाचक मंडल के लिए प्रतिनिधि चुने गए थे.
मतलब यह कि जितने नाम आएंगे, उन पर बारी-बारी से मतदान होगा और हर बार सबसे कम वोट पाने वाला छंटता जाएगा?
हां, लेकिन जब दो नाम रह जाएं, तो मतदान बंद हो जाए.
दो नामों में अंतिम नाम कैसे तय होगा?
चिट्ठी डालकर.
यह तो किस्मत का खेल हो गया!
कुछ हिकमत, कुछ किस्मत, दोनों को मिलाकर काम होगा, तो शिकायत के लिए गुंजाइश नहीं रह जाएगी.
अगर निर्वाचक मंडल चाहे कि अंतिम दो नामों में भी वोट से ही निर्णय हो, तो क्या वह ऐसा कर सकता है?
क्यों नहीं? निर्णय उसे करना है. लोक उम्मीदवार के चयन के लिए उसे जो भी तरीका अच्छा मालूम हो, वह अपना सकता है. तरीका कोई हो, लेकिन इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि निर्वाचक मंडल में कटुता न पैदा हो और पूरा काम शांति एवं सद्भावना के वातावरण में हो, ताकि उम्मीदवार तय हो जाने के बाद गांव-गांव के मतदाता चुनाव के काम में उत्साह के साथ लग सकें.
चयन के बाद मतदान का काम जटिल है. चुनाव लड़ाई है. उसमें क्या-क्या होता है? चुनाव की लड़ाई लोक उम्मीदवार की ओर से कौन लड़ेगा, कौन खर्च देगा? आजकल तो बूथ कैप्चर होता है और न जाने क्या-क्या होता है?
कौन नहीं जानता कि मतदान में क्या-क्या होता है, लेकिन आजकल जो हो रहा है, उसी को मानकर सोचने से काम कैसे चलेगा? सोचना यह चाहिए कि जब उम्मीदवार के चयन का तरीका नया सोचा गया, तो चुनाव लड़ने का तरीका भी नया सोचना चाहिए. अगर वह न हुआ, तो दलीय उम्मीदवार की जगह लोक उम्मीदवार से क्या फायदा?
आज के वातावरण में लोक उम्मीदवार चुनाव की लड़ाई कैसे लड़ेगा?
अगर दलीय उम्मीदवार की लड़ाई दल लड़ता है, तो लोक उम्मीदवार की लड़ाई लोक को लड़नी पड़ेगी. लोक यानी मतदाताओं को. आपको अपना उम्मीदवार जिताने की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेनी पड़ेगी.
कैसे?
सोचिए, जिस उम्मीदवार को गांव-गांव के मतदाताओं के प्रतिनिधियों ने तय किया है, उसकी जड़ कितनी मजबूत होगी. इससे ज़्यादा मजबूत जड़ किस उम्मीदवार की हो सकती है?
फिर भी लड़ाई तो होगी ही, क्योंकि दूसरे उम्मीदवार भी होंगे, दल के हों या स्वतंत्र. क्या नहीं होंगे?
क्यों नहीं होंगे? लोक उम्मीदवार का यह अर्थ नहीं है कि दूसरे कोई उम्मीदवार नहीं हो सकते. चुनाव के नियम के अनुसार किसी को भी खड़ा होने से मना नहीं किया जा सकता.
तब लड़ाई से जान कैसे बचेगी?
लड़ाई तो होगी, स़िर्फ उसका ढंग नया होगा.
किन बातों में नया होगा? कौन सा ढंग नया अपनाया जाएगा?
लोक उम्मीदवार का चुनाव अभियान उम्मीदवार के चयन के बाद शुरू हो जाएगा यानी सरकार द्वारा मतदान की घोषणा के काफी पहले. निर्वाचक मंडल की बैठक से लौटकर प्रतिनिधि अपने-अपने गांव के मतदाताओं को बुलाकर बताएंगे कि निर्वाचक मंडल ने राम या श्याम नामक व्यक्ति को अपना उम्मीदवार तय किया है, इसलिए उसी को वोट देना है. इस तरह एक साथ क्षेत्र के हर गांव में यह ख़बर फैल जाएगी. निर्वाचक मंडल के सदस्य, जिन्होंने लोक उम्मीदवार का चयन किया है, उसे जिताने की कोई कोशिश बाकी नहीं रखेंगे. इसके अलावा तीन काम विशेष रूप से करने पड़ेंगे. (1) लोक उम्मीदवार निर्वाचन क्षेत्र के हर गांव में जाए और मतदाताओं से मिले. (2) क्षेत्र में चार-छह जगह बड़ी सभाएं की जाएं और लोक उम्मीदवार का नया विचार अच्छी तरह समझाया जाए. इसके लिए पर्चे, फोल्डर आदि भी छपवा लिए जाएं. (3) चुनाव के दिन अधिक से अधिक मतदान कराया जाए और बूथ कैप्चर आदि की गुंजाइश न रहने दी जाए.
कठिन काम है यह, कैसे होगा? खर्च भी लगेगा, रुपया कहां से आएगा?
मेहनत तो करनी ही पड़ेगी. लड़ाई है, तो लड़नी पड़ेगी. जो खर्च लगेगा, उसके लिए धन जनता से मांगकर जुटाना पड़ेगा. लेकिन यह जान लीजिए कि खर्च आज जितना लगता है, उससे बहुत कम लगेगा, बल्कि नहीं के बराबर लगेगा. लोक उम्मीदवार लोकतंत्र में एक नया प्रयोग है. इस प्रयोग में रुचि रखने वाले साथी इतना मानकर घर नहीं बैठ सकते कि उम्मीदवार का चयन हो, तो चुनाव लड़ना उम्मीदवार का काम है, हारे या जीते. ऐसा सोचना बहुत बड़ी भूल होगी. तब तो यही मानना पड़ेगा कि लोक उम्मीदवार के प्रयोग का महत्व लोगों ने समझा ही नहीं. जिन चार सौ लोगों ने निर्वाचक मंडल में बैठकर लोक उम्मीदवार का चयन किया, उनके ऊपर बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी होगी. उनका काम होगा कि वे हर मतदान केंद्र, बल्कि हर बूथ के लिए कार्यकर्ताओं की टोलियां बनाएं, गांव-गांव में गोष्ठी करें, जगह-जगह सभाएं करें और मतदाताओं में यह भावना पैदा करें कि लोक उम्मीदवार का चुनाव आज की गंदी, स्वार्थी राजनीति से मुक्ति का एक मोर्चा है. इस मोर्चे पर जीत उम्मीदवार से अधिक स्वयं मतदाताओं की जीत है, इसलिए मतदाताओं का कर्तव्य है कि वे अपने उम्मीदवारों को जिताएं. वे समझें कि चुनाव की यह लड़ाई उनके अधिकार की लड़ाई है. प
 

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