होगा कोई ऐसा भी जो ‘ग़ालिब’ को ना जाने
शायर तो वो अच्छा है पर बदनाम बहुत है

मुझसे एक युवा शायर मित्र ने पूछा कि ये समकालीन कविता वाले अक्सर मिलनसार क्यों नहीं होते।ये हमेशा अकड़े अकड़े और श्रेष्ठताबोध में ही क्यों रहते हैं।सवाल सुनकर मैं चौंक गया था।आखिर मैं भी समकालीन कविता के इलाके का अदना सा सिखाड़ी हूँ। कहीं मुझे भी लोग अकड़वान तो नहीं मानते।अब सामने ही तो कह रहे हैं और मैं भी सच में इतना सहज सरल तो सभी के लिए नहीं।

उसके दुश्मन हैं बहुत आदमी अच्छा होगा
वो भी मेरी ही तरह शहर में तन्हा होगा।
-निदा फाज़ली

दरअस्ल स्वभाव पर फैसला देना एक सापेक्ष कार्यवाही होती है।कवि ही क्या हर व्यक्ति सभी के साथ सहज नहीं होता,हर व्यक्ति अपना सौ प्रतिशत सभी के सामने नहीं खोलता।वरिष्ठ और श्रेष्ठ कवि मित्रों की सूची में मेरे पास ऐसे भी कवि हैं जो प्रसिद्ध तो मिलनसार के लिए हैं लेकिन उन्हें भी एक चतुर दुराव करना आता है,दूसरी तरफ ऐसे भी जो अग्रज कवि हैं जिनकी ख्याति अकड़ कवि की है और वे मुझे आत्मीय वार्ता की फुहार देते हैं।

कवि या लेखक अक्सर अपने वैचारिक जाल में और प्रीकाशन प्रकाशन के जंजाल में ऐसे फंसे होते हैं कि हर क्षण नमन मुद्रा में नहीं हो पाते।हर क्षण मिलाने वाला हाथ आगे नहीं बढ़ा पाते।वैसे तो अकेले साहित्यकार की तरफ अंगुली करके ऐसा आरोप या अपेक्षा उचित नहीं।और भी तो कार हैं जो सहकार के लिए निराकार या साकार रूप से आगे नहीं बढ़ते।और भी लोग होते हैं जो हंसमुख या मिलनसार नहीं हो पाते।यह सब इसलिए होता है क्योंकि वे मनुष्य हैं।मनुष्य मात्र होना ही सबका एक जैसा नहीं होने का सबब होता है।गोया सभी का मनोमष्तिष्क अलग अलग उलझनों,और राग विराग में मुब्तला रहता है।इस सबके बावजूद जो जनता से जुड़े सामाजिक चेहरे हैं उनसे हंसमुख,सहकारी और मिलनसार होने की अपेक्षा की ही जाती है।किसी हद तक यह लाजिमी भी है।

अभी जब एक अदृश्य विषाणु ने शैतानी उत्पात मचा रखा है।तब सभी के पास निजता के नाम पर एक कम से कम समय की कमी तो नहीं रही।तब चिंता,दुस्वप्न,हताशा और आशंकाओं ने सभी को इतना संवेदित तो किया ही कि अपने परिचित,घनिष्ठ और अल्पपरिचित की एक बारगी तो याद आई होगी।मगर फिर भी हम साहित्यकारों ने केवल ओनलाइन कविता पाठ का मजमा जमाया।उन्हें नहीं पता उनके एक प्रेमिल संवाद फोन से सुनने के लिए उनके कुछ घनिष्ठ मित्र इंतज़ार ही करते रहे।संवादहीनता की यह रिक्तता साहित्यिक मूल्यों के स्थान पर बैठती जा रही है और साहित्यकार हैं कि सामने मौजूद मित्र से बातें नहीं करके अदृश्य पाठक को अपना माल सौंपने की तैयारी में लगे हैं।

कभी कभी मुझे लगता है कि सच में हमें अपने असली कद्रदानों की,स्नेहीजनों की और दोस्तों की अपेक्षाओं का खयाल रखना चाहिए।यह नुकसान का सौदा क़तई नहीं है।
ऐसा न हो कि

पड़िये गर बीमार तो कोई न हो तीमारदार
और अगर मर जायें तो, नोहाख़्वाँ कोई न हो।

ब्रज श्रीवास्तव

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