किसी भी समाज में होने वाले आंदोलन उस समाज की जीवन्तता का प्रतीक होते हैं और इस लिहाज से देखें तो दिल्ली की सीमाओं पर जारी किसान आंदोलन, अपने तमाम सवालों के अलावा कृषि-क्षेत्र की जिन्दादिली का प्रतीक भी है। प्रस्‍तुत है, इस महत्वपूर्ण नजरिए पर अनिल त्रिवेदी का यह लेख।

जीवन गतिहीन, निस्तेज जड़ता न होकर नित नये प्रवाह की तरह निरन्तर गतिशील तेजस्विता का पर्याय है। किसी सरकार का आना-जाना, बनना-बिगड़ना महज एक घटना है। प्राय: सरकारें लकीर-की-फकीर होती हैं, पर जन-आन्दोलन हर बार सृजनात्मक परिवर्तन की नयी-नयी लकीरें खींचना चाहता है। हर आन्दोलन का मूल विचार एकदम सफल ही हो यह आवश्यक नहीं, पर हर आन्दोलन में एक सपने को साकार करने की संभावना जरूर छिपी होती है। जीवन एक वैचारिक आन्दोलन है तभी तो वह सतत, नित नये प्रयोगों के विचारों से प्रवाहमान होता रहता है। सरकारें कई रूप रंगों की होती हैं, पर आन्दोलन का एक ही रूप और रंग होता है। जीवन के सवालों को बिना डरे, पूरी मानवीय ताकत से उठाना और समाधान तलाशते रहना।

दुनिया में जब तक जीवन है तब तक आन्दोलन होते रहेंगे। जिस दिन जीवन ही जड़ हो जाये या अचेतन में चला जायगा तो आन्दोलन मंद हो जायेगा, पर खत्म नहीं होगा। आन्दोलन एक तरह से गतिशील जीवन की जीवनी-शक्ति है या जीवन की सनातन विरासत है। आवाम, जनता या लोग कभी आन्दोलन से नहीं घबराते। आवाम की जीवनी-शक्ति से हर रूप-रंग की सरकार की संवेदनशीलता बढ़नी चाहिये, पर कोई भी सरकार न तो आन्दोलन का स्वागत करती है और न ही खुद होकर आगे बढ़कर संवाद प्रारम्भ करती है। उत्तरदायी सरकारें भी आन्दोलन के सवालों को लेकर पता नहीं क्यों लगभग हमेशा अनुत्तरदायी या अनमनी ही बनी रहती हैं। अपने ही लोगों से खुलेमन से संवाद में हिचकिचाहट क्यों होनी चाहिए?

आन्दोलनों को लेकर सरकारों का अनमनापन सरकारों के कामकाज करने की मूल दृष्टिहीनता को ही उजागर करता है। सरकारें आन्दोलनों को कुचलने के बजाय उन्हें जनमानस के असंतोष या विचारों को देखने-समझने का अवसर मानें तो देश और दुनिया की सरकारें ज्यादा असरकारी रूप में अपना कामकाज कर पायेंगी। जिस दृष्टि से समस्याओं को सरकारें देख समझ नहीं पातीं, वह दृष्टि और समझ आन्दोलनों से खुले संवाद से अनायास ही मिल सकती है। आन्दोलन जनमानस में उठ रहे सवालों को समझने का खुला अवसर है। यह देश और दुनिया की सरकारों को समझ नहीं आता और सरकारें आन्दोलन को खत्म करने या कुचलने के तौर-तरीकों में उलझकर समस्या के समाधान के बजाय अपने देश के लोगों से ही घमासान में अपनी ताकत झोंक देती हैं। दुनिया में लोगों ने सरकारों को जन्म ही जन-समस्याओं के सहज और निरन्तर समाधान के लिये दिया है, न कि जनमानस की अनसुनी कर निरन्तर अपने ही नागरिकों से अकारण घमासान करते रहने के लिये।

शायद दुनिया में लोकमानस की सतत रखवाली करने वाली ऐसी सरकार कभी भी नहीं आयेगी जो आन्दोलन की राह को लोकमानस में जन्मने ही न दे। इसका मूल कारण सरकार का महज एक घटना होना है। घटना घटती रहती है, पर हर समय सरकार जीवन्त, गतिशील और प्रवाहमय नहीं हो सकती। सरकारों की यही वैचारिक जड़ता आन्दोलनों की असली तासीर को समझे बिना अपनी सरकारी ठसक में मगन रहती है। खेती-किसानी जीवन की निरन्तरता को बनाये रखने वाला बुनियादी प्राकृतिक काम है।

विधि-विधान बनाने का विधायी कामकाज संसद और विधायिका का सामान्य कामकाज है, पर इन दिनों भारत के लोकतंत्र में सवाल उठाने वाली जमातें प्राय: मौन हो चली हैं और मौन रहने वाली जमातें बुनियादी सवाल बुलन्दी से उठा रही हैं। जब संसद मौन हो जाती है तो सड़कें बोलने लगती हैं। सड़कों पर आवाज बुलन्द होने का अर्थ ही है कि संसद बहस, चर्चा, विचार-विमर्श के बजाय चुप हो गयी है। संसद में बहस न हो तो विधायी कार्य यंत्रवत जड़ता में बदल जाते हैं। जीवन्त और समग्रता से निर्भीक बहस ही संसदीय प्रणाली की जान है। सड़कों पर उठे लोगों के सवाल लोकतंत्र को निखारते हैं।

सड़क महज आवागमन का जड़ साधन नहीं, लोगों की आवाज उठाने वाला प्रभावी औजार है। आवाज़ उठाते लोग व्यवस्था को निरन्तर सतर्क और चाकचौबन्द बनाये रखने में मदद करते हैं। जब आवाम सड़क पर आती है तो देश-दुनिया की सारी सरकारें कहने लगती हैं – ‘लोगों को आवागमन में परेशानी हो रही हैं।‘ सरकारें लोकजीवन की परेशानी को निरन्तर समझने और सुलझाने में रूचि नहीं लेतीं। जब लोगों के पास कहीं सुनवाई का कोई रास्ता नहीं बचता तो वे मजबूर होकर सड़क पर आते हैं और सरकारों को अपने मूलदायित्व से भटकने से बचाते हैं। तभी तो भारत के संविधान में शांतिपूर्ण तरीके से लोगों को एकत्रित होकर अपनी बात अभिव्यक्त करने का मूल अधिकार दिया गया है।

आजादी के आन्दोलन में चंपारण के किसानों ने बुनियादी सवाल उठाया था। आज आजाद और लोकतांत्रिक भारत के किसान भी बुनियादी सवाल उठा रहे हैं। भारत की खेती-किसानी का बुनियादी ढांचा कैसा होगा? किसान स्वयं अपना मालिक होगा या बाजार का एक अदना मोहरा? बाजार का राज चलेगा या खेती-किसानी में स्वराज रहेगा? मंडी या खेती-किसानी या उपज के न्यूनतम मूल्य, क्रय-विक्रय और भंडारण से संबन्धित तीनों कानून को जिस तरह से वर्तमान संसद और सरकार ने पारित किया, उस तरीके ने सोती हुई जनता को जगा दिया। आम तौर पर चुप रहने वाली खेतिहर जमातें जिस तेजस्विता और तेवर से सवाल उठा रही हैं उससे समूचे देश में यह खुला संदेश गया है कि हमारे लोकतंत्र का तंत्र भले ही जड़ हो गया हो, पर लोक तो चैतन्य है।

सरकार जब यह मानने लगती है कि हम तो सरकार हैं, हम जो करेंगे उसे सब मानेंगे ही, तो सरकार असरकारी नहीं रह पाती। वही सरकार असरकारी हो सकती है जो सबको साथी-सहयोगी माने, किसी से न तो कुछ छिपाये और न ही किसी को डराये। अच्छे कानून वे होते हैं जो आम जनता को अपने आप समझ आ जाएं, अभियान चला कर समझाना न पड़े। जैसे सूरज उगता है तो उजाला अपने आप आ जाता है, वैसे ही कानून को बनाने का तरीका भी हर देशवासी के मन को शंका से परे, हर बार खुला और पारदर्शी रहना ही चाहिए। चुनी हुई सरकारें भी गलती से परे नहीं हैं। संसद भी गलती से परे नहीं है। लोकतंत्र का मतलब ही है कि हम सब अपनी जानी-अनजानी गलतियों से निरन्तर अवगत होते रहें और अपने निर्णयों व व्यवहार में हुई गलतियों को स्वीकार कर सुधारते रहे। लोकतंत्र सतत चलने वाली वह लोक-व्यवस्था है जिसमें हम मिल-जुलकर खुले मन से एक दूसरे से सीखते-सिखाते हैं।

भारत में खेती किसानी एक जीवनपद्धति है। लाभ-हानि का व्यापार नहीं। भारतीय खेती-किसानी यंत्रवत उत्पादन और वितरण का व्यवहार न होकर जीवन की सनातन सभ्यता है। सभ्यता की जीवनी-शक्ति ही भारतीय खेती-किसानी की मूल ताकत है। भारत का किसान जानता-समझता है कि खेती-किसानी का कुदरती तरीका क्या है। किसानी करने वाले लोग वेतनभोगी कामकाज करने वाली यंत्रवत जमातें न होकर अपनी समझ, साधन, सहयोग से अपनी रोटी ही नहीं,  दुनिया-जहान की रोटी पैदा करने में लगे हुए हैं। वह एक विकेन्द्रित जीवन्त बिरादरी है, जो केवल खुद की ही नहीं प्राणीमात्र की खुराक पैदा करने में अपना सब कुछ लुटाती आयी है। यही आज के भारत में चल रहे किसान आन्दोलन की जीवनी-शक्ति और हम सबके जीवन का खुला सवाल है जिसका हल हमें हिल-मिलकर खोजना ही होगा। हिल-मिलकर जीना और सबको समझना-समझाना, यही आन्दोलनकारी जीवन का सरल, सहज अर्थ है।

अनिल त्रिवेदी

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