बैगा आदिम जनजाति प्रकृति की सबसे निकट समुदाय में से एक है. वह बेवर खेती पद्धति के द्वारा अन्न उत्पादन करते रहे हैं, जिसे पर्यावरण के तथाकथित हितचिंतक वन का विनाश मानते हैं और इस पर रोक लगाने की बात करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप बैगाओं की नई पीढ़ी में बेवर खेती पद्धति के प्रति नकारात्मक रुझान बनता जा रहा है और वह आधुनिक कृषि से जुड़ी हाइब्रिड जी.एम. आदि की ओर आकर्षित हो रहे हैं. बैगा अपनी बेवर पद्धति की खेती में एक साथ कई बीज बोते थे.
डिन्डोरी मध्य प्रदेश का वह जिला है, जहां की समस्याओं के समाधान के लिए राज्य के अधिकारी अपना सिर नहीं खपाने की जहमत नहीं उठाना चाहते. राजनीतिक नेतृत्व के पास अपनी समस्याएं हैं. अब भला बच्चों का स्वास्थ्य, टीकाकरण, माताओं की प्रसूति सेवा से संबंधित समस्या भला वोट बैंक कैसे बन सकती हैं?
बैगा जनजाति वह आदिम जनजाति है, जो ब्रिटिश शासन काल के प्रारंभ से पहाड़ों के ऊपर वनों में अपनी आदिम जीवन पद्धति के साथ निवास करती थी, जिन्हें शासन ने पहाड़ से नीचे लाकर ग्रामों में बसाया. इस प्रक्रिया के साथ ही उनकी समग्र पोषण व स्वास्थ्य ज्ञान परंपरा का क्षय प्रारंभ हो गया. इस प्रकार बैगा, जिसका शाब्दिक अर्थ ही प्रकृति की शक्तियों का उपयोग कर इलाज करने वाला होता है और जो वास्तव में जड़ी-बूटी से स्वास्थ्य संरक्षण का विशारद थे, वही आज परम्परागत ज्ञान से वंचित हो गए हैं.
बैगा आदिम जनजाति प्रकृति की सबसे निकट समुदाय में से एक है. वह बेवर खेती पद्धति के द्वारा अन्न उत्पादन करते रहे हैं, जिसे पर्यावरण के तथाकथित हितचिंतक वन का विनाश मानते हैं और इस पर रोक लगाने की बात करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप बैगाओं की नई पीढ़ी में बेवर खेती पद्धति के प्रति नकारात्मक रुझान बनता जा रहा है और वह आधुनिक कृषि से जुड़ी हाइब्रिड जी.एम. आदि की ओर आकर्षित हो रहे हैं. बैगा अपनी बेवर पद्धति की खेती में एक साथ कई बीज बोते थे. इससे कम वर्षा होने पर ज्यादा पानी वाली फसलें तो मर जाती, लेकिन कम पानी वाली फसलें जीवित रह जाती हैं. इस प्रकार हमेशा खाद्य उत्पादन श्रृंखला बनी रहती है. बैगा कोदो, कुटकी, समां उगाते रहे हैं. कोदो, कुटकी खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से सर्वाधिक विश्वसनीय खाद्य पदार्थ है. उन्हें उत्पादन पश्चात एक बार मिट्टी की कोठी में भंडारित करने के बाद वर्षों तक सुरक्षित किया जा सकता है. ऐसे कई उदाहरण देखने को मिलते हैं, जब 40 से 50 वर्ष पश्चात खाद्य भंडारों के खोलने पर कोदो या कुटकी का संग्रहित भंडार उत्तम खाने योग्य अवस्था में प्राप्त हुआ है. इसके अतिरिक्त बैगा परम्परागत रूप से कई तरह के फल-फूल, कन्द-छाल व पत्तियां, कई तरह की भाजी, पीहरी (मशरूम), ज्वार, मक्का से अपनी खाद्य आवश्यकता की पूर्ति के लिए करते रहे हैं, लेकिन डिन्डोरी, मंडला, कर्वधा और बिलासपुर के मध्य अमरकंटक, रायपुर और जबलपुर इन उत्पादों के बड़े बाजार बन गए हैं. यहीं से बाजार व्यवस्था से उनके शोषण की श्रृंखला का अनचाहा विकास हुआ है. अंधाधुंध दोहन व शोषण से इस संपदा का लगभग विनाश हो गया. उदाहरण के लिए बैगा को वनों में 12 से अधिक किस्म के कन्द मिलते थे. यह कन्द आवश्यकता पड़ने पर जंगल से खोदे जाते और इससे पूरे समूह का पेट भर जाता था. इनमें कनिहाकांदा 10 से 15 किलो तक का होता था. अब उन्हे खोजने पर भी प्राप्त करना कठिन हो रहा है. अत्यधिक दोहन से कई बीज ही खत्म हो गए हैं. इसलिए यदि कोई चाहे भी तो इसके पुनर्उत्पादन प्रक्रिया को चलाया जाना कठिन है. इसलिए आवश्यकता सामुदायिक बीज बैंक बनाने की है, जहां असानी से बैगा को परम्परागत बीज उपलब्ध हो सके. आज आवश्यकता बेवर खेती के फायदे, पारम्परिक बीजों के गुण, उनका स्वास्थ्य पर प्रभाव, सामाजिक-आर्थिक महत्व पर सामाजिक शिक्षण कार्यक्रम चलाकर पारम्परिक, मिश्रित और प्राकृतिक रूप से बेवर कृषि प्रणाली को पुन: उपयोग में लाने की जरूरत है, जिससे बैगा की परम्परागत खाद्य सुरक्षा को निरंतर रखा जा सके.
डिन्डोरी जिले के करंजिया व बजाग विकासखंड के 52 गांव, जहां बैगा जाति सर्वाधिक सघन रूप से निवास करती हैं, उन गांवों को सम्मिलित रूप से बैगा चक कहा जाता है. वहां स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि करंजिया विकासखंड के बैगा चक स्थित बहारपुर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में आज भी किसी चिकित्सक की नियुक्ति नहीं है. एक चतुर्थ श्रेणी के स्वास्थ्य कर्मचारी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र संचालित कर रहे हैं. आधारभूत सुविधा के नाम पर यहां फोन, एम्बुलेंस, जननी एक्सप्रेस सेवा जैसी कोई भी सुविधा नहीं है. समस्याएं तब और भी गंभीर हो जाती हैं, जब प्रशासन द्वारा लक्ष्य प्राप्ति के लिए जंगल के अन्दर की बैगा महिलाओं को संस्थागत प्रसव के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में लाया जाता है, जहां कोई सुविधा ही नहीं है और जब मामला बिगड़ जाता है, तो उन्हें सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र करंजिया भेज दिया जाता है. वहां भी कोई महिला चिकित्सक न होने के कारण उसे पुन: जिला चिकित्सालय डिन्डोरी रेफर कर दिया जाता है.
दो वर्ष पूर्व एक ही माह में ग्राम खारिदिह में रम्मू बैगा की पत्नी और गर्भस्थ शिशु मारे गए. इसके बाद एक दूसरी घटना के दौरान पवन की पत्नी और गर्भस्थ शिशु यानी जच्चा और बच्चा दोनों ही मारे गए. यह सिलसिला निरंतर जारी है. जून 2013 में कुंवर सिंह ने अपने शिशु को खोया, तो वहीं जुलाई में कौशल्या बाई अपने शिशु को जन्म देने के बाद उसका चेहरा भी नहीं देख पाई. यह सब कुछ हुआ संस्थागत प्रसव के लक्ष्य पूर्ति हेतु किए गए गैरनियोजित व अनियमित प्रयासों के परिणामस्वरूप. टीकाकरण की नियमितता व प्रभावशीलता को इस तरह समझा जा सकता है कि चौरादादर स्थित उप स्वास्थ्य केंद्र सड़क मार्ग से 27 से 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. वहां बारिश के समय किसी भी तरह पहुंचना कठिन और असंभव है. उप स्वास्थ्य केंद्र में कोई फ्रीज व्यवस्था नहीं है, फिर भी टीकाकरण नियमित हो रहा है. यहां की कोल्ड चौन कैसे चलती है, यह रहस्य का विषय है.
बैगा अपनी परम्परागत जड़ी-बूटी के ज्ञान में ही अपने बच्चों की स्वास्थ्य सुरक्षा देखते हैं, लेकिन अब स्थिति यह है कि उनकी परम्परागत पद्धति हाथ से छूट ही गई है और सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का हाल बहुत ही जर्जर है. ऐसे में बैगा समुदाय के सामने यह सवाल मुंह बाए खड़ा है कि अपने स्वास्थ्य संबंधी सेवाओं के लिए वे कहां जाएं?