एक समय था, जब वामपंथ का संगठनात्मक ढांचा तक़रीबन पूरे देश में मौजूद था, लेकिन 1990 के दशक की राजनीतिक परिस्थितियों और खुद वामपंथी पार्टियों की अल्पकालिक राजनीतिक फ़ायदा लेने की चाह ने इस ढांचे को तहस-नहस कर दिया. लिहाज़ा वामपंथी राजनीति अपने मज़बूत गढ़ पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में सिमट कर रह गई. हालांकि केरल और त्रिपुरा में अभी भी यह पहले की स्थिति में दिख रही है, लेकिन पश्चिम बंगाल में 2012 के विधानसभा चुनाव में वाम मोर्चे को तृणमूल कांग्रेस के हाथों मिली करारी हार के चलते जो झटका लगा था, उसके प्रभाव से यह अब तक नहीं उबर पाई है. पश्चिम बंगाल वह प्रदेश है, जिसे वामपंथ का गढ़ माना जाता था और खुद वामपंथी पश्चिम बंगाल की सफलता, खासकर यहां के भूमि सुधार को अपनी सबसे बड़ी राजनीतिक उपलब्धि मानते थे. लेकिन, वर्तमान में एक के बाद एक चुनावों में हार से ऐसा लगता है कि पश्चिम बंगाल की राजनीति के पनघट की डगर वाम दलों के लिए दिन-प्रतिदिन मुश्किल से मुश्किल होती जा रही है.
हाल में संपन्न हुए दो विधानसभा सीटों के उपचुनाव में एक सीट पर तृणमूल कांग्रेस ने क़ब्ज़ा जमाया और दूसरी सीट भाजपा उम्मीदवार के हाथ लगी, लेकिन हैरानी की बात यह थी कि कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) के दोनों उम्मीदवारों की ज़मानतें ज़ब्त हो गईं. आख़िर इस पतन का कारण क्या है? जिस प्रदेश में वाममोर्चा 34 वर्षों तक सत्ता पर काबिज़ रहा, सत्ता से हटने के बाद उसकी ऐसी दयनीय स्थिति क्यों हो गई? और जो सबसे महत्वपूर्ण सवाल है, वह यह है कि क्या वामपंथ एक बार फिर इस प्रदेश में अपनी स्थिति मज़बूत कर पाएगा? अगर यह कहा जाए कि पूरे देश में तेज़ी से अपना आधार खो रहे वामपंथी दलों के ताबूत में पश्चिम बंगाल के 2012 के विधानसभा चुनाव के नतीजे आख़िरी कील साबित हुए, तो ग़लत नहीं होगा. पश्चिम बंगाल में हो रही लगातार हार और वोट प्रतिशत में गिरावट से ऐसा लगता है कि वामपंथियों ने अपनी पिछली ग़लतियों से सबक सीख कर 1990 के बाद पैदा होने वाली राजनीतिक परिस्थितियों के अनुरूप खुद को नहीं ढाला. और अब भी वे अपनी डफली-अपना राग अलापने में लगे हुए हैं.
वाममोर्चे की सबसे बड़ी पार्टी सीपीआई (एम) की ग़लतियों से न स़िर्फ उसके समर्थक उससे अलग होते जा रहे हैं, बल्कि समर्पित काडर भी उसकी नीतियों से उदासीन होता जा रहा है. कांग्रेस का सैद्धांतिक रूप से विरोध करने वाली इस पार्टी ने भाजपा को रोकने के नाम पर पहले कांग्रेस का समर्थन किया, फिर महंगाई के नाम पर समर्थन वापस ले लिया. उसके बाद पार्टी के आम कार्यकर्ताओं के विरोध के बावजूद राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी के पक्ष में वोट किया. जिसने भी विरोध दर्ज कराने का दुस्साहस किया, उसे पार्टी से निष्कासित कर दिया गया. ज़ाहिर है, अपनी इन ग़लतियों से सीपीएम ने कोई सबक नहीं सीखा. इसीलिए वह एक बार असफल रह चुके तीसरे मोर्चे को फिर से ज़िंदा करने की कोशिश में लग गई है.
पश्चिम बंगाल में वामपंथी दलों के पतन की एक वजह तृणमूल कांग्रेस का राज्य की सत्ता पर काबिज़ होना भी है. चूंकि तृणमूल कांग्रेस और वाम कार्यकर्ताओं का मतभेद अक्सर हिंसात्मक रूप ले लेता था. जब तक वामपंथियों की सरकार रही, उनके समर्थक तृणमूल समर्थकों पर भारी रहे, लेकिन जैसे ही तृणमूल कांग्रेस की सरकार आई, सीपीएम कार्यकर्ताओं एवं समर्थकों पर हमले होने लगे. इन हमलों से बचने के लिए और कुछ केंद्रीय नेतृत्व के अड़ियल रवैये की वजह से वे भाजपा की तरफ़ जाने लगे हैं. हालिया उपचुनाव में भाजपा की जीत को इसी नज़र से देखा जाना चाहिए. पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के उदय की कहानी भी अनोखी है. तृणमूल कांग्रेस ने अजेय लगने वाले वाममोर्चे को उसी की रणनीति अपनाते हुए पराजित किया. बुद्धदेव भट्टाचार्य की अगुवाई वाली सीपीएम सरकार ने जब खुद को मौजूदा राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था के अनुरूप ढालने की कोशिश की, तो जैसे उन्होंने अपने ही गोल पोस्ट में गोल दाग दिया. तृणमूल को उन्होंने सिंगुर और नंदीग्राम भूमि अधिग्रहण के रूप में ऐसा मुद्दा दे दिया, जिसके आधार पर तृणमूल कांग्रेस ने 34 सालों से सत्ता पर काबिज़ वाममोर्चे को हरा दिया.
ऐसा नहीं है कि सत्ता में आने के बाद तृणमूल सरकार ने कोई ग़लती नहीं की, लेकिन उन गलतियों का वाममोर्चे ने फ़ायदा नहीं उठाया. ममता बनर्जी के शासनकाल में हिंसा में वृद्धि हुई, भ्रष्टाचार के कई मामले और आम लोगों के अधिकारों के हनन जैसे मुद्दे सामने आए, लेकिन वामदल लोकसभा चुनाव में उसका फ़ायदा नहीं उठा सके और महज़ दो सीटों पर सिमट कर रह गए. वहीं दूसरी तरफ़ केरल में जिस तरह के हालात पैदा हो रहे हैं और आम चुनाव में वहां लोकसभा की कुछ सीटों पर भाजपा ने जिस तरह से प्रदर्शन किया, उससे वहां भी भविष्य में पश्चिम बंगाल जैसी कोई तस्वीर आकार ले सकती है. अब सवाल यह उठता है कि वामपंथ को इस पतन से बचने के लिए क्या करना चाहिए? सबसे पहले तो उसे अपना संगठन लोकतांत्रिक बनाना चाहिए, अपनी औद्योगिक नीति में सुधार करना चाहिए, नंदीग्राम एवं सिंगुर जैसी गलती दोहराने से बचना चाहिए. इसके अलावा, ज़मीनी सतह पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं, जो पार्टी की नीतियों की वजह से उदासीन हो गए हैं, को फिर से सक्रिय बनाने का प्रयास करना चाहिए. यही नहीं, केंद्रीय नेतृत्व को जोड़-तोड़ की राजनीति छोड़कर अपने-अपने दलों के बुनियादी ढांचे को मज़बूत बनाने का प्रयास करना चाहिए.
क्या भारत में वामपंथी राजनीति ख़त्म हो जाएगी?
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