देश ने नरेंद्र मोदी को स्वीकार किया, लेकिन अगर भाजपा के पास राज्यों में नेता नहीं हैं या पार्टी का कामकाज ठीक नहीं है, तो मोदी के नाम पर चुनाव नहीं जीता जा सकता. राज्यों के चुनाव में नेता प्रोजेक्ट न करने की रणनीति पर भाजपा को नए सिरे से विचार करना होगा. मोदी का नाम राज्यों में चुनाव नहीं जिता पाएगा. उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण की कोशिश पिट गई है, तो राजस्थान में वसुंधरा सरकार की अक्षमता ने भाजपा को हराया. लोकसभा में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा जीत गई, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि वह जिसे नेता बनाएंगे, उसे लोग स्वीकार कर लेंगे.
delhielections630-aलोकसभा की तीन और विधानसभा की 33 सीटों के नतीजे भाजपा के लिए बहुत अच्छे नहीं कहे जा सकते हैं. स़िर्फ चार महीने पहले भाजपा ने जिस तरह पूरे देश भर में जीत दर्ज की थी, उससे लगा था कि अब भाजपा को हराना किसी के लिए भी मुश्किल होगा. लेकिन पिछले एक से दो महीने के भीतर ही उत्तराखंड से लेकर बिहार और फिर उत्तर प्रदेश, गुजरात, राजस्थान में पार्टी को
उपचुनावों में हार का सामना करना पड़ा है. इससे यह तो नहीं कह सकते कि भाजपा के लिए बुरे दिन आ गए, लेकिन इतना तय है कि इस हार से पार्टी को सबक लेने की ज़रूरत है. 16 सितंबर को आए परिणामों की बात करें, तो भाजपा अपनी ही 24 में से 13 विधानसभा सीटें हार गई. ग़ौरतलब है कि ये उपचुनाव नौ राज्यों की 33 विधानसभा सीटों पर हुए थे. भौगोलिक दृष्टि से देखें, तो ये उपचुनाव एक तरह से लघु राष्ट्रीय चुनाव थे. इन 33 सीटों में से भाजपा ने 12, समाजवादी पार्टी ने 08 और कांग्रेस ने 07 सीटों पर कब्जा जमाया, वहीं तृणमूल कांग्रेस, टीडीपी, एआईयूडीएफ और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) को एक-एक सीट मिली. सिक्किम में एक सीट निर्दलीय ने जीती.
राजस्थान की ओर रुख करें, तो क़रीब दस महीने पहले भाजपा को यहां भारी बहुमत हासिल हुआ था. भाजपा को विधानसभा चुनाव में 200 में से 163 सीटें मिली थीं. लोकसभा चुनाव में तो भाजपा ने सभी 25 की 25 सीटों पर ऐतिहासिक जीत हासिल की थी. लेकिन दस महीने बाद ऐसा क्या हुआ कि भाजपा को यहां की चार विधानसभा सीटों में से तीन पर हार का सामना करना पड़ा. जाहिर तौर पर राजस्थान में भाजपा का प्रदर्शन काफी खराब रहा. भाजपा को केवल एक सीट मिली. कोटा (दक्षिण) सीट पर भाजपा के संदीप शर्मा ने 25,707 वोट पाकर जीत हासिल की, जबकि सूरजगढ़, नसीराबाद और वैर (सुरक्षित) यानी तीन सीटें कांग्रेस ने भाजपा से छीन लीं. राजस्थान में कांग्रेस की इस जीत का सेहरा सचिन पायलट के सिर बंधा है, तो वहीं भाजपा की हार के लिए वसुंधरा राजे सरकार और संगठन को ज़िम्मेदार माना जाना चाहिए. बाहरी तौर पर राजस्थान के परिणाम को लेकर भाजपा के भीतर किसी को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा रहा है, लेकिन कहीं न कहीं ये परिणाम भाजपा के लिए चिंता पैदा करने वाले हैं.
विधानसभा उपचुनाव के परिणाम

  • उत्तर प्रदेश: सपा-08, भाजपा-03
  • गुजरात: भाजपा-06, कांग्रेस-03
  • राजस्थान: कांग्रेस-03, भाजपा-01
  • पश्‍चिम बंगाल: तृणमूल कांग्रेस-01, भाजपा-01
  • असम: एआईयूडीएफ-01, भाजपा-01, कांग्रेस-01
  • सिक्किम: निर्दलीय-01
  • आंध्र प्रदेश: टीडीपी-01
  • त्रिपुरा: सीपीएम-01
  • लोकसभा उपचुनाव परिणाम
  • वडोदरा (गुजरात)-भाजपा
  • मैनपुरी (उत्तर प्रदेश)-समाजवादी पार्टी
  • मेडक (तेलंगाना)-टीआरएस

दूसरी तरफ़ गुजरात की नौ सीटों में से छह पर भाजपा ने जीत हासिल की, वहीं तीन सीटों पर कांग्रेस को कामयाबी मिली. इसमें सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि कांग्रेस ने जिन सीटों पर जीत दर्ज की, वे सभी भाजपा की थीं. निश्‍चित तौर पर राजस्थान एवं गुजरात के चुनाव परिणाम भाजपा के लिए सबसे बड़ा झटका और कांग्रेस के लिए बड़ी उपलब्धि हैं, क्योंकि इन दोनों राज्यों से लोकसभा चुनाव में भाजपा को सारी सीटें मिली थीं. राजस्थान और गुजरात में मिली जीत ने कोमा की हालत तक पहुंच चुकी कांग्रेस के लिए संजीवनी का काम किया है. उत्तर प्रदेश का गणित तो समझ में आता है कि वहां भाजपा विरोधी वोट एकमुश्त सपा को मिल गए. बसपा चुनाव लड़ नहीं रही थी. माना जा रहा है कि जिन मतदाताओं ने लोकसभा चुनाव के दौरान मोदी के पक्ष में वोट डाले थे, वे इस बार घर से नहीं निकले. उत्तर प्रदेश का सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला बिहार की तर्ज पर सफल माना जा सकता है. लेकिन, गुजरात और राजस्थान में जो हुआ, उससे यह कहा जा सकता है कि जनता ने संकेत दिया है कि भाजपा उसे टेकेन फॉर ग्रांटेड न ले. यह मानना कि राज्यों के उपचुनाव में स्थानीय मुद्दे हावी होते हैं, स्थानीय समीकरण काम करते हैं, सही हो सकता है, लेकिन इस बात से भी कोई इंकार नहीं कर सकता कि पिछले कुछ वक्त से जिस तरह नरेंद्र मोदी के नाम का असर बताया जा रहा था और बहुत हद तक यह सही भी है कि लोकसभा चुनाव में भाजपा को जीत मोदी ने ही दिलाई थी. उसके बाद यह मान लेना कि ताजा चुनाव परिणामों का नरेंद्र मोदी से कुछ लेना-देना नहीं है, थोड़ा अतिशयोक्ति होगा.

चुनाव में जीत से अधिक हार का महत्व है. जीत जहां अहंकार पैदा करती है, वहीं हार आपको अगली जीत के लिए तैयार करती है. इन उपचुनावों के परिणामों से कम से कम भाजपा के लिए तो यही संदेश निकलता है कि वह अपनी कमजोरियां पहचाने, स्वीकारे और सुधारे. एक संदेश यह भी कि जनता कभी किसी राजनीतिक दल की गुलाम न थी, न है और न रहेगी.

उपचुनाव के नतीजे अखिल भारतीय किस्म वाले हैं. भाजपा यह कहकर इन्हें खारिज नहीं कर सकती कि ये छोटे-मोटे उपचुनाव के नतीजे हैं, जिनसे देश के मूड का पता नहीं चलता. लोकसभा चुनाव के बाद तीन चरणों में 15 राज्यों की 54 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुए. हर जगह से एक जैसा ट्रेंड निकला है. वह ट्रेंड भाजपा के समर्थन वाला नहीं है. साफ़ संकेत है कि देश ने नरेंद्र मोदी को स्वीकार किया, लेकिन अगर भाजपा के पास राज्यों में नेता नहीं हैं या पार्टी का कामकाज ठीक नहीं है, तो मोदी के नाम पर चुनाव नहीं जीता जा सकता. राज्यों के चुनाव में नेता प्रोजेक्ट न करने की रणनीति पर भाजपा को नए सिरे से विचार करना होगा. मोदी का नाम राज्यों में चुनाव नहीं जिता पाएगा. उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण की कोशिश पिट गई है, तो राजस्थान में वसुंधरा सरकार की अक्षमता ने भाजपा को हराया. लोकसभा में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा जीत गई, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि वह जिसे नेता बनाएंगे, उसे लोग स्वीकार कर लेंगे. केंद्र से लेकर राज्यों तक भाजपा ने जैसा नेतृत्व पेश किया है, वह सवालों के घेरे में है. राजस्थान में वसुंधरा का विकल्प निहाल चंद मेघवाल नहीं हैं. उपचुनाव में मिले झटके से शायद भाजपा के शीर्ष नेताओं की सोच बदले.
अब हरियाणा और महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव होने हैं. ऐसे में पार्टी अगर पूरी तरह मोदी पर आश्रित रही, तो उसके ऩुकसान भी उठाने पड़ सकते हैं. भाजपा को यह समझना होगा कि राज्यों के चुनाव कार्यकर्ताओं एवं जनता से कटकर, किसी लहर के भरोसे नहीं जीते जा सकते. भले ही दोनों राज्यों में फिलहाल सियासी हवा भाजपा और उसके सहयोगी दलों के पक्ष में दिख रही हो, लेकिन चुनाव में जरा-सी लापरवाही और ज़मीन से कटना कितना भारी पड़ता है, यह इन नतीजों से साफ़ है. खास तौर से उत्तर प्रदेश के नतीजों को देखें, तो यहां पर भाजपा का हर दांव उल्टा पड़ा. उपचुनाव के लिए जिन योगी आदित्य नाथ को भाजपा ने ज़िम्मेदारी सौंपी, उनकी सियासत को जनता का साथ नहीं मिला. अभी उत्तर प्रदेश में भाजपा आपसी कलह से भी जूझ रही है. आपसी मनमुटाव काफी बढ़ चुका है. विनय कटियार और ओम प्रकाश सिंह जैसे लोग चुनाव प्रचार में निकले ही नहीं. प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी और योगी आदित्य नाथ ही पूरी कमान संभाले रहे. जाहिर है, इस सबसे भी भाजपा को बाहर निकलना होगा.
उपचुनाव परिणाम के राष्ट्रीय महत्व और उसके निहितार्थ को समझना भी ज़रूरी है. एक साफ़ संकेत जनता ने भाजपा को यह दिया है कि उसे विकास के नाम पर वोट दिया गया था और अगर वह इस पटरी से उतरती है, तो उसे वोट नहीं मिलेगा. उत्तर प्रदेश, राजस्थान और गुजरात के नतीजे भाजपा के लिए जनता की एक चेतावनी हैं. इसके अलावा राजस्थान में पार्टी संगठन की अंतर्कलह, असंतोष की भावना और गुजरात में यह मानकर चलना कि हम जीत ही रहे हैं, जैसा रवैया भी भाजपा के लिए ऩुकसानदायक साबित हुआ. दूसरी तरफ़ इन दोनों राज्यों के परिणाम कांग्रेस के लिए ऑक्सीजन का काम करेंगे. इन परिणामों ने ऐतिहासिक हार का सामना कर रही कांग्रेस और उसके कार्यकर्ताओं में उत्साह भरने का काम किया है.


गुजरात और राजस्थान में जो हुआ, उससे यह कहा जा सकता है कि जनता ने संकेत दिया है कि भाजपा उसे टेकेन फॉर ग्रांटेड न ले. यह मानना कि राज्यों के उपचुनाव में स्थानीय मुद्दे हावी होते हैं, स्थानीय समीकरण काम करते हैं, सही हो सकता है, लेकिन इस बात से भी कोई इंकार नहीं कर सकता कि पिछले कुछ वक्त से जिस तरह नरेंद्र मोदी के नाम का असर बताया जा रहा था और बहुत हद तक यह सही भी है कि लोकसभा चुनाव में भाजपा को जीत मोदी ने ही दिलाई थी. उसके बाद यह मान लेना कि ताजा चुनाव परिणामों का नरेंद्र मोदी से कुछ लेना-देना नहीं है, थोड़ा अतिशयोक्ति होगा.


 

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