सामरिक तौर पर भारत एक वैश्‍विक ताक़त है, लेकिन आंतरिक और बाह्य, दोनों ही मुद्दों पर जब हम इस सच्चाई को परखते हैं तो हक़ीक़त इससे जुदा दिखती है. देश के भीतर हम जितना नक्सलवाद  से जूझ रहे हैं, उतना ही प़डोसी मुल्क़ों की ओर से प्रायोजित आतंकवाद से.  यह समस्या कोई नई नहीं है, लेकिन इसके निदान के प्रति जो गंभीरता दिखानी चाहिए थी, वह यूपीए सरकार ने अपने दोनों ही कार्यकाल में कभी नहीं दिखाई. आतंकवाद भले ही दूसरे मुल्क़ों के द्वारा थोपा गया है, लेकिन देश के भीतर पैदा हुई आंतरिक असुरक्षा तो हमारी अपनी ही ग़लत नीतियों की देन है. इस स्तर पर हमारी असफलता यही ज़ाहिर करती है कि इनसे निपटने के लिए न तो यह सरकार प्रतिबद्ध है और न  ही इसके लिए कोई पुरज़ोर कोशिश कर रही है.
tajजवाहर लाल नेहरू की सरकार के बाद देश में लगातार दो बार पांच साल तक प्रधानमंत्री रहने वाले मनमोहन सिंह का कार्यकाल अपनी समाप्ति पर पहुंच चुका है. इस दौरान देश की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा व्यवस्था की स्थिति सोचनीय रही है. देश में कई ब़डे नक्सली हमले हुए. कई आतंकी हमले हुए. 26/11 जैसी देश में अभी तक की सबसे वीभत्स आतंकी घटनाओं को भी अंजाम दिया गया. सुरक्षा व्यवस्था में सरकारी ख़ामियां साफ़ नज़र आईं. सरकार ने इसे रोकने के लिए कई क़दम तो उठाए, लेकिन इनके परिणाम नगण्य ही साबित हुए. आख़िर इन घटनाओं में मारे गए निरीह लोगों की मौत का ज़िम्मेदार कौन है? क्या इसके लिए यूपीए सरकार की उन नीतियों को दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए, जिसने आतंकियों और नक्सलियों के समक्ष सुरक्षा व्यवस्था को इस क़दर कमज़ोर बना दिया है जिसकी वजह से वे जब चाहें, जहां चाहें हमले कर मासूमों को मौत के घाट उतार सकते हैं.
भारतीय सीमा में ही गश्त देने के दौरान सेना के जवान हेमराज का सिर आतंकी काट ले जाते हैं. सरकार कहती है कि हम हेमराज के परिवार को पूरा न्याय दिलाएंगे, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की गई. बांग्लादेश की सीमा पर लगातार होती घुसपैठ की घटनाएं ब़ढ रही हैं. वहां से उग्रवादी नेता अनूप चेतिया को लाने की कवायद में देर हो रही है. छत्तीसग़ढ और झारखंड में लगातार नक्सली वारदातें हो रही हैं. मुजफ्फरनगर में लश्कर ए तैयबा आतंकी खुले घूम रहे हैं. वहीं नेपाल के रास्ते भारत में लगातार नकली नोटों की तस्करी के ज़रिए देश की अर्थव्यवस्था चौपट करने की कोशिशें जारी हैं. ये कुछ ऐसी समस्याएं हैं, जिनके साथ भारत लगातार जूझ रहा है. लगभग सभी प़डोसी देशों के साथ भारत के रिश्ते ख़राब हो रहे हैं. ऐसी अवस्था में जबकि आप चारों तरफ ऐसे प़डोसियों से घिरे हों, जो किसी न किसी कारण से बुरी तरह नाराज़ हों, वहीं देश में नक्सलवाद और अलगाववाद जैसी ब़डी समस्या लगातार कायम हो, तो आप देश के विकास का स़िर्फ दिवास्वप्न ही देख सकते हैं. यही स्वप्न यूपीए सरकार देखती रही और अब जबकि उसका दूसरा कार्यकाल पूरा होने का समय आ गया है, आंतरिक और बाह्य सुरक्षा के नाम पर गिनाने के लिए उसके पास कोई भी सफलता नहीं है. बार-बार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा नक्सलवाद को देश के लिए सबसे ब़डा ख़तरा बताए जाने के बावजूद आख़िर इसकी रोकथाम के लिए क्या किया गया?
छत्तीसग़ढ में नक्सलवादियों ने कई बार तांडव किया. एक हमले में तो कई ब़डे कांग्रेसी नेताओं की वीभत्स तरी़के से हत्या कर दी गई. इस हमले में पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल की भी मौत हो गई, लेकिन सरकार नक्सलवाद से निपटने के लिए कोई कारगर क़दम उठाने से लगातार बचती रही. यह अपने आप में बहुत हास्यास्पद है कि प्रधानमंत्री द्वारा जिस समस्या को देश के लिए सबसे ब़डा ख़तरा बताया गया उसे लेकर सरकार द्वारा उठाए गए क़दमों से नक्सलवाद किसी भी तरह कमज़ोर नहीं हो पाया.
साल 2006 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि नक्सलवाद देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे ब़डा ख़तरा है. यह सच है कि देश में नक्सलवाद सबसे ब़डी आंतरिक समस्या बन चुका है. प्रत्येक वर्ष सैंक़डों जाने इसकी वजह से जाती हैं. साल 2002 से अभी तक नक्सलवाद की वजह से लगभग 2000 जवानों ने अपनी जानें गंवाई हैं और पांच हज़ार से ज्यादा निरीह लोग मारे गए हैं. आख़िर इन लोगों की मौत का ज़िम्मेदार कौन है?
फरवरी 2009 में केंद्र सरकार ने इस समस्या का सामना करने के लिए राष्ट्रव्यापी कोशिश की शुरुआत की. इंटिग्रेटेड एक्शन प्लान के ज़रिए इस देश में नक्सल समस्या को समाप्त करने के लिए एक अच्छी पहल की गई. इस प्लान में नक्सल प्रभावित इलाक़ों में मूलभूत सुविधाओं के विकास के लिए फंड की व्यवस्था का भी प्रावधान किया था, जिससे इन इलाक़ों में नक्सलवादियों के आतंक को कम किया जा सके. लगभग एक साल तक इस प्लान के लागू रहने के बाद अगस्त 2010 में कर्नाटक को नक्सल प्रभावित राज्यों से बाहर निकाल दिया गया था. साल 2011 में नक्सल प्रभावित ज़िलों की संख्या नौ राज्यों में मात्र 83 बताई गई. वहीं सरकार ने यह भी सूचना दी कि साल 2010 के मुक़ाबले 2011 में नक्सली हमलों में मरने वाले और घायल होने वालों की संख्या में 50 प्रतिशत तक की कमी आई है.
नक्सलवाद का सामना करने के लिए देश में सीआरपीफ, कोबरा, बीएसएफ, आईटीबीपी के जवानों को लगाया गया है. सलवा जुडूम और आपरेशन ग्रीन हंट जैसे अभियान भी नक्सलियों को रोकने को लेकर चलाए गए, लेकिन राजनीतिक दॄढता न होने की वजह से यूपीए सरकार को इस समस्या के निदान को लेकर कोई ब़डी कामयाबी नहीं मिल पाई. सरकारी दावे एक तरफ हैं और नक्सली गतिविधियां दूसरी तरफ. दोनों समान चाल से एक साथ चल रहे हैं. सरकार ने कई ब़डे दावे किए लेकिन कोई ब़डा हल निकलता नहीं दिख रहा है. यूपीए के दस वर्षों के शासनकाल के दौरान देश में कई ब़डी आतंकी घटनाएं हुईं. लगभग देश के हर ब़डे राज्य को आतंकी घटनाओं का सामना करना प़डा. मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों में तो कई आतंकी वारदातें हुईं. जिनमें दिल्ली में साल 2005, 08, 11 में हुए बम धमाकों के अलावा भी अन्य कई ब़डी वारदातें हुईं. वहीं मुंबई भी आतंकी घटनाओं से कुछ समय के अंतराल पर थर्राती रही. साल 2006 में रेलगा़िडयों में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों में 209 लोगों की जान गई. 26 नवंबर 2008 को तो यहां ऐसी घटना हुई, जिसकी यादें लोगों के दिमाग में सालों तक ताज़ा रहेंगी. सीएसटी टर्मिनल और होटल ताज पर आतंकियों के हमले में 172 लोग मारे गए. इस हमले ने स़िर्फ मुंबई ही नहीं, बल्कि देश भर के लोगों में नफ़रत और भय का एहसास भर दिया.इस घटना के बाद केंद्र सरकार ने आतंकी घटनाओं का सामना करने के लिए राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) बनाई. यह जांच एजेंसी देश में होने वाली आतंकी घटनाओं की जांच करने और आतंकियों को पक़डने के लिए काम करती हैं. हाल के वर्षों में इसने कई ब़डे वांछित आतंकियों को पक़डने में कामयाबी पाई है. अबू जुंदाल, यासीन भटकल और फसीह मोहम्मद जैसे आतंकियों को इस एजेंसी ने पक़डा है, लेकिन इसके बावजूद भी देश में होने वाली आतंकी घटनाएं रुक नहीं रही हैं. इसके बाद भी मुंबई, बनारस, हैदराबाद और दिल्ली में ब़डी आतंकी वारदातों को अंजाम दिया गया.
इस क्रम में जम्मू और कश्मीर का मामला अन्य राज्यों से बिल्कुल अलग है. घाटी में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद को रोक पाने में सरकार लगभग पूरी तरह असफल साबित हुई है. बीते कुछ वर्षों से राज्य में बहुत ही ख़राब हालात हैं. अलगाववादी ध़डा राज्य को भारत से अलग करने को लेकर अपना आंदोलन लगातार बनाए हुए है. सरकार उन्हें समझा पाने नाकाम साबित हुई है. वाजपेयी सरकार के सीमा पार से संबंध सुधारने के प्रयासों का असर घाटी में भी प़डा था, लेकिन यूपीए इसे बनाए नहीं रख सका.
अपने शासनकाल की शुरुआत में पोटा जैसे आतंकरोधी क़ानून को समाप्त करके मनमोहन सरकार ने आतंकी गतिविधियों को समाप्त करने प्रति अपनी पूरी प्रतिबद्धता न होने की बात ज़ाहिर कर दी थी. इसके बाद भी आतंक कोे रोकने को लेकर सरकारी प्रतिबद्धता कभी अपने पूरे स्वरूप में नहीं दिखाई दी.
आतंकी घटनाओं की प्रति संवदेनहीनता उस वाकये से भी साफ़ नज़र आती है जब पूर्व सूचना होने के बावजूद भाजपा के पीएम पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी की पटना रैली सिलसिलेवार धमाके हुए. इस घटना में मोदी बाल-बाल बच गए थे. इसे सौभाग्य ही समझा जाना चाहिए कि इन धमाकों मे मोदी घायल नहीं हुए. सरकारी तंत्र की इस लापरवाही से देश ब़डी समस्या से घिर सकता था.
ये तो रही देश के आतंरिक हालातों की चर्चा. इसके अलावा यूपीए सरकार की सबसे ब़डा असफलताओं में से एक प़डोसी देशों से ख़राब संबंध हैं. बात अगर प़डोसी देशों की आए तो एक बात गौर करने लायक है कि असफल देश किसी अन्य देश पर सैन्य हमला तो नहीं कर सकते, लेकिन वे अपनी अस्थिरता और अव्यवस्था का निर्यात अवश्य कर सकते हैं. असफल देशों से घिरा भारत एक सुरक्षित और स्थिर माहौल में अपने राजनीतिक एवं आर्थिक लक्ष्यों को कैसे हासिल करे, यह वर्ष 2014 में सत्ता में आने वाली सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी. क्योंकि बीते यूपीए शासन के दौरान लगभग सभी प़डोसी देशों के साथ भारत के संबंध तनावपूर्ण ही रहे. यह अवस्था भारत के विश्‍व शक्ति बनने की उसकी राह में यह बड़ी रुकावट है.
भारत और चीन के बीच सीमा विवाद का इतिहास पुराना है लेकिन दोनों देशों का राजनीतिक नेतृत्व सीमा पर यथास्थिति बनाए रखने में काफ़ी हद तक सफल भी रहा है. 1962 के युद्ध के बाद हज़ारों किलोमीटर लम्बी सीमा पर प्राय: शांति बनी हुई है. गश्ती टुकड़ियों के एक-दूसरे के सीमा क्षेत्रों में आने के कारण कभी-कभार समस्याएं पैदा होती हैं लेकिन यह किसी बड़े संघर्ष में परिवर्तित नहीं होतीं. बीते दस सालों के यूपीए शासन के दौरान इस सरकार का रवैया सीमा विवाद को लेकर रक्षात्मक ही रहा. अरुणाचल प्रदेश और तिब्बत में चीनी सैनिकों की गतिविधि पर भारत का रवैया रक्षात्मक ही रहा.
रक्षामंत्री ए.के. एंटनी सहित भारतीय सेना के वरिष्ठ अधिकारी सीमा पर अतिक्रमण की घटनाओं पर संयमित रवैया ही अपनाते रहे. इन घटनाओं के दौरान कभी ऐसा नहीं महसूस हुआ कि भारत का पक्ष चीन के सामने मज़बूत दिख रहा हो. रक्षामंत्री ने हाल में कहा कि वह किसी चमत्कार की आशा नहीं करते. सीमांकन जब तक नहीं होता, तथा इस पर सहमति नहीं बनती, तब तक अतिक्रमण जैसी घटनाएं नहीं रोकी जा सकती हैं. पिछले वर्ष लद्दाख में चीनी गश्ती टुकड़ी के भारतीय क्षेत्र में लम्बे समय तक डेरा जमाए रखने के बाद दोनों देशों ने सीमा सुरक्षा समझौते के ज़रिये ऐसे मुद्दों को सुलझाने का प्रयास किया.
हालांकि चीन की बढ़ती सैन्य ताक़त के मद्देनज़र भारत अपनी रक्षा तैयारियों में तेज़ी ला रहा है. सीमा क्षेत्रों में आधारभूत ढांचे का विकास हो रहा है तथा किसी आकस्मिक सैन्य संघर्ष से मुक़ाबले के लिए विशेष कार्रवाई टुकड़ियां तैयार रखी गई हैं, लेकिन यह सारी तैयारियां चीन के मुक़ाबले बहुत कमतर हैं.
पाकिस्तान के साथ सीमा पर तनावपूर्ण स्थितियों को रोक पाने में भी यूपीए सरकार नाकाम रही. हाल ही में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ ने कहा था कि जम्मू और कश्मीर सीमा विवाद के कारण भारत और पाक में एकबार फिर युद्ध हो सकता है. देश में हो रही आतंकी घटनाओं को अंजाम देने में पाकिस्तानी हाथ होने की बात बार-बार सामने आती रही. लेकिन सरकार इस मोर्चे पर असफल रही.
बांग्लादेश के साथ लगी सीमा से देश में घुसपैठ करने की समस्या के मामले में भी यूपीए सरकार कोई कारगर क़दम नहीं उठा पाई. हालांकि, वहां की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने भारत के साथ बेहतर संबंधों की बात तो कही थी, लेकिन इस दिशा में कुछ ख़ास नहीं हो पाया. प्रधानमंत्री शेख हसीना ने यूं तो इस्लामी कट्टरपंथियों को सीधी चुनौती दी है, लेकिन अमेरिका, यूरोप, पाकिस्तान व अनेक मुस्लिम देश उनके विरोधी राजनीतिक दलों की तरफ़दारी कर रहे हैं. यदि इस पड़ोसी देश में इस्लामी चरमपंथ और आतंकवाद हावी होता है तो पूरे पूर्वोत्तर भारत में अशांति का ख़तरा है. बांग्लादेश की तरह ही नेपाल में भी लोकतंत्र डगमगा रहा है. वहां माओवादी सशस्त्र संघर्ष तो अब बीते दिन की बात है लेकिन राजनीतिक अस्थिरता के कारण भारत-नेपाल सीमा से अवांछित घुसपैठ का ख़तरा बना हुआ है. हिन्द महासागर में भारत की सुरक्षा की चिंताएं ज्यों की त्यों बरक़रार हैं. श्रीलंका में तमिल ईलम की मांग फिर ज़ोर पकड़ रही है.
जनरल वी के सिंह ने अक्षमता पर चेताया था
सरकार को देश के पूर्व सेना प्रमुख जनरल वीके सिंह ने पत्र लिखकर सेना परिचालन क्षमताओं पर सवाल ख़डे किए थे. उन्होंने पत्र में पीएम को इस बात से अवगत कराया था कि सेना और स्पेशल फोर्सेस के पास हथियारों की कमी है. पुरानी हो चुकी वायु रक्षा प्रणाली का भी उन्होंने अपने पत्र मेंे ज़िक्र किया था. उन्होंने पीएम से सेना की सैन्य ज़रूरतों को पूरा करने के लिए भी कहा था. जनरल सिंह के इस पत्र के बावजूद भी यूपीए सरकार ने इस दिशा में कोई ख़ास क़दम नहीं उठाया, जिसे देख यह प्रतीत होता हो कि सरकार सेना के लिए हथियारों की बेहतरी को लेकर कोई दिलचस्पी रखती हो. अब स़िर्फ इस बात का अंदाज़ा ही लगाया जा सकता है कि आख़िर कोई सरकार देश की सरहदों और सैनिकों के आत्मविश्‍वास के साथ खेलने जैसा क़दम उठा कैसे सकती है?

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