सत्ता के गलियारे यानी लुटियंस जोंस में घुल मिल कर देश को नहीं देखा जा सकता । दिल्ली की आबो हवा में घुल मिल कर गरीब की झोंपड़ी का अहसास नहीं किया जा सकता । इंडिया के बड़े शहरों की चकाचौंध वक्त नहीं देती कि भारत के छोटे शहरों और गांव देहातों का दुखदर्द महसूस हो सके । बड़े शहरों की राजनीतिक बहसों पर बड़े शहरों के मुलम्मे चढ़े होते हैं । गरीब देश का राजा जब आठ सौ करोड़ से भी ज्यादा के विमान में अकेला घूमता हुआ देश के गरीब और उसकी गरीबी पर आंसू बहाए तो सोचना पड़ता है कि देश को किस नजर से देखें । ऐसे में बरबस महात्मा गांधी के उस ताबीज की याद हो आती है जो उन्होंने वर्धा के गांधी आश्रम में युवा जगजीवन राम को दिया था । जगजीवन राम चौंके थे , बापू आप और ताबीज । तब गांधी जी ने कहा था , हां ।और वह ताबीज क्या था जानने वाले जानते हैं , पर असंख्य लोग आज भी हैं जो इस घटना के बारे में नहीं जानते । कुल मिलाकर उसका लब्बोलुआब यह था कि जब भी तुम (यानी सरकार) कोई नीति बनाओ तो सोचो कि यह नीति से समाज के पायदान पर खड़े अंतिम आदमी के लिए फायदेमंद है या नहीं । यदि तुम्हारी नीति उसको लाभ पहुंचाने वाली नहीं है तो वह बेकार है । सत्ता और सत्ता के बाहर बैठे कितने लोग इस बात से परिचित हैं । शायद मोदी भी नहीं । मोदी की फौज और सोनिया – राहुल की फौज या राजनीतिक बहसों में हिस्सा लेने वाले कितने लोग इस बात से परिचित हैं या उन्हें याद है ।
ऊपर कही गयी पूरी बात का लब्बोलुआब यह है कि हम देश को और उसकी राजनीति को किस नजर से देखें । उस अंतिम आदमी की नजर से या लुटियन जोन की आबोहवा में दिन भर सांस लेते उस व्यक्ति या नेता की नजर से जिसे वक्त ने अपने घेरे में घेर लिया है। उसकी समझ, उसका चिंतन सब कुछ । नेताओं की बात तो छोड़ ही दीजिए बड़े बड़े विद्वानों को सुन कर आपको कैसा लगता है । मैंने पहले भी लिखा था उनकी देश के प्रति और गरीब के प्रति चिंता जंतर-मंतर से आगे नहीं जाती । मनमोहन सिंह की नीतियों से फूहड़ तरीकों से विकसित होते देश ने इंसान को इतना आराम तलब बना दिया है कि कोई जनांदोलन की सोच से ही सरसरी दौड़ जाती है । राजनीतिक दलों में यह बीमारी कहीं ज्यादा घर कर गई है । केवल शाहीन बाग और किसान आंदोलन की बातें करते हम फूले नहीं समाते । इस नजर से आप राजनीतिक दलों को देख लीजिए या सोशल मीडिया पर आने वाली बहसों को देख लीजिए । सबसे बड़ा सवाल है कि समाज पर इन बहसों और चिंताओं का क्या असर है । छोड़िए सब कुछ । आइए रवीश कुमार के प्राइम टाइम पर । रवीश ने जब से प्राइम टाइम शुरू किया कोई सोशल मीडिया शायद उस समय नहीं था या असरदार वेबसाइट्स नहीं थीं । रवीश ने बहुत मेहनत की । लगता था समां बदलता जा रहा है । फिर 2014 से एक के बाद एक चुनाव हुए, होते रहे । जिन्हें नहीं जीतना था वे जीतते रहे । रवीश की कई प्रकार की अलग अलग सीरीज ने जितनी लोकप्रियता हासिल की उससे लगा देश का माहौल बदल रहा है । पर बीजेपी का आईटी सेल और उसकी कोख से निकले व्हाट्सएप मैसेजेस ने नश्तर की तरह समाज में वो काम किया कि क्या रवीश और क्या कोई सोशल मीडिया । आज हम जिस मुकाम पर खड़े हैं वहां किसी तरह की कोई समझाइश बेमानी सी लगती है । आप कहें या रवीश कुमार कहें कि टीवी देखना बंद कीजिए या व्हाट्सएप मैसेजेस पढ़ना बंद कीजिए , सब चिकने घड़े पर पानी की तरह फिसल रहा है । अव्वल तो सोशल मीडिया पर चलने वाली बहसें कोई जानकारी देती नहीं । केवल लोग ज्यादातर अपनी भड़ास निकालते दिखते हैं । कोई जानकारी होती भी है तो वह उन तक पहुंचती नहीं जिन तक पहुंचनी चाहिए । जिन तक पहुंचती है वे पहले से ही जानते समझते हैं । व्हाट्सएप मैसेजेस से समाज का बहुत विशाल तबका तबाह हो रहा है । वह तबका ये बहसें नहीं देखता और न समझता है । कहना तो यह होगा कि यह बात आपको समझने में बहुत देर हो गयी । यह मोदी का जाल है ।इसे जादू मत कहिए । आप बड़े से बड़े विद्वानों को सुनते जाइए , क्योंकि सुनना आपको अच्छा लगता है । लेकिन न तो ये आकलन समाज के किसी हिस्से को बदल रहे हैं और न ही किसी आंदोलन की जमीन तैयार कर रहे हैं । ये सब इसलिए चल रहे हैं कि इन्हें चलाने वाले इसे ही अपना धर्म माने बैठें हैं । उनको मजा आता है और आपको मजा आता है । पर जो समाज जड़ हो चुका है उसे कहीं कोई फर्क नहीं पड़ता । मोदी की छवि ने उसमें जड़ता भर दी है । वह महंगाई से परेशान होकर भी परेशान नहीं दिखता । उसे नहीं मालूम कि मोदी जब नहीं रहेंगे तब उसकी स्थिति क्या होगी । इतना दूरंदेशी और समझदार होता तो समाज का अंतिम आदमी नहीं कहलाता वह ।
उसकी कुटिया में कब कौन पहुंचा है उसे समझाने , यह बड़ा प्रश्न है । जानकारी एक हद तक प्रसारित होती है । नये भारत ने उस हद को तय कर दिया है । जरूरत उस हद को तोड़ने की है । सबसे बड़ी कांग्रेस सबसे बौनी हो गयी है । उस कांग्रेस का दिमाग ‘हर’ लिया गया है । देश इस भ्रम को खुद में रूढ़ कर चुका है कि गांधी परिवार के बिना कांग्रेस कांग्रेस नहीं रह पाएगी । और सत्यानाश की सबसे बड़ी जड़ यही है । राजनीतिक रूप से एक नौसिखिया परिवार इसी भ्रम को सींच रहा है कि उसके बिना गति नहीं । जो लोग सोनिया गांधी को समझदार और अनुभवी मानते हैं उनकी बुद्धि पर तरह आता है । वे 2004 और 2009 को सोनिया की समझ का पैमाना मानते हैं । ऐसी सोच के बड़े बड़े विद्वान हैं । कल ही उदयपुर के ‘पांच सितारा होटल’ में कांग्रेस का चिंतन शिविर समाप्त हुआ है । यह ‘पुरानी बोतल में नयी शराब जैसा है या नयी बोतल में ..…. ‘ खैर मान कर चलिए कहीं कुछ नहीं होने वाला । बहुत ज्ञानी समझे जाने वाले कांग्रेस प्रवक्ता गुरदीप सिंह सप्पल कल जिस तरह बता रहे थे कि ये ये सब कर दिया गया है उससे जान लीजिए कांग्रेस की मौत तय है । योगेन्द्र यादव ने जब कहा था कि कांग्रेस को समाप्त हो जाना या मर जाना चाहिए । तब यादव की बहुत छीछालेदर हुई थी । प्रशांत किशोर ने पद यात्रा की क्या लड़ी लगाई अब हर कोई उसी पगडंडी पर चलना चाहता है । लालू के छोटे सुपुत्र के बाद अब राहुल गांधी । अपना दिमाग जैसे गिरवी रख बैठे हैं सब ।
यह सब कुछ इसलिए हो रहा है कि देश और दुनिया को हमने पलट कर रख दिया है और उसी (पलटी) नजर से हम सब कुछ देख रहे हैं । सत्ता के गलियारों से देश को देखें या खेत की मुंडेर पर खड़े इंसान की नजर से। नेहरू होते तो उनसे पूछते, तब निश्चित सही और सटीक जवाब मिलता । आज नेहरू नहीं हैं । लोहिया और जेपी भी नहीं हैं । गांधी को हर क्षण मारा जा रहा है । राम हैं चौतरफा । नये और आक्रामक अंदाज में ।

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