सरकार की तऱफ से कृषि क्षेत्र की अनदेखी किसानों (खास तौर पर जीवनयापन के लिए कृषि करने वाले किसान) की परेशानी का कारण है. पचास के दशक में अर्थशास्त्र का छात्र होने के नाते हमें भारत की आर्थिक समस्या पर एक पेपर पढ़ना पड़ता था. जहां तक किसानों की परेशानी का सवाल है, तो ऐसा लगता है कि पिछले 60 वर्षों में कुछ भी नहीं बदला है. जीवनयापन के लिए की जाने वाली कृषि आज भी वैसी है, जैसी उस जमाने में थी यानी छोटे-छोटे अलाभकारी खेत, ग्रामीण ऋण व्यवस्था का अभाव और अधिकारियों एवं राजनेताओं द्वारा बड़े किसानों की सहायता.

Land-Acquisition-Bill-Farmeभारत को यमन में बचाव कार्य के लिए जो तारी़फ मिली, उसका वह हक़दार था. दुनिया के कई देश यमन में फंसे अपने नागरिकों की मदद के लिए भारत की ओर देख रहे थे. भारत ने नेपाल में भूकंप की भयानक त्रासदी के बाद बचाव कार्य में एक बार फिर अनुकरणीय भूमिका निभाई है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक सच्चा नेता होने का सुबूत देते हुए तात्कालिक ज़रूरत के तहत नेपाल को सहायता पहुंचाई. वस्तुत: यह एक शासनात्मक ज़िम्मेदारी थी, जिसे लेकर प्रधानमंत्री, जो मुख्यमंत्री रहते हुए ऐसे अनुभवों से गुज़र चुके थे, तैयार थे और उन्हें पता था कि ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए. फिलहाल सरकार राजनीतिक और वैधानिक समस्याओं में उलझी हुई है. इन समस्याओं का हल संसाधन मुहैया कराकर नहीं किया जा सकता है. यहां लक्ष्य जरा अनिश्चित है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के काम में सहयोग करने के लिए विपक्ष को कोई प्रलोभन नहीं है. जबकि इसके उलट सरकारी काम को संसद में बाधित करने से उसे फायदा मिलेगा. यही विपक्ष-धर्म है. ऐसी परिस्थिति में राष्ट्रहित की अपील का भी कोई असर नहीं होता है.
सरकार की तऱफ से कृषि क्षेत्र की अनदेखी किसानों (खास तौर पर जीवनयापन के लिए कृषि करने वाले किसान) की परेशानी का कारण है. पचास के दशक में अर्थशास्त्र का छात्र होने के नाते हमें भारत की आर्थिक समस्या पर एक पेपर पढ़ना पड़ता था. जहां तक किसानों की परेशानी का सवाल है, तो ऐसा लगता है कि पिछले 60 वर्षों में कुछ भी नहीं बदला है. जीवनयापन के लिए की जाने वाली कृषि आज भी वैसी है, जैसी उस जमाने में थी यानी छोटे-छोटे अलाभकारी खेत, ग्रामीण ऋण व्यवस्था का अभाव और अधिकारियों एवं राजनेताओं द्वारा बड़े किसानों की सहायता. अब घड़ियाली आंसू बहाए जा रहे हैं, जबकि यह समस्या आज विपक्ष में बैठी पार्टियों की नीतियों का ही नतीजा है. दरअसल, यह कोई बहाना नहीं है कि इसकी वजह से सरकारी कामकाज में कोई प्रगति नहीं हो रही है. ध्यान देने वाली बात यह है कि सरकार किसानों की परेशानियां कम करने के लिए कुछ करती नज़र नहीं आ रही है. हालांकि, यह राज्यों का विषय है, लेकिन फिर भी यह एक राष्ट्रीय संकट है. कृषि मंत्री को न हम किसी टीवी चैनल की स्क्रीन पर देख पाते हैं और न उनका नाम याद आता है. बेशक, वह अपनी तऱफ से कोशिश कर रहे होंगे, लेकिन पिछले तीन महीनों में राहत का कौन-सा काम हुआ है, किसी को नहीं मालूम. ट्‌वीटर पर मीडिया की ़खबरें और अख़बारों में विज्ञापन कहां हैं? हम केवल विपक्ष को देख और सुन रहे हैं, जिसके पास विरोध करने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है.
अमेरिका में 1930 के दशक की महा-मंदी ने छोटे और मझोले किसानों को शहरी क्षेत्रों में जाने पर मजबूर किया था. यह बहुत ही पीड़ादायक त्रासदी थी, जिसका बेहतरीन चित्रण अंग्रेजी के उपन्यासकार जॉन स्टेनबेक ने अपने उपन्यास-दि ग्रेप्स आफ रॉथ में किया है. भारत अब ऐसे ही मुश्किल दौर में पहुंच गया है. 67 वर्षों से छोटे किसानों की अनदेखी अब अपनी अंतिम हद पर पहुंच गई है. प्रधानमंत्री मोदी को इस समस्या का संज्ञान वैसे ही लेना चाहिए, जैसे उन्होंने यमन और नेपाल की समस्या के संबंध में लिया था. उन्हें किसानों के लिए एक नेशनल फार्मर्स रिलीफ इनिशिएटिव गठित करना चाहिए. ज़ाहिर है, पैसा कोई समस्या नहीं है. लेकिन जो समस्या है, वह है इस व्यापक त्रासदी से निपटने के लिए गंभीर सोच की. नेहरू के जमाने में जो बड़ी चिंता थी, वह यह थी कि शहरी आबादी के लिए पर्याप्त खाद्यान (जिसे बिक्री योग्य अतिरिक्त पैदावार कहा जाता था) नहीं थी. बड़े एवं उपजाऊ खेतों में खेती करके हरित क्रांति ने इस समस्या का समाधान निकाल लिया. अब भारत में खाद्यान की इतनी बहुतायत हो गई है कि जगह-जगह अनाज सड़ रहा है. बहरहाल अभी जो मुद्दा है, वह है छोटे-छोटे अलाभकारी खेतों में धीरे-धीरे खेती बंद करने की और किसानों को स्थायी विकल्प उपलब्ध कराने की. किसान शब्द सुनकर भावुक हो जाना कोई अच्छी बात नहीं है, बल्कि इससे अच्छा यह है कि कठोर बनकर किसान और उसके परिवार को अच्छा भविष्य दिया जाए. ऐसे में बुनियादी सुविधाओं के विकास की योजनाएं बहुत महत्वपूर्ण हैं. उद्योग-धंधों को बहुत तेजी से स्थापित करना होगा. श्रम क़ानूनों में बदलाव के सिलसिले में बरती जा रही सावधानी छोड़नी होगी. लोगों का जीवन, खासकर आने वाले पीढ़ी का जीवन दांव पर है. लिहाज़ा, इसे केवल राष्ट्रीय संकट घोषित करके ही चीज़ों को सही दिशा में आगे बढ़ाया जा सकता है. सरकार एक अग्नि परीक्षा से ग़ुजर रही है. उसके लिए अच्छा यह है कि उसका इस परीक्षा से सामना बहुत पहले हो गया है. प्रधानमंत्री मोदी के पास अभी अपनी शक्ति एकत्र करने, अपने कैबिनेट में फेरबदल करने और पिछली बेंच पर बैठने वाले अपने सदस्यों को फटकार लगाने का समय है कि उन्हें काम करना होगा और काम करते दिखना होगा.

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