महाराष्ट्र का मराठवाड़ा क्षेत्र पिछले तीन वर्षों से भयंकर सूखे की मार झेल रहा है, जिसे स्थानीय लोग दुष्काल की संज्ञा दे रहे हैं. इलाक़े के अधिकांश तालाब और बांध सूखे पड़े हैं. राज्य सरकार और स्थानीय प्रशासन इस बात की तस्दीक कर रहे हैं कि मराठवाड़ा के 833 सिंचाई के साधनों में महज़ 11 फीसद पानी शेष बचा है. हालांकि, गर्मी ने अभी-अभी दस्तक दी है, जबकि मई और जून का महीना शेष है. सूखे की मार के चलते मराठवाड़ा के किसान बड़ी संख्या में पलायन कर रहे हैं. इधर सरकारी बैंक किसानों को क़र्ज़ देने से कतरा रहे हैं, तो दूसरी तऱफ उनके ऊपर क़र्ज़ वापसी का अतिरिक्त दबाव है. इन्हीं दो पाटों के बीच अन्नदाता किसान पिस रहा है और मौत को गले लगा रहा है. मराठवाड़ा के नांदेड़, लातूर, उस्मानाबाद, औरंगाबाद, बीड और जालना ज़िलों में सूखे की स्थिति एवं किसान आत्महत्या के कारणों की पड़ताल कर रही चौथी दुनिया की यह खास रिपोर्ट…
जिला मुख्यालय उस्मानाबाद से पंद्रह किलोमीटर दूर एक गांव है रूईभर. यहां 11 दिसंबर, 2014 को बाबा साहब माणिक जगताप ने अपने खेत में फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. जगताप को कानों से कम सुनाई देता था. परिवार में उनकी विकलांग पत्नी अनिता समेत तीन बेटियां काजल, स्नेहल एवं ज्योत्सना और एक बेटा प्रमोद है. माणिक जगताप की बूढ़ी मां केसर बाई अक्सर बीमार रहती हैं. इस परिवार के पास महज़ सवा बीघा ज़मीन है. बड़ी बेटी ज्योत्सना की शादी हो चुकी है, जिसके लिए माणिक जगताप ने अपने रिश्तेदारों से दो लाख रुपये का क़र्ज़ लिया था. इसके अलावा, माणिक जगताप पर सहकारी बैंक का 11 हज़ार रुपये का क़र्ज़ और था, जो उनके पिता ने लिया था. बैंक एवं रिश्तेदारों के तगादे और फसल की बर्बादी ने माणिक जगताप को तनावग्रस्त कर दिया. लिहाज़ा इन सबसे बचने के लिए उन्होंने आत्महत्या कर ली. अब माणिक जगताप के तीन बच्चों और उनकी मां के भरण-पोषण का ज़िम्मा उनकी बेवा अनिता के कंधों पर आ गया है. शारीरिक रूप से विकलांग होने के कारण अनिता ने अपनी सवा बीघा ज़मीन बटाई पर लगा दी है. बावजूद इसके, अनिता का नाम बीपीएल सूची में दर्ज नहीं है और न इस परिवार को इंदिरा आवास योजना और अंत्योदय अन्न योजना का लाभ मिल रहा है. अनिता एक झोपड़ीनुमा कमरे में अपने तीन बच्चों और बूढ़ी सास के साथ ज़िंदगी गुज़ारने पर मजबूर हैं. माणिक जगताप जैसे मजबूर किसान की कहानी से मिलती-जुलती कई कहानियां मराठवाड़ा में बिखरी पड़ी हैं. जिन पर न तो सरकार का ध्यान है और न मीडिया का.
जिस मराठवाड़ा की पहचान वर्ष 1954 के भूमिहीन किसान सत्याग्रह के रूप में होती थी, मौजूदा समय में वह किसान आत्महत्याओं का केंद्र बनता जा रहा है. मराठवाड़ा में सूखे का यह तीसरा साल है. पानी की किल्लत से न स़िर्फ खेती घाटे का सौदा साबित हो रही है, बल्कि इंसानों से लेकर पशुओं तक का जीना दुश्वार होता जा रहा है. मराठवाड़ा क्षेत्र में कुल आठ ज़िले हैं, जहां सूखे से प्रभावित होने वाले करोड़ों किसानों की समस्याओं में बहुत ज़्यादा फर्क़ नहीं है.सूखे से सर्वाधिक प्रभावित जालना और बीड ज़िलों में जल संकट गहराता जा रहा है. यहां सैकड़ों गांवों में टैंकरों के ज़रिये लोगों को पानी मुहैया कराया जा रहा है, लेकिन ज़रूरत के हिसाब से वह नाका़फी है. मराठवाड़ा में उन गांवों की संख्या भी कम नहीं है, जहां पानी के लिए रोज़ाना लोगों को मीलों पैदल चलना पड़ता है. खेतों में कुंए और बावड़ियां तो ज़रूर हैं, लेकिन उनमें एक बूंद भी पानी नहीं है. छोटे किसानों के लिए खेतों में बोरवेल लगाना आसान नहीं है, क्योंकि पिछले पांच वर्षों के दौरान मराठवाड़ा के लातूर, बीड, उस्मानाबाद और जालना ज़िले में भूजल स्तर 600 से लेकर 900 फीट नीचे चला गया है.
विडंबना यह है कि सूखे से सर्वाधिक प्रभावित जालना ज़िले में तक़रीबन दो दर्जन बोतल बंद पानी के प्लांट स्थापित हैं. इन संयंत्रों में बड़े पैमाने पर भूमिगत जल का दोहन हो रहा है. अगर समय रहते इन संयंत्रों को बंद नहीं किया गया, तो जालना समेत पूरे मराठावाड़ा में पानी की समस्या और गंभीर रूप ले लेगी. औरंगाबाद प्रमंडलीय आयुक्त कार्यालय द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार, एक जनवरी, 2014 से 31 दिसंबर, 2014 तक मराठवाड़ा के कुल आठ ज़िलों में 574 किसानों ने आत्महत्या की. वहीं एक जनवरी, 2015 से 27 अप्रैल, 2015 तक मराठवाड़ा के
अलग-अलग ज़िलों में अब तक 268 किसान ख़ुदकुशी कर चुके हैं. मराठवाड़ा में औसतन दो से अधिक (2.29) किसान प्रतिदिन आत्महत्या कर रहे हैं. किसान आत्महत्या की यही रफ्तार रही, तो स़िर्फ मराठवाड़ा में साल के आख़िर तक यह आंकड़ा 836 के पार जा सकता है. देश में किसान आत्महत्या की घटनाएं कम होने के बजाय प्रतिवर्ष बढ़ती जा रही हैं. वर्ष 1995 से लेकर वर्ष 2015 के बीच देश भर में 2,96,438 किसानों ने आत्महत्या की. अकेले महाराष्ट्र में इस दौरान 60,365 किसानों ने ख़ुदकुशी की. पहले किसान आत्महत्याओं की ज़्यादातर घटनाएं विदर्भ, मराठवाड़ा और तेलंगाना में होती थीं, लेकिन अब देश भर से इस तरह की ख़बरें आ रही हैं. यहां तक कि देश के विकास के लिए मॉडल के रूप में प्रस्तुत किए जाने वाले गुजरात में भी किसानों की आत्महत्या आम बात है. अभी हाल ही में राजकोट ज़िले के भादर गांव के 34 वर्षीय किसान हरेश रवाडिया ने फसल नाक़ाम रहने की वजह से आत्महत्या कर ली. इस परिवार की त्रासदी यहीं तक नहीं रुकी. हरेश की मौत से आहत होकर उसकी 31 वर्षीय पत्नी भाविशा ने अपने पति की लाश के सामने आग लगाकर आत्महत्या कर ली. दरअसल, ऐसी आत्महत्याओं की एकमात्र वजह किसानों के ऊपर क़र्ज़ और ़फसल का नाक़ाम रहना ही नहीं है. चौथी दुनिया के इस संवाददाता ने मराठवाड़ा के उन सभी इलाक़ों का भ्रमण किया, जहां बीते दिनों किसानों ने बड़े पैमाने पर आत्महत्या की. किसानों के परिवारीजनों और स्थानीय लोगों से हुई बातचीत से एक बात निकल कर सामने आई कि कई वर्षों से फसल नाक़ाम रहने एवं क़र्ज़ की वजह से यहां के किसान आत्महत्या कर रहे हैं. आसान क़र्ज़ पाने के चक्कर में किसान साहूकारों के पास जाते हैं और उनके जाल में फंस जाते हैं. दरअसल, उन्हें बैंकों की जटिल प्रक्रिया में उलझने के बजाय साहूकारों से क़र्ज़ लेना ज़्यादा आसान लगता है और इसी का फायदा साहूकार उठाते हैं. किसान आत्महत्याओं की यह एक बड़ी वजह तो है, लेकिन स़िर्फ यही एकमात्र कारण नहीं है. इसके पीछे कई अन्य कारण भी हैं, जिनका ज़िक्र करना बेहद ज़रूरी है.
पिछले दो दशकों के दौरान मराठवाड़ा में ज्वार, बाजरा, मक्का, गेहूं, चना, अरहर, मूंग, उड़द जैसी परंपरागत खेती का रकबा का़फी तेज़ी से घटा है. इसकी जगह नगदी फसल कहे जाने वाले गन्ना, कपास और सोयाबीन की खेती बहुतायत होने लगी है. किसान आत्महत्या की बढ़ती घटना के बाद देश में नगदी फसल को लेकर एक बड़ी बहस भी हो रही है, लेकिन अमूमन परंपरागत खेती करने वाले किसानों को चौबीस वर्ष पहले इस दुष्चक्र में किसने फंसाया? नब्बे के दशक में डंकल प्रस्ताव के ख़िला़फ भारतीय किसान यूनियन के नेता महेंद्र सिंह टिकैत की अगुवाई में हज़ारों किसानों ने आंदोलन किया था. यहां तक कि विरोध जताने के लिए संसद भवन के बाहर भैंसें भी बांध दी गई थीं. कई हफ्तों तक यह आंदोलन चलता रहा, लेकिन तमाम विरोधों के बावजूद तत्कालीन केंद्र सरकार ने देश में बहुराष्ट्रीय बीज एवं कीटनाशक कंपनियों के लिए बाज़ार खोल दिया. हाई-ब्रिड बीजों से किसानों को कितना फायदा और कितना नुक़सान हुआ, उसका आकलन पिछले चौबीस वर्षों के अनुभव से बखूबी किया जा सकता है. मराठवाड़ा में नगदी फसल के बढ़ते प्रचलन का सबसे बुरा असर पशुओं पर पड़ा है. इन क्षेत्रों में दुग्ध उत्पादन में का़फी कमी आई है, क्योंकि कपास, गन्ना और सोयाबीन के पौधे से पशुओं को चारा नहीं मिलता. नतीज़तन, पशुधन में लगातार गिरावट हो रही है.
फड़नवीस सरकार से किसानों को निराशा
मराठवाड़ा के करोड़ों किसान मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस सरकार की फसल मुआवज़ा नीति से ख़ासे नाराज़ हैं. किसानों का कहना है कि पिछले साल के मुक़ाबले इस वर्ष कपास, गन्ना और सोयाबीन का भाव कम है. पिछले वर्ष सोयाबीन का भाव 4,600 रुपये प्रति क्ंिवटल तक गया था, वहीं इस साल सोयाबीन का बाज़ार भाव अधिकतम 2,900 रुपये है. किसानों की शिकायत है कि पिछली सरकार ने ओलावृष्टि से तबाह हुई ़फसलों के लिए प्रति एकड़ 30 हज़ार रुपये का मुआवज़ा दिया था, लेकिन भाजपा सरकार ने इसे घटाकर 12 हज़ार रुपये प्रति एकड़ कर दिया है. गौवंश हत्या पर प्रतिबंध लगाने की वजह से भी किसानों की परेशानी बढ़ गई है. किसानों का कहना है कि दूध न देने वाली गायों एवं कृषि कार्य करने में अक्षम बैलों को पालना महंगा साबित हो रहा है. गौवंश सुरक्षा को लेकर सरकार ने क़ानून तो बना दिया है, लेकिन इस बाबत किसानों को कोई आर्थिक मदद नहीं दी गई है. ऐसे में पशुओं के लिए चारे और पानी का इंतज़ाम कैसे होगा, इसका उत्तर सरकार को देना चाहिए?
लीडरों की भीड़ यहां, फॉलोअर कोई नहीं!
महाराष्ट्र में हमेशा कोई न कोई चुनाव होता रहता है. लोकसभा, विधानसभा, ग्राम पंचायत और स्थानीय निकायों के चुनावों की तरह यहां सहकारी चीनी मिलों, ज़िला सहकारी बैंकों और कृषि
उत्पादन बाज़ार समितियों के चुनावों में भी धन-बल का प्रभाव देखा जा सकता है. पिछले दिनों मराठवाड़ा में सहकारी चीनी मिलों की चुनावी सरगर्मियां ज़ोरों पर थीं. ग़ौरतलब है कि यहां की अधिकांश सहकारी चीनी मिलों पर सूबे की राजनीति में सक्रिय बड़े सियासी घरानों का क़ब्ज़ा है. महाराष्ट्र में सत्तर और अस्सी का दशक सहकारिता आंदोलन के लिए जाना जाता है. यह आंदोलन महाराष्ट्र में का़फी सफल रहा है. इस दौरान बड़ी संख्या में सहकारी चीनी मिलों की स्थापना हुई. राज्य के हर ज़िले और तहसील स्तर पर ज़िला सहकारी बैंक खोले गए, लेकिन वर्ष 1990 के बाद ये तमाम सहकारी संस्थाएं भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गईं. आज हालत यह है कि मराठवाड़ा की आधे से अधिक चीनी मिलें बंद पड़ी हुई हैं. वहीं दूसरी ओर ज़िला सहकारी और मध्यवर्ती सहकारी बैंकों के पास किसानों को देने के लिए एक धेला तक नहीं है. सूबे में भारतीय जनता पार्टी हो या राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी या फिर शिवसेना, किसी को भी किसानों की समस्याओं से मतलब नहीं रह गया है. दरअसल, महाराष्ट्र एक प्रदेश होकर भी कई हिस्सों में बंटा हुआ है. पश्चिम महाराष्ट्र क्षेत्र से कोई मुख्यमंत्री बना, तो उसके ऊपर मराठवाड़ा और विदर्भ के साथ भेदभाव का आरोप लगता है. अगर कोई मराठवाड़ा का मुख्यमंत्री बना, तो उसके ऊपर बाकी क्षेत्रों की अनदेखी करने का आरोप लगता है. इन आरोपों की सच्चाई चाहे जो हो, लेकिन इससे बड़ा सच यह है कि मराठवाड़ा आज भी राज्य के बाकी हिस्सों की तुलना में काफी पिछड़ा हुआ है, जबकि इस क्षेत्र ने राज्य को चार मुख्यमंत्री दिए हैं. दरअसल, सूबे की सियासत में एक-दूसरे पर इल्ज़ाम लगाने की एक परिपाटी-सी बन चुकी है.
किसान कंगाल और आढ़ती मालामाल
जालना ज़िले की अंबड तहसील स्थित कृषि उत्पादन बाज़ार समिति का प्रांगण. यहां एक आढ़त पर चने की बोली लगाई जा रही थी. 3,000 रुपये प्रति क्ंिवटल से शुरू हुई बोली 4,000 रुपये पर ख़त्म हुई. 4,000 रुपये में जिस उत्तम क्वालिटी का चना आढ़ती ने किसान से ख़रीदा, उसी का भाव जालना और औरंगाबाद की अनाज मंडियों में 5,000 रुपये से लेकर 5,500 रुपये तक था. कृषि उत्पादन बाज़ार समितियों में किसानों का किस तरह शोषण होता है, यह उसकी एक बानगी थी. बाज़ार समितियों के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का पद कितना अहम और मालदार होता है, इसकी झलक यहां होने वाले चुनावों में सा़फ देखी जा सकती है. इन चुनावों में पानी की तरह पैसा बहाया जाता है. चूंकि बाज़ार समितियों के चुनाव दलीय आधार पर नहीं लड़े जाते, लेकिन उम्मीदवारों को विभिन्न राजनीतिक दलों और आढ़तियों का भरपूर समर्थन मिलता है. चुनाव जीतने के बाद बाज़ार समिति के पदाधिकारी किसानों के बजाय आढ़तियों के हितों के लिए काम करते हैं. मराठवाड़ा के किसान एक तऱफ प्रकृति की मार झेल रहे हैं, दूसरी तऱफ अनाज व्यापारी उनका शोषण कर रहे हैं. अंबड बाज़ार समिति से एक गांव की दूरी औसतन पांच से दस किलोमीटर है. कोई किसान जब अपनी बैलगाड़ी पर चना, ज्वार, बाजरा, उड़द और अरहर लादता है, तो उस समय उसे मालूम नहीं होता है कि बाज़ार में उसकी ़फसल को क्या भाव मिलेगा. महाराष्ट्र की मंडियों में खाद्यानों का भाव चाहे कितना ही अधिक क्यों न हो, लेकिन बाज़ार समितियों में किसानों को वही भाव मिलता है, जो आढ़ती लॉबी चाहती है. अनाज के बिचौलियों का नेटवर्क गांवों से शुरू होता है और बरास्ते बाज़ार समिति देश की बड़ी अनाज मंडियों तक पहुंचता है. सरकार को मालूम है कि इसमें कौन-कौन शामिल है, लेकिन वह इस पर अंकुश नहीं लगाती, क्योंकि राजनीति और सरकार कारोबारियों को नाराज़ करके नहीं चलाई जा सकती.
मराठवाड़ा के किसानों का अर्थशास्त्र
वर्ष 1972 में मराठवाड़ा में भीषण अकाल पड़ा था, लेकिन उन दिनों किसान आत्महत्या की एक भी घटना नहीं हुई थी, क्योंकि उस समय नगदी ़फसलों का प्रचलन नहीं था. मराठवाड़ा के किसानों का अपना एक अर्थशास्त्र भी है. यहां गन्ना, मौसम्मी और अनार की खेती प्राय: वही किसान करते हैं, जिनके पास खेती की अधिक ज़मीन है. ऐसे किसान दूसरे कारोबार भी करते हैं. पानी की कमी को पूरा करने के लिए ये संपन्न किसान लाखों रुपये की लागत से एक से अधिक कई गहरे बोरवेल लगाते हैं. एक पुष्ट गन्ना तैयार होने में क़रीब 180 लीटर पानी की आवश्यकता होती है. इस तरह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि सूखाग्रस्त मराठवाड़ा में गन्ना उगाने के लिए भूमिगत जल का किस पैमाने पर दोहन किया जाता होगा. मराठवाड़ा में आत्महत्या करने वाले किसानों की बात करें, तो इनमें गन्ना, मौसम्मी और अनार की खेती करने वाले बड़े किसानों की संख्या शून्य है. आत्महत्या करने वाले सर्वाधिक ऐसे किसान हैं, जो मुख्य रूप से कपास, सोयाबीन, ज्वार एवं बाजरा इत्यादि की खेती करते हैं. दरअसल, ऐसे किसान बरसात के भरोसे खेती करते हैं. बैंक और साहूकारों से क़र्ज़ लेकर खेती करना इनकी नियति बन चुकी है.
मुआवज़ा के बजाय ठोस कृषि नीति बने
महाराष्ट्र में आत्महत्या करने वाले किसानों के परिवारीजनों को राज्य सरकार की ओर से एक लाख रुपये का मुआवज़ा मिलता है. उक्त राशि में मृत किसान के आश्रितों को 30 हज़ार रुपये नगद मिलते हैं, शेष 70 हज़ार रुपये की राशि को आश्रितों के नाम पर फिक्स कर दिया जाता है. अब राज्य की नई भाजपा सरकार मुआवज़ा राशि को एक लाख रुपये से बढ़ाकर पांच लाख रुपये करने की योजना बना रही है. अगर सरकार इस मसौदे को अमल में लाती है, तो इसके दीर्घकालिक परिणाम का़फी गंभीर हो सकते हैं. सरकार को इसका सियासी ़फायदा तो मिलेगा, लेकिन किसानों को भविष्य में इसकी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ेगी. दरअसल, देश के किसानों को मुआवज़े से अधिक ठोस कृषि नीति की ज़रूरत है. केंद्र में सरकार किसी की हो, उसकी कृषि नीति किसानों से ज़्यादा व्यापारियों के लिए फायदेमंद रही है. अक्सर यह देखा गया है कि रबी और ख़रीफ की फसल तैयार होने के समय भाव अचानक कम हो जाता है. किसानों को हर हाल में अपनी ़फसल बेचनी होती है, क्योंकि एक तो उन्हें महाजनों का क़र्ज़ चुकाना पड़ता है, दूसरा यह कि अनाज रखने के लिए उनके पास पर्याप्त जगह नहीं होती. किसानों की इस मजबूरी का सीधा लाभ व्यापारियों को मिलता है. किसानों के घर से एक-एक दाना कम भाव में ख़रीद लेने के बाद बिजनेस लॉबी की चहलक़दमी नई दिल्ली स्थित केंद्रीय मंत्रालयों में बढ़ जाती है. इसके बाद शुरू होता है कारोबार का गंदा खेल. कपास और चीनी का निर्यात करना कारोबारियों, केंद्रीय मंत्रियों और मंत्रालय के सचिवों के लिए कब फायदेमंद होगा, इसकी पटकथा नई दिल्ली में लिखी जाती है. आज़ादी के बाद देश में जितनी भी सरकारें बनी हैं, उन सबने मुआवज़े के नाम पर किसानों को ठगा है. देश के करोड़ों किसानों को सरकार से मुआवज़ा नहीं, बल्कि फसल की सही क़ीमत चाहिए. किसानों को उचित सब्सिडी और सभी ़फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य चाहिए. भूमंडलीकरण का सबसे अधिक फायदा देश के व्यापारी उठा रहे हैं, जबकि इसका सबसे ज़्यादा नुक़सान किसानों को झेलना पड़ रहा है. थोड़े-बहुत मुआवज़े से किसानों की हालत में सुधार नहीं हो सकता.
सस्ती कार और महंगी खेती
चौथी दुनिया के पास एक जांच रिपोर्ट की प्रति मौजूद है. यह रिपोर्ट विभिन्न बैंकों द्वारा किसानों को खेती के लिए दिए गए क़र्ज़ पर ब्याज वसूलने को लेकर है. यह रिपोर्ट बताती है कि लगभग सारे बैंक किसानों से 13 फीसद तक सालाना ब्याज वसूले हैं. ग़ौरतलब है कि अगर एक लाख रुपये प्रतिमाह कमाने वाले किसी व्यक्ति को एक कार या बंगला लेना हो, तो उसे अधिक से अधिक 10 से 11 फीसद ब्याज देना होता है. मराठवाड़ा के लातूर ज़िले में किसानों को सात ़फीसद से अधिक ब्याज दरों पर क़र्ज़ देने वाले 13 सरकारी बैंक और तीन निजी बैंक हैं, जैसे यूनाइटेड कमर्शियल बैंक, देना बैंक, इलाहाबाद बैंक, आईडीबीआई बैंक, महाराष्ट्र ग्रामीण बैंक, बैंक ऑफ इंडिया, इंडियन बैंक, आंध्रा बैंक, यूनियन बैंक ऑफ इंडिया, केनरा बैंक, बैंक ऑफ बड़ौदा, स्टेट बैंक ऑफ हैदराबाद, बैंक ऑफ महाराष्ट्र, एक्सिस बैंक और एचडीएफसी बैंक. जबकि आईसीआईसीआई बैंक ने इस बाबत कोई रिपोर्ट जांच समिति के पास नहीं भेजी है.
का बरखा जब कृषि सुखाने
महाराष्ट्र सरकार के जल संरक्षण विभाग (औरंगाबाद मंडल) ने 29 अप्रैल, 2015 को टाइम्स ऑफ इंडिया अख़बार में वर्ष 2014-15 के लिए ई-निविदा संख्या- बी-1/5 प्रकाशित कराई. उक्त निविदा में औरंगाबाद, हिंगोली, नांदेड़, बीड और उस्मानाबाद ज़िलों की 10 तहसीलों में सीमेंट नाला बांध (सीएनबी) के निर्माण के लिए कुल 727.39 लाख रुपये की प्राक्कलित राशि तय की गई. हैरानी की बात यह है कि उक्त ई-निविदा में कार्य समाप्ति का कोई ज़िक्र नहीं है. उक्त निविदा की तारीख़ और उसमें भाग लेने वाले ठेकेदारों के आवेदन की स्क्रूटनी की प्रक्रिया में ही मई महीना बीत जाएगा. इस इलाक़े में मानसून अमूमन जून में सक्रिय होता है. इस तरह मराठवाड़ा क्षेत्र में सीमेंट नाला बांध बनाने का काम अगर जून में शुरू होता है, तो इसे पूरा होने में कम से कम छह महीने या उससे अधिक समय लग सकता है. इस बाबत सवाल पूछे जाने पर लघु सिंचाई परियोजना ( जल संरक्षण) औरंगाबाद क्षेत्र के अधीक्षण अभियंता एसएच खरात ने बताया कि इससे पहले भी एक निविदा विभाग की ओर से प्रकाशित की गई थी, लेकिन स्क्रूटनी में कोई भी ठेकेदार सफल नहीं हुआ. लिहाज़ा विभाग ने पुन: ई-निविदा प्रकाशित की है. यह पूछे जाने पर कि मराठवाड़ा क्षेत्र में जालना सर्वाधिक सूखा पीड़ित ज़िला है, लेकिन वहां किसी तहसील में सीमेंट नाला बांध बनाने की योजना इस निविदा में नहीं है. इस पर खरात ने कोई संतोषप्रद उत्तर नहीं दिया. दिलचस्प बात यह है कि प्रशासन को इस तरह के कार्य मानसून शुरू होने से पहले पूरे कर लेने चाहिए, ताकि ख़री़फ ़फसल के समय किसानों को सिंचाई का लाभ मिल सके.
आत्महत्या करने वाले बटाईदार किसान अपात्र
बटाई पर खेती करने वाला किसान अगर फसल नाक़ाम रहने और क़र्ज़ की वजह से आत्महत्या करता है, तो उसके परिवारीजन सरकारी मुआवज़े के हक़दार नहीं हैं. महाराष्ट्र सरकार की इस मुआवज़ा नीति में अमानवीय पहलू की झलक सा़फ देखी जा सकती है. एक जनवरी, 2015 से लेकर 27 अप्रैल, 2015 के बीच मराठवाड़ा के आठ ज़िलों क्रमश: औरंगाबाद, जालना, परभणी, हिंगोली, नांदेड़, बीड, लातूर और उस्मानाबाद में कुल 268 किसानों ने आत्महत्या की. प्रशासन ने इनमें से 158 किसानों के परिवारीजनों को मुआवज़े का हक़दार माना और उन्हें एक लाख रुपये का मुआवज़ा दिया, जबकि 36 किसानों को प्रशासन ने अपात्र क़रार दिया. ऐसे किसान परिवारों को किसी तरह की सरकारी मदद नहीं दी गई. उल्लेखनीय है कि इन अपात्रों में भूमिहीन किसानों की संख्या अधिक है, जो दूसरे के खेतों में बटाई करते हैं. पिछले साल यानी एक जनवरी, 2014 से 31 दिसंबर, 2014 के बीच मराठवाड़ा के विभिन्न ज़िलों में 574 किसानों ने आत्महत्या की. इनमें से 429 किसानों के परिवारीजनों को सरकारी मुआवज़े का लाभ मिला, जबकि बाकी 143 किसानों को प्रशासन ने अपात्र क़रार दिया. देश में भूमिहीन बटाईदार किसानों की संख्या करोड़ों में है, लेकिन ऐसे किसानों को न तो बैंक कृषि क़र्ज़ देते हैं और न उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का लाभ मिल पाता है. ़फसल नाक़ाम होने पर भी उन्हें कोई सरकारी मदद नहीं मिलती. क़र्ज़ से दबा ऐसा किसान अगर आत्महत्या कर लेता है, तो उसे क़फन भी उधार के पैसों से नसीब हो पाता है. तकलीफदेह बात यह है कि बटाईदार किसानों की इस गंभीर समस्या पर सरकार चुप और संसद ख़ामोश है.