वर्ष 2004 में अमेरिकी महिला फ़िल्मकार जाना ब्रिस्की एवं जॉन कुफमैन ने सोनागाछी की यौनकर्मियों के बच्चों पर एक डाक्युमेंट्री फ़िल्म बनाई-बोर्न इनटू ब्रोथेल्स. इसे साल की सर्वश्रेष्ठ डाक्युमेंट्री फ़िल्म का अवार्ड मिला. 2004 में इसे लेकर कुछ वैसा हो-हल्ला मचा, जैसे इस वर्ष स्लमडॉग मिलेनियर को लेकर मचा था. इनके बच्चों को फोटोग्राफी सिखाने के बहाने दोनों फ़िल्मकारों ने यौनकर्मियों की अंतरंग ज़िंदगी के भीतर तक झांका. एक बच्चे को तो एमस्टर्डम की फोटोग्राफी कान्फ्रेंस तक में भेजा गया. इस फ़िल्म ने दोनों हाथों से डॉलर कमाए और एक हिस्सा सोनागाछी की यौनकर्मियों के बच्चों के लिए भी खर्च किया.
उक्त बच्चे कुछ समय तक लाइम लाइट में रहे और फिर सारा मामला जस का तस हो गया. कुछ जमालों और लतिकाओं की ज़िंदगी में कुछ समय के लिए बहार आई, पर बाक़ी बच्चों को अभी भी किसी तारणहार का इंतज़ार है.
फ़िल्मकारों ने इन फोटोग्राफर बच्चों के कपड़ों में छिपे हुए कैमरे लगाए और तब पता चला कि यौनकर्मियों के बच्चों का बचपन कितना दर्दनाक होता है. ग्राहक को संतुष्ट कर रही यौनकर्मी और बैकग्राउंड में चीखते दुधमुंहे बच्चे की आवाज़.
फ़िल्म के जारी होने के बाद कुछ स्वयंसेवी संगठनों ने इस फ़िल्म के खिलाफ़ आवाज़ भी उठाई. कहा गया कि यौनकर्मियों को बेरहम दिखाया गया है. वे कितनी संगठित हो रही हैं या उनमें अपने अधिकारों के प्रति कितनी जागरूकता है, इस बारे में फ़िल्म में कुछ नहीं कहा गया.
कोई शक़ नहीं कि इन फ़िल्मकारों का इरादा भी पश्चिमी बाज़ार में भारत की गंदगी को बेचना था, पर परदे पर बच्चों की असल ज़िंदगी साफ़-साफ़दिखी. स्वयंसेवी संगठनों के दो-चार होम और दो-चार स्कूल खोल देने भर से इनकी ज़िंदगी बदलती नहीं दिखती. इनमें से ज़्यादातर संगठनों के प्रयास केवल एक प्रतीक अथवा प्रेरणा पैदा करते हुए प्रतीत होते हैं. कुछ बच्चे माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक और दस-बीस स्नातक स्तर तक पहुंच जाते हैं, लेकिन हालात से मजबूर होकर वे फिर उन्हीं अंधेरी गलियों में चले आते हैं. ताउम्र अपनी पहचान छिपाने की कोशिश चलती है और वे खुद को कभी सामान्य महसूस नहीं कर पाते. स्वयंसेवी संस्थाओं की प्रेरणा से कुछ बच्चे अपने जन्मदिन पर हैप्पी बर्थ डे टू यू वाला अंग्ऱेजी गाना भले ही गा लेते हों, पर अभी तक ऐसा कुछ नहीं हो सका है, जिससे इन बच्चों के भविष्य के प्रति आश्वस्त हुआ जा सके.
हां, कुछ ऐसे बच्चे भी हैं, जो हालात बदलने में लगे हैं. कोलकाता के कालीघाट की एक यौनकर्मी की संतान मृणाल कांति दत्त उर्फ़ बाच्चू को भी कहां पता था कि ईश्वर उन्हें किसी यौनकर्मी के गर्भ से पैदा करेगा, लेकिन ताउम्र मुंह छुपाकर जीने का शाप वह नहीं भोगना चाहता था. वह आज अपना जन्मदिन इसलिए मनाता है कि उसे अपने जैसे लाखों बच्चों को एक नई राह दिखानी है. बचपन में बाच्चू की मासूम आंखों ने देखी हैं शोषण और अत्याचार की अनगिनत वारदातें. पुलिस, गुंडों, मौसियों और दलालों की चौकड़ी से घिरी यौनकर्मी किस तरह हर समय क़त्लगाह के पशु की तरह थर-थर कांपती है. कभी इन बदनसीब औरतों में उसकी मां भी होती थी. मां को रोते देख उसका बाल मन भी बग़ावत कर उठता. उसने इस चौकड़ी के खिलाफ़ लोहा लेने की ठानी. उसे सोनागाछी प्रोजेक्ट के मुखिया डॉ. स्मरजीत जाना का साथ मिला. तमाम बाधाओं के बावजूद कॉलेज तक पहुंचने वाले बाच्चू ने दो किताबें भी लिखी हैं, जिनमें महिला और पुरुष यौनकर्मियों की पीड़ा और संघर्ष की आंखों देखी कहानियां दर्ज़ हैं. यौनकर्मीदेर जीवन सत्य और वृहन्नालादेर जीवन सत्य नामक पुस्तकों में उसने बचपन से जवानी तक देखे और भोगे गए यथार्थ को पेश किया है.
बाच्चू ने एक ऐसे समाज में आंखें खोली थीं, जहां लड़कों के जन्म पर उतनी खुशी नहीं होती, जितनी लड़की के जन्म पर. लड़की जनने वाली एक मां अपने भविष्य को सुरक्षित मानकर भले ही कुछ समय के लिए संतुष्ट हो जाती हो, मगर बच्चों के बड़े होने पर वह उन्हें उनके पिता का नाम नहीं बता पाती. समाज ने ऐसी माताओं को पतिता का नाम दिया है. कोलकाता के कालीघाट, जहां पूरे देश के लोग मां काली का दर्शन करने के लिए आते हैं, से सटी एक बदनाम बस्ती में जन्मा बाच्चू जैसे-जैसे बड़ा होता गया, इस अभिशाप से मुक्त होने की उसकी छटपटाहट बढ़ती गई.
बकौल बाच्चू, छोटी उम्र में मुझे अपनी पहचान के बारे में नहीं पता था. कुछ बड़ा होने पर मां ने चेतला के एक स्कूल में भेज दिया, पर पहचान गोपनीय रही. जब मुझे सच का पता चला तो काफ़ी दु:ख हुआ, क्योंकि आ़िखर मैं एक नाजायज़ संतान था. फिर भी मैंने पढ़ाई जारी रखने की ठानी और मां के साथ ही रहने लगा. बारहवीं की परीक्षा पास करने के बाद मैंने कॉलेज में दा़खिला लिया. एक दिन कॉलेज के एक छात्र ने जब मुझे इस बदनाम बस्ती में देखा तो वह यही समझा कि मैं मौजमस्ती करने आया हूं. अगले दिन टोकने पर मैंने जब उसे सच बताया तो वह दंग रह गया. उस दिन के बाद से शर्म के मारे मैं कॉलेज नहीं गया. जिद करने पर मां ने मेरे पिता के बारे में भी बताया, जो एक अच्छे परिवार से थे. उन्होंने मां को संपत्ति का एक हिस्सा देने का वचन भी दिया था, मगर 1996 में उनका निधन हुआ तो श्राद्ध के कुछ दिनों बाद मां मुझे लेकर उनके घर गई और परिवारवालों को मेरे पिता के वचन की याद दिलाई. घरवालों ने हम दोनों को अपमानित करके भगा दिया. उसके बाद महीनों तक मैं खोया-खोया रहा. इसी दौरान विश्व स्वास्थ्य संगठन ने यौनकर्मियों की बस्तियों में कंडोम बांटने का कार्यक्रम चलाया. इसमें यौनकर्मियों एवं उनकी संतानों का सहयोग लेने का फ़ैसला हुआ तो मैं चुन लिया गया.
बाच्चू की ही अगुवाई में यौनकर्मियों को मजदूर का दर्ज़ा देने की मांग तेज़ हुई. 1999 में एक उल्लेखनीय र्सेंलता तब मिली, जब वाममोर्चा सरकार ने यौनकर्मियों के स्व-शासित निकाय को मंजूरी दे दी. इस निकाय का मक़सद रेडलाइट क्षेत्रों में लड़कियों का शोषण रोकना और यौनकर्मियों को दलालों, पुलिस और गुंडों से बचाना था. यह आज भी सक्रिय है और इसमें राज्य सरकार के सामाजिक कल्याण विभाग एवं राज्य महिला आयोग के कर्मचारी भी शामिल हैं.
बाच्चू ने तय किया कि वह अपनी पहचान सार्वजनिक कर यौन कर्मियों के लिए काम करेगा. सोनागाछी प्रोजेक्ट के निदेशक डॉ. स्मरजीत जाना ने बाच्चू के भीतर की आग को समझा और उसे प्रोत्साहित किया. उन्हीं की कोशिशों से यौनकर्मियों की दुर्वार महिला समन्वय समिति का गठन हुआ. जुलूसों के शहर कोलकाता में अपनी विभिन्न मांगों के समर्थन में यौनकर्मी भी सड़कों पर उतरने लगीं. एड्स के खिलाफ़ रैली हो या दुनिया में कहीं भी मानवाधिकारों का हनन, समाज की मुख्य धारा में आने की छटपटाहट लिए यौनकर्मियों ने अपनी आवाज़ बुलंद की और इन सबके पीछे बाच्चू जैसे नेता की भूमिका अहम थी. बाच्चू के लिए वह दिन अहम था, जब उसे विश्व बैंक और सरकार द्वारा संयुक्त रूप से चलाए जाने वाले एचआईवी-एड्स इंटरवेंशन प्रोग्राम का निदेशक बनाया गया. आज बाच्चू की मां नहीं है, पर वह आंसुओं से तर अंधेरी ज़िंदगियों में उजाला लाने का काम करके अपनी मां को श्रद्धांजलि देने में जुटा है.