page-8दोस्तो,

मैं शेख अब्दुल्ला का शुक्रगुज़ार हूं कि उन्होंने इस महत्वपूर्ण सम्मेलन के उद्घाटन के लिए मुझे बुलाया. शायद आपको मालूम हो कि मैं यहां आने से थोड़ा झिझक रहा था. दरअसल शुरू में मेरा फैसला नकारात्मक था, लेकिन दो बातों ने मुझे यहां आने पर राज़ी किया. पहला, शेख साहब के लिए मेरे मन में स्नेह और सम्मान और दूसरा, शायद मेरे दिल की गहराइयों से निकली बेलाग बातें, जहां एक ओर एक व्यावहारिक निर्णय तक पहुंचने में आपके लिए सहायक होंगी, वहीं दूसरी ओर भारत की आम राय को भी प्रभावित करेंगी और वो भी यहां के हालत को एक यथार्थवादी और रचनात्मक दृष्टिकोण से देखेंगे.

इस सम्मेलन के विषयवस्तु में शामिल महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहस करने से पहले मैं चाहूंगा कि इस राज्य और देश के अन्य भागों के उन लोगों के संबंध में कुछ कहूं, जो ये दावा करते हैं कि कश्मीर समस्या में अब हल करने के लिए कुछ भी नहीं बचा है. कश्मीर भारत का वैसा ही अभिन्न अंग है, जैसा उत्तर प्रदेश है. हालांकि वे तमाम लोग, जो इस विचार के प्रचारक हैं, वे भी दरअसल इस सवाल पर एकमत नहीं हैं. मिसाल के तौर पर एक तरफ भारतीय जन संघ है और दूसरी तरफ कांग्रेस और सरकार के कुछ लोग हैं, जो चाहते हैं कि आर्टिकल 370 को समाप्त कर दिया जाए और कश्मीर को पूरी तरह से भारत के साथ एकीकृत कर दिया जाए और देश के अन्य भागों के नागरिकों को वहां जाने और ज़मीन खरीद कर बसने की आज़ादी दी जाए. यहां मुख्यमंत्री जीएम सादिक जैसे लोग भी हैं, जो कहते हैं कि कश्मीर वास्तविक रूप से भारत का अभिन्न अंग है, हालांकि वे मानते हैं कि राज्य की स्वायत्तता का मामला बहस का मामला है. इस आम मुद्दे के कई नजरिये हैं, जैसे (क) जम्मू को राज्य से अलग कर देना चाहिए या (ख) इस क्षेत्र को राज्य के भीतर कुछ स्वायत्तता देनी चाहिए. इन दोनों नज़रियों के कुछ मध्यवर्ती नजरिए भी हैं.

दूसरी तरफ शेख अब्दुल्ला और उनसे जुड़े बहुत सारे लोग हैं, जो इस विचार पर सहमत नहीं हैं कि राज्य का अधिग्रहण (एक्सेशन) अंतिम और अटल है. अगर शेख साहब समान विचारों वाले चंद लोगों से घिरे एक ऐसे व्यक्ति होते, जिनका प्रभाव क्षेत्र छोटा होता, तो उनके विचारों को नज़र अंदाज़ किया जा सकता था. अगर ख्याली सोच को अलग कर दिया जाए, तो यह मानना पड़ेगा कि शेख अब्दुल्ला आज भी राज्य के एक प्रमुख व्यक्तित्व हैं. शायद यह तथ्य कुछ लोगों के लिए असुविधाजनक और अप्रिय हो, लेकिन हक़ीकत यह है कि आज भी घाटी और राज्य के कई दूसरे क्षेत्रों में उनका ज़बरदस्त जन समर्थन बरक़रार है. बहरहाल, ऐसे लोगों की एक बड़ी संख्या है, जो यह समझती है कि कश्मीर समस्या का समाधान तब तक नहीं हो सकता, जब तक समाधान में शेख साहब की भागीदारी न हो.

यहां आपको यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि 1947 में कश्मीर का भारत के साथ अधिग्रहण के लिए यदि कोई एक व्यक्ति सबसे अधिक ज़िम्मेदार है, तो वह है शेख मुहम्मद अब्दुल्ला. इस संदर्भ में एक ही तरह की दो ऐतिहासिक घटनाओं का ज़िक्र ज़रूरी है. आज़ादी के समय अविभाजित भारत के मुसलमानों का भारी बहुमत दो राष्ट्र के सिद्धांत को मानते हुए जिन्ना के पीछे खड़ा था. ऐसे में जो दो बेहतरीन अपवाद थे, वे थे उत्तर पश्‍चिम सीमांत प्रांत व जम्मू और कश्मीर के मुसलमान. इन दोनों क्षेत्रों के मुसलमानों ने अलग मुस्लिम देश की भावनात्मक मांग पर साथ देने से इंकार कर दिया था. यहां यह याद दिलाना ज़रूरी है कि ऐसा दो अत्यधिक धार्मिक, कद्दावर और करिश्माई नेताओं के कारण संभव हुआ. ये नेता थे खान अब्दुल गफ्फार खान और शेख अब्दुल्ला. इस राज्य से जुड़ी और खास बात है जिसकी ओर मैं उन लोगों का ध्यान आकृष्ट कराना चाहूंगा, जो यह दावा करते हैं कि कश्मीर के संबंध में कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसे हल करना है और वह बात है, घाटी में व्यापक रूप से लगातार पाया जाने वाला असंतोष. इस असंतोष का कुछ हिस्सा वैसा ही है, जो कमोबेश पूरे देश में पाया जाता है. लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि यह असंतोष मुख्य रूप से राज्य के राजनीतिक स्थिति की वजह से है. यह राजनीतिक स्थिति खास तौर पर शेख अब्दुल्ला से असहमति के कारण है और राज्य में विश्‍वसनीय लोकतंत्र और एक बेहतर सरकार के अभाव के कारण पैदा हुई है. राज्य में चुनाव से संबंधित कुछ अर्जियों पर हाल में आए फैसले यहां लोकतंत्र के संचालन की वास्तविक व्याख्या प्रस्तुत करते हैं.

मुझे लगता है कि वे सभी लोग जो ज़ोर-शोर से यह दावा करते हैं कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, उन्हें इस निरंतर व्याप्त असंतोष पर बहुत अधिक चिंतित होने की आवश्यकता है. लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि ऐसे लोगों में इस तरह की चिंता नहीं पाई जाती है. इनमें अधिकतर लोग यह समझते हैं कि नीतियों में बदलाव किए बिना समय के साथ इस समस्या का समाधान हो जाएगा. यह उनकी समझ में नहीं आता कि 21 वर्ष की अवधि गुज़र जाने के बाद भी इस समस्या का समाधान नहीं हुआ है और यदि मौकापरस्ती और अनिश्‍चितता की यही नीति जारी रही, तो समस्या का समाधान आने वाले 21 साल में भी नहीं हो पाएगा. यदि स्थिति को ऐसे ही नियंत्रण से बाहर जाने दिया गया और शेख अब्दुल्ला को ऐसे ही नज़रअंदाज़ किया गया, तो अतिवाद को बढ़ावा मिलेगा और इसके परिणाम बहुत भयानक होंगे.

कुछ ऐसे भी लोग हैं, जिनके नज़दीक हर समस्या का समाधान ताक़त के इस्तेमाल से किया जा सकता है. उनके लिए इसका बहुत कम महत्व है कि शेख अब्दुल्ला जनता में कितने लोकप्रिय हैं या उनके चाहनेवाले कितने नाराज़ हैं. ये समझते हैं कि ताक़त का इस्तेमाल इन सारी चीज़ों का मुकाबला कर लेगी. इस तरह की बचकाना और प्रतिक्रियावादी सोच एक खास तरह की मानसिकता को सहज रूप से पसंद आती है. लेकिन बड़े पैमाने पर ताक़त का इस्तेमाल, खास तौर पर कश्मीर जैसे संवेदनशील क्षेत्र में बहुत ही खतरनाक है. इससे जुड़ा एक और वास्तविक खतरा है. कश्मीर में लगातार ताक़त पर निर्भरता भारत के दूसरे क्षेत्रों में लोकतंत्र को कमज़ोर करेगी, सांप्रदायिकता को बढ़ावा देगी और देश की राजनीति और अर्थव्यवस्था ऐसे ज़ख्म बन जाएंगे, जिनसे हमेशा पीप रिसती रहेगी.

मैं आपको यह भी याद दिला दूं कि 1968 की दुनिया का मिज़ाज 1947 की दुनिया से बिल्कुल अलग है. इन बीच के वर्षों में नए कारक सामने आ गए हैं. इन कारकों ने कश्मीर समस्या के समाधान में शामिल मुद्दों को बदल दिया है. आत्मनिर्णय (प्लेबेसाइट) के अधिकार को भी बदली हुई परिस्थितियों के अनुसार कश्मीर की जनता की आज की ज़रूरतों के लिहाज़ से देखा जाना चाहिए. इसमें कोई शक नहीं कि आत्मनिर्णय के अधिकार के व्यापक और दूरगामी प्रभाव हैं, मिसाल के तौर पर हर व्यक्ति को अपनी जीवनशैली अपनाने और अपनी संस्थाओं का चरित्र निर्धारण का अधिकार है. लेकिन यह अत्यंत ही जटिल विषय है और एक आधुनिक नेशन स्टेट (राष्ट्र-राज्य) होने के संदर्भ में यह जटिलता और बढ़ जाती है. मैं नेशन स्टेट का प्रशंसक नहीं हूं. दरअसल मैं इसे एक अप्रचलित और पुरानी अवधारणा मानता हूं. लेकिन फिर इसका अस्तित्व है और आज भी यह लोगों के जज़्बात को भड़काती है और उन्हें एक सूत्र में जोड़ती है. यह अवधारणा धर्म, जाति, भाषा, संस्कृत और विचारधारा (यहां तक कि साम्यवादी विचारधारा) को भी प्रभावित करती है.

नेशन स्टेट के संदर्भ में किसी कौम या राष्ट्र को परिभाषित करना और भौगोलिक सीमा तय करना अत्यंत कठिन काम है. क्या कश्मीरी एक कौम हैं? अगर एक कौम हैं, तो फिर डोगरा और लद्दाखी कौन हैं? आप सीमा कहां खींचेंगे? आप एक नज़र दौड़ा कर खुद अपनी आंखों से देख सकते हैं कि वर्तमान नेशन स्टेट (चाहे वे जैसे भी वजूद में आए हों) अपने अंदर के किसी कौम द्वारा आत्मनिर्णय के अधिकार की मांग का किस दृढ़ निश्‍चय के साथ विरोध करते हैं.

ये बहुत ही मुश्किल तथ्य है, जिसका संज्ञान अवश्य लिया जाना चाहिए. चाहे ये किसी को पसंद हो या न हो. भारतीय नेशन स्टेट की रचना भी बंटवारे की त्रासदी (जिसने इसकी भौगोलिक सीमाएं तय की) के कारण अव्यवस्थित ढंग से हुई थी. भारत भी पाकिस्तान की तरह या किसी भी नेशन स्टेट की तरह शांतिपूर्वक या स्वेच्छा से किसी मांग पर अपने किसी हिस्से को टूट कर अलग नहीं होने देगा. आइए इस हकीक़त को मान लेते हैं. इसमें कोई शक नहीं कि आत्मनिर्णय के अधिकार को हासिल करने के लिए सैन्य ताक़त का इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन नेशन स्टेट से इस तरह से अलग हुआ हिस्सा उस समय तक अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकता, जब तक कोई दूसरा नेशन स्टेट अपने स्वार्थ के लिए उसकी मदद न करे. बहरहाल, इस तरह की संभावनाएं आज की बहस के लिए अप्रासंगिक हैं, क्योंकि मैं नहीं समझता कि यहां मौजूद लोगों में से कोई ऐसा व्यक्ति है, जो इस समस्या का सैन्य या हिंसात्मक समाधान का पक्षधर है.

ये कुछ अप्रिय और अपरिहार्य सच्चाइयां हैं. आपका मित्र और शुभचिंतक होने के नाते मुझे सच्ची बात कहनी ही पड़ेगी. इस सम्मेलन में उपस्थित लोगों को साफ़ तौर पर यह समझ लेना चाहिए कि (पाकिस्तान के साथ) 1965 की जंग के बाद कोई भी भारतीय सरकार उस समाधान को नहीं स्वीकार करेगी, जिसमें कश्मीर को भारतीय संघ से अलग रखा जाएगा या इसे और सकारात्मक ढंग से यूं कहा जा सकता है कि इस समस्या का समाधान भारतीय संघ की संरचना के अनुरूप ही तलाश करनी होगी. मेरे इस बयान से आपको आश्‍चर्य नहीं हुआ होगा, क्योंकि यह पहला मौक़ा नहीं है, जब मैंने सार्वजनिक रूप से ऐसी बात कही है. कम से कम आपमें से कुछ लोगों को यह जानना चाहिए कि इसी तरह के विचार उन अनगिनत लोगों के भी हैं, जो पिछले कई वर्षों से कश्मीर का एक सर्वमान्य समाधान निकलने के लिए प्रयासरत हैं.

जो मुख्य बातें, मैं आज आप लोगों के सामने रखना चाहूंगा, वह यह है कि इतने जटिल और गंभीर मुद्दे पर अपने नेताओं के साफ-सुथरे और बेलाग मशवरे के बिना जनता कैसे फैसला करेगी? मैं बहुत दृढ़ता से यह महसूस करता हूं और आप से जोर दे कर कहना चाहता हूं कि यही अवसर है, जब आप इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर आत्ममंथन कर एक निर्णय लेकर और जनता को अपनी बेलाग राय देकर आप अपना और जनता का क़र्ज़ उतार सकते हैं. मुझे नहीं लगता कि यहां उपस्थित नेताओं को जनता में जाकर यह बताने में कोई परेशानी होगी कि यहां जो फैसले लिए गए हैं, वह मौजूदा परिस्थिति में सबसे बेहतर विकल्प हैं. ये फैसले यहां शांति, खुशहाली और आत्मसम्मान की ज़मानत देंगे. यदि यह सम्मेलन राजनीतिक बहस की औपचारिकता मात्र नहीं है, बल्कि मौजूदा संकट से निकलने की एक रचनात्मक और ईमानदार कोशिश है, तो मैं समझता हूं कि यही समस्या के समाधान की ओर ले जाने वाला सबसे बुद्धिमतापूर्ण रास्ता है.

मेरा सुझाव एक और बड़ा सवाल खड़ा करता है. मेरे द्वारा सुझाए गए बिंदुओं की हद में समस्या का समाधान करने पर पाकिस्तान कैसी प्रतिक्रिया देगा? ये दलील अक्सर दी जाती है कि जबतक यहां की स्थिति से पाकिस्तान को संतुष्ट नहीं किया जाएगा, तबतक राज्य में शांति और सुरक्षा की कोई ज़मानत नहीं दे सकता. इसमें सच्चाई है. इसलिए आइए देखते हैं कि पाकिस्तान की संभावित प्रतिक्रिया क्या होगी. पाकिस्तान का सार्वजनिक रुख हमेशा से यही रहा है कि राज्य की जनता अपने भाग्य का फैसला करेगी. लिहाज़ा यदि आप यहां एक फैसला लेते हैं और जनता को इस पर राजी कर लेते हैं (मुझे इसमें कोई शक नहीं कि आप उन्हें राज़ी कर लेंगे) तो पाकिस्तान के पास आपत्ति का कोई उचित कारण नहीं बचेगा. दुनिया भी उस समझौते को मान लेगी, जो कश्मीर के लोगों को मान्य होगा, और अंतरराष्ट्रीय समुदाय पाकिस्तान को इस समझौते को मानने पर बाध्य कर देगा. अगर ऐसा हुआ, तो भारत-पाकिस्तान संबंधों के इतिहास में एक नए अध्याय की शुरुआत होगी.

आखिरी और सबसे महत्वपूर्ण सवाल मेरे सुझाव, जिनकी मैं यहां वकालत कर रहा हूं, पर भारत सरकार की संभावित प्रतिक्रिया क्या होगी? हालांकि मैं भारत सरकार की तरफ से नहीं बोल सकता, लेकिन मुझे इसमें कोई शक नहीं कि आपके इन सुझावों को स्वीकार करते ही भारत सरकार और आपके प्रतिनिधियों के बीच सार्थक बातचीत का रास्ता साफ़ हो जाएगा. ऐसी स्थिति में राज्य के जो दूसरे नेता हैं और जिन्होंने इस सम्मेलन में हिस्सा नहीं लिया है, वे भी आपके साथ शामिल होकर आपकी ताक़त बढ़ा सकते हैं. ऐसा हुआ तो, मुझे लगता है कि यहां एक नया सूरज उदय होगा.

यह सवाल कि भारतीय संघ में राज्य की संवैधानिक हैसियत को संघ द्वारा एकतरफा तौर पर समाप्त नहीं किया जाएगा? एक ऐसा सवाल है, जिस पर बहस होनी बाकी है. लेकिन इस तरह की बहस के लिए यह उचित जगह नहीं है, बल्कि यह बहस भारत सरकार के प्रतिनिधियों के साथ बातचीत के टेबल पर होनी चाहिए. मुझे मालूम है कि देश के कुछ हल्कों में यह राय है कि किसी भी राज्य को विशेष रियायत नहीं दी जानी चाहिए, लेकिन मुझे शक है कि भारत के बदले हुए हालात में इस तरह के विचार पर कायम रहा जा सकता है. अक्सर ऐतिहासिक कारणों से आम चलन में बदलाव की आवश्यकता होती है.

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