old-laws_08_09_2014क्या आप इंडिया ट्रेजर ट्रोव एक्ट-1878 के बारे में जानते हैं? इस क़ानून के मुताबिक, अगर किसी को सड़क पर 10 रुपये या इसके बराबर मूल्य का ज़मीन के अंदर दबा कोई खज़ाना मिलता है, तो उसे इसकी सूचना वरिष्ठ स्थानीय अधिकारी को देनी होगी, क्योंकि इस पर केवल इंग्लैंड की मलिका का अधिकार होगा. उसी तरह दि बंगलौर मैरिजेज वेलिडेटिंग एक्ट-1934 एक पादरी द्वारा कराई गई शादियों को मान्यता देने के लिए बनाया गया था. दि इंडियन पोस्ट ऑफिस एक्ट-1898 के तहत संघीय सरकार को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पत्र भेजने के विशेषाधिकार दिए गए थे, लेकिन अब भारत में कुरियर कंपनियों ने चिट्ठियों की बजाय दस्तावेज़ भेजने शुरू कर दिए. दि संथाल परगना एक्ट-1855, दि शेरिफ फीस एक्ट-1852, कॉफी एक्ट-1942 और रबर एक्ट आदि इसी तरह के दूसरे क़ानून हैं. दि न्यूजपेपर (प्राइस एंड पेज) एक्ट-1956 अख़बारों की क़ीमत, पृष्ठ और समाचार एवं विज्ञापन का अनुपात तय करने के लिए बना था, जिसका आज कोई औचित्य नहीं है. इसी तरह यंग पर्सन्स (हार्मफुल पब्लिकेशंस) एक्ट-1956 युवाओं के लिए हानिकारक समझे जाने वाले प्रकाशनों के प्रसार पर रोक लगाने के उद्देश्य से बनाया गया था. आज़ादी के बाद के आपात स्थिति से निपटने के लिए भी कुछ क़ानून बनाए गए थे, जिन्हें आज की तारीख में बरक़रार रखने का कोई औचित्य नहीं है. मिसाल के तौर पर एक्सचेंज ऑफ प्रिजनर्स एक्ट-1948, विस्थापित लोगों के पुनर्वास के लिए (भूमि अधिग्रहण) अधिनियम-1948 और इंडियन इंडिपेंडेंस पाकिस्तान कोर्ट्स (पेंडिंग प्रोसेडिंग्स) एक्ट-1952, जो आज बिल्कुल अप्रासंगिक हो गए हैं.

वास्तव में उक्त क़ानून अनावश्यक हैं, जिनका इस्तेमाल न केवल आम लोगों को परेशान करने के लिए किया जाता है, बल्कि ये हमारे देश में चलने वाली लंबी क़ानूनी प्रक्रिया को और जटिल बना देते हैं. ये क़ानून भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा देते हैं, क्योंकि आम लोग लंबी क़ानूनी प्रक्रिया से बचने के लिए किसी अधिकारी-कर्मचारी को रिश्‍वत देना ज़्यादा आसान समझते हैं. खुद पूर्व क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद इस बात को मानते हैं कि ये ऐसे क़ानून हैं, जो हास्यास्पद हैं. लेकिन, अभी तक मोदी सरकार ने जो दो निरस्त एवं संशोधन विधेयक-2014 पेश किए हैं, उनमें ये क़ानून शामिल नहीं हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने चुनावी भाषणों में पुराने, अप्रासंगिक, विकास में बाधक और जनता को परेशान करने वाले क़ानूनों से पीछा छुड़ाने की बात की थी. उन्होंने सत्ता संभालते ही अपने मंत्रियों को पहले 100 दिनो के कार्य का लक्ष्य निर्धारित करने का आदेश दिया था. इसके तहत उन्होंने तत्कालीन क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद को प्राथमिकता के आधार पर ऐसे क़ानूनों की पहचान करने की ज़िम्मेदारी सौंपी थी, जो बेकार हो चुके हैं. इस संदर्भ में प्रधानमंत्री ने बीते साल अगस्त महीने में आर रामानुजम की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की थी, जिसे पिछली एनडीए सरकार द्वारा 1998 में गठित प्रशासनिक क़ानूनों की समिति द्वारा सूचीबद्ध किए गए 1,382 अप्रासंगिक क़ानूनों की समीक्षा का काम दिया गया था. इन 1,382 क़ानूनों में से अब तक केवल 415 क़ानून ही रद्द किए जा सके हैं. इसके अतिरिक्त प्रधानमंत्री ने विधि आयोग को भी पत्र लिखकर अपनी रिपोर्ट जल्द से जल्द पेश करने के लिए कहा था. वर्ष 2014 में 19वें और 20वें विधि आयोग ने संयुक्त रूप से अपनी रिपोर्ट पेश की, जिसमें उन्होंने 72 अप्रासंगिक हो चुके क़ानून रद्द करने की सिफारिश करते हुए 261 क़ानून समाप्त करने पर विचार किए जाने की बात कही थी. निजी तौर पर भी लोगों ने इस संबंध में अपनी तरफ़ से ऐसे क़ानूनों की सूची प्रकाशित की, जो आज अप्रासंगिक हो चुके हैं.
बहरहाल, सरकार की इसी प्राथमिकता के मद्देनज़र वर्ष 2014 में लोकसभा में दो विधेयक पेश किए गए. निरस्त एवं संशोधन विधेयक-2014 पेश करते समय तत्कालीन क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा था कि इस देश में कुछ ऐसे क़ानून भी हैं, जो न केवल अप्रासंगिक हैं, बल्कि हास्यास्पद हैं. उस वक्त उन्होंने ऐसे कई क़ानून गिनाए. लेकिन, पेश किए गए विधेयक में कुल 36 क़ानून शामिल थे, जिनमें 32 संशोधन अधिनियम और केवल चार मूल अधिनियम थे. फिलहाल यह विधेयक संसद की स्थायी समिति के पास है. उसके बाद सरकार ने निरस्त एवं संशोधन (द्वितीय) विधेयक-2014 लोकसभा में पेश किया, जिसे ध्वनि मत से पारित कर दिया गया. इस विधेयक में 88 ऐसे संशोधन अधिनियमों को क़ानून की किताब से हटाने की बात कही गई है, जो अप्रासंगिक हो चुके हैं और जिन्हें एक अलग अधिनियम के तौर पर रखना ज़रूरी नहीं है. कांग्रेस और सीपीआई (एम) इस विधेयक के मसौदे को भी संसद की स्थायी समिति को भेजे जाने की मांग कर रहे हैं, लेकिन सरकार का कहना है कि चूंकि इस विधेयक में किसी मूल अधिनियम को हटाने की बजाय अधिनियम संशोधनों को हटाने की बात कही गई है, इसलिए इसे स्थायी समिति को भेजने की आवश्यकता नहीं है. सरकार का स्पष्टीकरण तर्कसंगत लगता है.
अब तक अप्रासंगिक और अनावश्यक क़ानूनों को ख़त्म करने के लिए जो दो विधेयक पेश किए गए, वे बुनियादी तौर पर बेकार हो चुके संशोधन अधिनियमों को ख़त्म करने की वकालत करते हैं. चूंकि इनमें से ज़्यादातर संशोधन अधिनियम पहले से ही मूल अधिनियम में शामिल किए जा चुके हैं, इसलिए इसे अधिक से अधिक भर्ती के क़ानूनों से छुटकारा और क़ानून की भाषा में सुधार कहा जा सकता है. जिन क़ानूनों की अप्रासंगिकता की बात रविशंकर प्रसाद कर रहे थे, उनमें से ज़्यादातर को नहीं छेड़ा गया है. पूर्व क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद और वर्तमान क़ानून मंत्री डीवी सदानंद गौड़ा, दोनों ने अपने-अपने विधेयक पेश करते हुए कहा कि बेकार हो चुके क़ानून समाप्त करने के लिए जल्द ही दूसरा विधेयक लाया जाएगा. सरकार ने प्राथमिकता के आधार पर फिलहाल तक़रीबन 1,400 क़ानून रद्द करने का लक्ष्य रखा है. कुछ विधि विशेषज्ञ तक़रीबन 3,000 कानूनों को अनावश्यक क़ानून के दायरे में रख रहे हैं. लेकिन, अब तक की कार्यवाही से नतीजा यह निकलता है कि सरकार इन क़ानूनों से छुटकारा हासिल करना तो चाहती है, लेकिन अभी जल्दबाजी नहीं दिखा रही, जो अच्छी बात है. बावजूद इसके सवाल यह है कि ब्रिटिश हुकूमत के जमाने के उन क़ानूनों को, जिनमें इंग्लैंड की मलिका को संबोधित करके बात की बात गई हो, हटाने पर विचार करने की क्या ज़रूरत है?
बहरहाल, जिस गति से अप्रासंगिक क़ानून रद्द करने की प्रक्रिया चल रही है, उससे लगता है कि 1,000 क़ानून रद्द करने के लिए सरकार अपने पूरे कार्यकाल के दौरान यह कार्यवाही जारी रखना चाहती है या फिर जैसा कि अपने जापान दौरे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रेड-टेपिज्म (लाल फीताशाही) को रेड कार्पेट में बदलने की बात कही थी. आशंका तो यह है कि इस रेड कार्पेट के चक्कर में कहीं मज़दूरों और किसानों के अधिकार वाले क़ानून भी इन व्यर्थ क़ानूनों के साथ समाप्त न हो जाएं.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here