सबसे ख़तरनाक तर्क तो यह है कि कांग्रेस लीडरशिप की किसी भी आलोचना को भारत के मूलभूत विचारों जैसे धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र पर हमले की तरह लिया जाता है. यह विचार इंदिरा कांग्रेस के एकाधिकारवादी सोच का मूल विचार है. यह विचार आज़ादी की ल़डाई के दिनों में और उसके कुछ बाद के सालों में नहीं था, जब कांग्रेस एक समावेशी संगठन की तरह थी. उस समय लोकसभा क्षेत्र विभिन्न राजनीतिक विचारों की दुनियावी सभा के रूप में होते थे.
अमेरिका के पहले छह राष्ट्रपति स़िर्फ दो ही राज्यों से बने, मेसाचुसेट्स और वर्जिनिया से. देश के छठवें राष्ट्रपति दूसरे राष्ट्रपति के पुत्र थे. इस बात को लेकर विवाद भी हुआ, लेकिन इसके बावजूद राजीनति में शिष्टाचार के नियमों का पालन होता रहा. सातवें राष्ट्रपति एंड्रयू जैक्सन पश्‍चिमी सीमांत प्रांत के रहने वाले एक असभ्य व्यक्ति थे जो शिष्टता नहीं जानते थे, उन्होंने शिष्टाचार के किसी भी नियम का पालन नहीं किया. वे और उनके सहयोगी देश में आए नए-नए लोकतंत्र की हवा की तरह थे. जैक्सन ने जॉन क्विन्सी एडम्स को हराया था, जो पुराने संभ्रांत अमेरिकी समाज के आख़िरी राष्ट्रपति थे. इसके बाद अमेरिका एक लोकतंत्र के रूप में प्रौ़ढ होता गया और अपनी विशेष तरह की राजनीति के साथ आगे ब़ढता गया.
भारत में अभी तक 13 प्रधानमंत्री हो चुके हैं, जिनमें आठ उत्तर प्रदेश के रहने वाले थे. इनमें तीन एक ही परिवार से थे, इसके अलावा दो दक्षिणी राज्यों से, दो पंजाब से और एक गुजरात से. एक को छो़डकर सभी या तो कांग्रेस के सदस्य थे या कभी रहे थे. इन सभी में कुछ भिन्नता थी, लेकिन किसी ने भी पुराने राजनीतिक सांचे को तो़डने की कोशिश नहीं की. कांग्रेस भारतीय राजनीति में इस तरह व्याप्त है कि पार्टी की आलोचना करना पूरी राजनीति की आलोचना करने के समान लगता है. हालांकि, पार्टी ने 1989 में सत्ता पर अपने एकाधिकार को खो दिया था. 1969 के बाद कांग्रेस साधारण अर्थों में एक पार्टी नहीं रह गई थी. वह अपने नेतृत्वकर्ता परिवार की निजी सम्पत्ति की तरह हो गई थी. 1969 में पार्टी के विभाजन के बाद पार्टी के लिए इंदिरा कांग्रेस सबसे माकूल नाम था. पार्टी के नेतृत्वकर्ताओं पर बिना उंगली उठाए पार्टी की आलोचना करना एक दुरूह कार्य है. यह उस समय का पार्टी नेतृत्व ही था, जिसकी वजह से राजनीति, राजनीति न होकर एक व्यक्गित प्रतिशोध बन गई थी.
वर्तमान लोकसभा चुनाव पुराने राजनीतिक सांचे और आशाओं को तो़डने के मायनों में एक चुनौती की तरह है. नरेंद्र मोदी, अटल बिहारी वाजपेयी की तुलना में अधिक बाहरी हैं. वे लोग जो यह हल्ला मचाते हैं कि मोदी रैलियों में जुटने वाली भी़ड बाहरी लोगों की होती है. उनकी तुलना में कांग्रेस की रैलियों में आने वाले शिष्ट समूह निश्‍चित रूप से ज़्यादा हो-हल्ला मचाने वाले हैं. मोदी स्वयं में एक प्रभावशाली और कठोर शब्दों का इस्तेमाल करने वाले वक्ता हैं. उनकी यह भाषण देने की शैली कई क्षेत्रों में काफ़ी पसंद की जाती है. राम मनोहर लोहिया भी नेहरू के लिए काफ़ी क़डी भाषा का इस्तेमाल करते थे, जब भी उन्हें इसकी ज़रूरत महसूस होती थी. हिंदी भाषी क्षेत्रों में लोहिया के अनुयायियों ने भी ऐसी भाषण-शैली को अपनाया. लालू प्रसाद यादव उनमें से एक हैं. ऐसे लोगों के लिए जो यदा-कदा ही कुछ प़ढ पाते हैं, यह भाषण शैली मनोरंजक और जानकारी देने वाली होती है. ऐसे लोगों के लिए रैलियां एक राजनीतिक बुलेटिन की तरह होती हैं. वे अपने नेता के भाषण का आनंद उठाना चाहते हैं. मोदी एक ऐसे वक्ता हैं जो अपने भाषणों के दौरान लोगों से सीधे बात करते हैं. यही वह वजह है, जिसके कारण मोदी प्रभावी हैं और कांग्रेस शिकायत करती है कि उनके भाषणों में शिष्टता की कमी है. वहीं कांग्रेस पार्टी की हर आलोचना ऐसी होती है जैसे कोई पुराने नियमों को भंग कर रहा हो.
ऐसे लोगों को ब्रिटेन जाना चाहिए और देखना चाहिए कि वहां के राजनेता कितनी अवमानना और उपहास झेलते हैं. द गार्जियन अख़बार के जीनियस कार्टूनिस्ट स्टीव बेल प्रधानमंत्री कैमरून को लगातार अपने कार्टूनों में कंडोम की तरह प्रदर्शित करते हैं. वे जॉन मेयर का ऐसा कार्टून बनाते हैं, जिसमें मेयर का जांघिया पैंट के ऊपर दिखाई देता है. वे मेयर का मज़ाक उ़डाते हैं. नील किननॉक को वे अक्सर शलजम के रूप में प्रदर्शित करते हैं और कभी-कभी तो इससे भी ख़राब उपमाओं से नवाजते हैं. वहीं अमेरिका में टी-पार्टी समर्थकों के द्वारा राष्ट्रपति बराक ओबामा का उपहास इस बात को आधार बनाकर किया जाता है कि वे देश के मूल निवासी नहीं है.

भारत में अभी तक 13 प्रधानमंत्री हो चुके हैं, जिनमें आठ उत्तर प्रदेश के रहने वाले थे. इनमें तीन एक ही परिवार से थे. इसके अलावा दो दक्षिणी राज्यों से, दो पंजाब से और एक गुजरात से. एक को छो़डकर सभी  या तो कांग्रेस के सदस्य थे या कभी रहे थे. इन सभी में कुछ भिन्नता थी, लेकिन किसी ने भी पुराने राजनीतिक सांचे को तो़डने की कोशिश नहीं की.  

ज़रूरत से ज़्यादा इज़्ज़त दिया जाना लोकतंत्र के लिए अच्छी बात नहीं है. भारत को और खुली हुई राजनीतिक संस्कृति की ज़रूरत है, जहां नेताओं को जनता की आलोचनाओं के लिए तैयार रहना चाहिए, न कि उन्हें यह अपेक्षा करनी चाहिए कि उनके साथ पुराने राजाओं जैसा व्यवहार किया जाए.
सबसे ख़तरनाक तर्क तो यह है कि कांग्रेस लीडरशिप की किसी भी आलोचना को भारत के मूलभूत विचारों जैसे धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र पर हमले की तरह लिया जाता है. यह विचार इंदिरा कांग्रेस के एकाधिकारवादी सोच का मूल विचार है. यह विचार आज़ादी की ल़डाई के दिनों में और उसके कुछ बाद के सालों में नहीं था, जब कांग्रेस एक समावेशी संगठन की तरह थी. उस समय लोकसभा क्षेत्र विभिन्न राजनीतिक विचारों की दुनियावी सभा के रूप में होते थे. आज़ाद भारत की पहली कैबिनेट में कांग्रेस सदस्यों की तरह ग़ैर-कांग्रेसी भी थे और कांग्रेस विरोधी भी, जैसे अम्बेडकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी (जिन्होंने जनसंघ की स्थापना की). उस समय की प्राथमिकता क़ाबिलियत थी, न कि पार्टी के प्रति निष्ठा. उन्होंने एक भारत के विचार को प्रतिपादित किया, जो देश के मूल विचार से मिलता भी है, न कि किसी एक पार्टी से.
 

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