यूनिफॉर्म सिविल कोड का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर आकर विवादास्पद बन गया है. इस बार यह जिन्न किसी हमीद दलवाई या पांचजन्य के मुजफ्फर हुसैन की मांग पर नहीं निकला है, बल्कि स्वयं केंद्रीय विधि मंत्री रवि शंकर प्रसाद द्वारा उन्हीं की पार्टी भाजपा के सांसद योगी आदित्य नाथ के इससे संबंधित एक प्रश्न के उत्तर के दौरान सरकारी तौर पर बाहर आया है कि इस मुद्दे पर विभिन्न समूहों से परामर्श की आवश्यकता है. विधि मंत्री ने कहा कि संविधान की धारा 44 में यूनिफॉर्म सिविल कोड का प्रावधान है. इस संबंध में क़दम उठाने के लिए तमाम संबंधित समूहों से परामर्श किया जाएगा. स्पष्ट है कि केंद्रीय विधि मंत्री ने बीते 14 जुलाई को जो कुछ कहा, वह मात्र अचानक किसी सांसद के एक प्रश्न तक सीमित नहीं है, बल्कि उसके तार 29 पार्टियों वाली एनडीए सरकार का नेतृत्व कर रही भाजपा द्वारा संसदीय चुनाव से पूर्व 7 अप्रैल को जारी किए गए घोषणापत्र से जुड़ते हैं, जिसमें साफ़ तौर पर कहा गया है कि भाजपा को यकीन है कि लैंगिक समानता तब तक स्थापित नहीं हो सकती, जब तक कि भारत एक ऐसा यूनिफॉर्म सिविल कोड, जो तमाम महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा करता हो, को न अपनाए. भाजपा बेहतरीन नीतियों का वर्तमान समय से तालमेल रखते हुए यूनिफॉर्म सिविल कोड बनाने का अपना दृष्टिकोण दोहराती है.
चुनाव से पहले प्रसिद्ध उर्दू साप्ताहिक नई दुनिया को दिए गए एक इंटरव्यू में नरेंद्र मोदी ने कहा था कि संविधान कहता है कि सरकार यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने के लिए कोशिश करेगी. मैं इस बात को साफ़ कर देना चाहता हूं कि यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने का मतलब यह कदापि नहीं है कि देश के तमाम नागरिकों को हिंदू कोर्ट के अंतर्गत लाया जाएगा. मेरा तो विचार है कि हिंदू कोर्ट में ऐसे कई प्रावधान मौजूद हैं, जो अब अर्थहीन एवं अव्यवहारिक हो चुके हैं और उनमें सुधार की आवश्यकता है. अट्ठारहवीं सदी की विधियां ढोना अनावश्यक है. फिर एनडीए सरकार बनने के बाद कुछ मंत्री भी निजी तौर पर इस मुद्दे पर बोले. केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने कहा कि संविधान की धारा 370 एवं यूनिफॉर्म सिविल कोड पर बहस कराने में कोई हानि नहीं है. इस परिदृश्य में वर्तमान केंद्रीय विधि मंत्री की यह बात निश्चित रूप से स़िर्फ ध्यान देने योग्य नहीं, बल्कि चिंता का विषय है कि सरकार इस मुद्दे पर किसी उचित समय पर कोई ठोस बात पेश करेगी.
इन तमाम बातों से यह निष्कर्ष निकलता है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड का जिन्न बोतल से निकल कर बाहर आ चुका है. जहां तक मुस्लिम समुदाय का सवाल है, तो वह इस संबंध में बेहद संवेदनशील है. भाजपा द्वारा अपने चुनाव घोषणापत्र में यूनिफॉर्म सिविल कोड का मुद्दा शामिल करने से मुसलमानों में बेचैनी का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि सात अप्रैल को जारी होते ही यह उर्दू मीडिया में चर्चा का विषय बन गया और विभिन्न मुस्लिम विधि विशेषज्ञों ने इस पर अपनी राय प्रकट करना शुरू कर दिया. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड तो इस पर समय-समय पर नोटिस लेता रहा है. प्रसिद्ध मुस्लिम थिंक टैंक इंस्टीट्यूट ऑफ ऑब्जेक्टिव स्टडीज ने केंद्रीय विधि मंत्री द्वारा संसद में विचार व्यक्त करने से 20 दिन पहले यानी 25 जून को इस संबंध में एक गोष्ठी की, जिसमें अनेक मुस्लिम विशेषज्ञों एवं विद्वानों ने स्पष्ट रूप से कहा कि भारत में विभिन्न समुदायों के लिए विवाह, तलाक, नान नुफ्का, बच्चा गोद लेने और विरासत से संबंधित अलग-अलग क़ानून मौजूद हैं और उन्हें ही पर्सनल लॉ कहा जाता है. इसलिए विभिन्न धार्मिक समुदायों के पर्सनल लॉ को एक विधि में पिरोया या बांधा नहीं जा सकता. मुसलमान पूर्ण रूप से यह राय रखते हैं कि उन्हें यूनिफॉर्म सिविल कोड नहीं चाहिए और इस तरह का कोई भी प्रयास संविधान एवं विधि द्वारा प्रदत्त उनके पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप होगा.
चौथी दुनिया से बात करते हुए प्रसिद्ध विधि विशेषज्ञ एवं स्तंभकार एजी नूरानी ने इसे असंभव एजेंडा बताया. उन्होंने कहा कि असल समस्या अंग्रेजों द्वारा थोपे गए ग़ैर इस्लामी मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार की है, जिसे 1973 में बनाया गया था. बकौल नूरानी, एक सेक्युलर ढांचे में मुसलमानों के पर्सनल लॉ में कुरान एवं हदीस के अनुसार सुधार की आवश्यकता है, यूनिफॉर्म सिविल कोड द्वारा उसे समाप्त करने की आवश्यकता नहीं है. इस संबंध में विश्व प्रसिद्ध जे एन एनडर्सन की राय है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ पारिवारिक विधि है, जो हमेशा शरीयत के दिल का प्रतिनिधित्व करता है. यह विधि का वह हिस्सा है, जिसके बारे में मुसलमानों का विचार है कि इस पर अमल करने से वे अपने धर्म के भीतर दाखिल हो जाते हैं. यह सदियों से इस्लामी समाज का आधार बना हुआ है. यह मुस्लिम विधि का एकमात्र ऐसा हिस्सा है, जो अब भी अरबों (बिलियंस) मुसलमानों पर लागू होता है.
बंबई हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता एवं ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के विधि सलाहकार यूसुफ हातिम मुछाला का तो साफ़ तौर पर कहना है कि संविधान की धारा 44 भारत की विविधता के लिए ख़तरा है. वह कहते हैं कि कोई भी शख्स, यहां तक कि हिंदू भी यूनिफॉर्म सिविल कोड नहीं चाहते. उनका कहना है कि इस कोड की मांग की शुरुआत 1955 में हिंदू कोड बिल आने के बाद हुई, इससे पहले यूनिफॉर्म सिविल कोड वैकल्पिक था. हिंदू कोड बिल आने के बाद हिंदुओं के लिए भी पर्सनल लॉ की मांग शुरू हो गई. मुछाला इन्कम टैक्स एक्ट में हिंदू अविभाजित परिवार के लिए विशेष प्रावधान की चर्चा करते हुए कहते हैं कि हिंदू अविभाजित परिवारों को कुछ सुविधाएं एवं छूट हासिल हैं, जो ग़ैर हिंदू परिवारों को हासिल नहीं हैं. उन्होंने कृषि सीलिंग क़ानून के हवाले से कहा कि उसके अंतर्गत हिंदू अविभाजित परिवारों को छूट मिलती है, लेकिन मुसलमानों को नहीं. मुछाला का मानना है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड से केवल मुस्लिम नहीं, बल्कि अन्य समुदाय भी प्रभावित होंगे. वैसे यह हकीकत है कि संविधान की धारा 44 पर अमल करने से देश की विविधता एवं एकता के लिए ख़तरा पैदा होगा, क्योंकि इससे मुस्लिम समेत अन्य धार्मिक समुदायों के पर्सनल लॉ प्रभावित होंगे और उनकी वह पहचान ख़तरे में पड़ जाएगी, जिसकी गारंटी उन्हें संविधान की धारा 29 देती है. वैसे ग़ौरतलब है कि धारा 29 संविधान के बेसिक फीचर्स में शामिल है, जिसे परिवर्तित नहीं किया जा सकता. सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व जज की यह बात भी समझ से परे है कि मुसलमानों के साथ भेदभाव यूनिफॉर्म सिविल कोड के अस्तित्व में न होने की वजह से होता है. जबकि सच यह है कि उनके साथ भेदभाव के पीछे राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक कारण हैं. बहरहाल, हमारा राष्ट्र एक ऐसा चमन है, जिसमें अनेक तरह के फूल खिलते हैं. इन तमाम फूलों को अपनी-अपनी खुशबू के साथ ज़िंदा रहने का हक़ है. यूनिफॉर्म सिविल कोड जैसे प्रावधान लाकर देश की यह सुंदर तस्वीर तबाह नहीं करनी चाहिए. भाजपा के घोषणापत्र में इसकी मौजूदगी एवं केंद्रीय विधि मंत्री के वक्तव्य से मुसलमानों में जो चिंता पाई जा रही है, उसे मोदी सरकार को समझना चाहिए, तभी वह मुसलमानों एवं अन्य अल्पसंख्यकों को विश्वास में लेकर चल पाएगी.
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