रानी सरोज गौरिहार स्वतंत्रता संग्राम के गौरवमयी इतिहास को अपने आप में समेटे हैं. उनके साथ बातचीत करना ऐसा है मानो आप उस दौर को अपनी आंखों के आगे से गुजरते देख रहे हों.

उस क्रांतिकारी दौर की एक-एक तारीख उनकी यादों में ऐसा रचा-बसा है, जैसे यह कल की ही बात हो. 88 वर्ष की उम्र में भी समाजसेवा, साहित्य और संस्कृति को लेकर उनका उत्कट प्रेम लोगों को आश्चर्यचकित करता है.

जब वे छोटी थीं, तब एक बार बापू आगरा आए थे. तड़के सुबह से ही सेवादल के कार्यकर्ता गदहपाड़ा रेलवे स्टेशन पर जमे थे. लोग गांधीजी का जयकारा लगा रहे थे. बापू ट्रेन के दरवाजे पर खड़े थे. उनके ठीक पीछे दमकता हुआ सूरज उनके सिर पर गोल घेरा बना रहा था. ऐसा लग रहा था मानो ईश्वर का कोई दूत हमें आशीर्वाद दे रहा हो. वे बताती हैं कि बापू का आशीर्वाद तो मुझे बचपन में ही मिल गया था.

बचपन से ही घर में क्रांतिकारियों का आना-जाना लगा रहता था. उनके पिता पं. जगन प्रसाद रावत और मां श्रीमती सत्यवती रावत प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी थे. वे बताती हैं, बप्पा और मां का अधिकतर समय जेल में ही बीतता था. 1930 में जब वे छह माह की थीं, तब दोनों जेल में थे. बचपन से ही जेल में रहने और क्रांतिकारियों की सोहबत ने उनमें आजादी के प्रति एक जुनून भर दिया था. घर क्रांतिकारियों का अड्‌डा बना रहता था. वे बताती हैं कि उनका बचपन एक खानाबदोश की तरह बीता.

जब वे तीन साल की थीं, तब फिर बप्पा और मां दोनों को जेल हो गया. उस दौरान वे पिताजी के मित्र राधेश्याम शर्मा के घर बनारस में एक साल तक रहीं. बप्पा उनकी पढ़ाई को लेकर काफी चिंतित रहते थे. उन्होंने 1935 में शिक्षा-दीक्षा के लिए बड़ौदा गुरुकुल भेज दिया. 1937 में हरिपुरा अधिवेशन में पिता जी यहां आए हुए थे. बप्पा मुझे भी वहां अपने साथ लेते चले गए. बप्पा ने सरदार पटेल को बताया कि सरोज बड़ौदा गुरुकुल में पढ़ रही है. यह सुनते ही सरदार पटेल बप्पा पर नाराज हो गए. उन्होंने कहा कि बच्ची को कहां भेज दिए हो? उसे लौटते समय तुरंत साथ लेकर जाओ. मुझे भी नहीं पता कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा, पर इसके बाद मैं बप्पा के साथ लौट आई.

1937 चुनाव में पिताजी चुनाव जीतकर लखनऊ  चले गए. मेरा एडमिशन आगरा में सेंट जॉन्स गर्ल्स स्कूल में करा दिया गया. मैं छुट्‌टी के दिनों में अक्सर गली-कूचों में बच्चों का जुलूस निकालती. क्रांतिकारियों को कोई सामान या चिट्‌ठी पहुंचानी होती, तब कपड़ों में छिपाकर उन तक पहुंचा आती. उन्हीं दिनों क्विट इंडिया मूवमेंट को लेकर क्रांतिकारियों की सरगर्मियां तेज हो गई थी. बच्चों ने भी इस आंदोलन में क्रांतिकारियों का साथ देने का फैसला किया. स्कूल कैंपस में बच्चे यूनियन जैक को सलामी देते थे. हमने फैसला किया कि हम यूनियन जैक को सलामी नहीं देंगे. झंडे की सलामी के दौरान सभी लड़कियां शांत खड़ी रहीं. बच्चों के विरोध के बाद स्कूल को यह प्रोग्राम ही कैंसिल करना पड़ा.

9 अगस्त 1942 को बच्चों ने क्विट इंडिया मूवमेंट के समर्थन में स्कूल में एकदिनी हड़ताल का फैसला किया. प्रिंसिपल और कुछ शिक्षक भी अप्रत्यक्ष तौर पर हमारा समर्थन कर रहे थे. 7वीं और 8वीं के सभी बच्चे स्कूल की सीढ़ियों पर बैठ गए. केवल शिक्षकों को कक्ष में जाने दिया गया. सभी बच्चे दिन भर स्कूल की सीढ़ियों पर बैठे रहे. इस सफल हड़ताल ने हमारे उत्साह को और बढ़ा दिया.

वे बताती हैं कि फरवरी 1943 में हमने ब्रिटिश साम्राज्य के विरोध में व्यक्तिगत सत्याग्रह करने का फैसला किया. आगरा में केनारी बाजार में सुबह से ही भीड़ जुटनी शुरू हो गई थी. एक तरफ से मैं हाथ में तिरंगा लेकर क्रांतिकारियों के जुलूस का नेतृत्व करते हुए तिराहे पर पहुंची. दूसरी तरफ से मां सत्यवती रावत जुलूस का नेतृत्व कर रही थीं और तीसरी तरफ उदयन शर्मा की बड़ी बहन कमला शर्मा नेतृत्व कर रही थीं. कमला जी ने जैसे ही भाषण शुरू किया, पुलिस ने अचानक क्रांतिकारियों को चारों तरफ से घेर लिया. हम तीनों को गिरफ्तार कर डिस्ट्रिक्ट जेल भेज दिया गया. तीन माह बाद फिर मुझे लखनऊ  जेल भेज दिया गया. मां को बनारस जेल में ड़ेढ साल तक रखा गया.

एक साल बाद कारावास से छूटने के बाद आगरा के सभी हाईस्कूलों ने मुझे प्रवेश देने से मना कर दिया. तब पिताजी के मित्र लाजपत राय कपूर के कहने पर यह शर्त रखी गई कि छमाही परीक्षा पास करने के बाद ही प्रवेश दिया जाएगा. खैर किसी तरह छमाही परीक्षा पास कर ली और स्कूल में प्रवेश मिला. वे बताती हैं कि 10वीं कक्षा तक उन्होंने कांग्रेस की सभाओं में जाना शुरू कर दिया था. उस दौरान ब्रिटिश शासकों से समझौता वार्ता शुरू हो गया था. कांग्रेस के बड़े नेता भी जेल से छूटने लगे थे. उन्हीं दिनों 1945 में गोविंद वल्लभ पंत आगरा पहुंचे थे. उन्होंने स्कूल में सभी बच्चों से चवन्नी पैसे चंदा के रूप में जमा किए और पंतजी को 125 रुपए की थैली भेंट की.

उन दिनों बप्पा का लखनऊ  में ही रहना होता था. उनका भी लखनऊ  यूनिवर्सिटी में एडमिशन करा दिया गया. वहां भी उन्होंने छात्र राजनीति में सक्रिय भागीदारी की. जुगल किशोर जी लखनऊ  यूनिवर्सिटी के वीसी थे. सीवी गुप्ता मुख्यमंत्री और मुंशी जी गवर्नर थे. वे बताती हैं, हमलोग मीटिंग में नारे लगाते थे, मुंशी, गुप्ता, जुगलकिशोर, लखनऊ  के तीन चोर. हालांकि बप्पा उन दिनों मंत्रिमंडल में थे और मुंशी जी व सीवी गुप्ता के साथ भी हमारे घरेलू संबंध थे.

1955 में गौरिहार राजघराने के प्रताप सिंह जूदेव के साथ उनकी शादी हुई. इसके बाद उन्होंने मध्यप्रदेश की राजनीति में कदम रखा. 1957 में रविशंकर शुक्ला मुख्यमंत्री थे, जिनसे उनके करीबी संबंध थे. कांग्रेस से टिकट मिलना लगभग तय था. लेकिन रविशंकर शुक्ला जी का अचानक निधन हो गया और डॉ. द्वारिका प्रसाद मिश्रा मुख्यमंत्री बने. विरोधियों ने जोड़-तोड़ कर उनका टिकट कटवा दिया. 1967 विधानसभा चुनाव में 90 पंचायतों ने मेरे समर्थन में लिखकर दिया था, तब भी टिकट नहीं मिला. इसके बाद उन्होंने इंडिपेंडेंट चुनाव लड़ने का फैसला किया. इस चुनाव में तीनों प्रमुख पार्टियों, जिनमें सपा, जनसंघ और कांग्रेस थे, के उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई. मेरी जीत ने कांग्रेस में विरोधियों का मुंह बंद कर दिया.

इसी दौरान विजयराजे सिंधिया ने जनसंघ ज्वाइन कर लिया. मैंने जनसंघ में जाने से इंकार कर दिया तब उन्होंने बप्पा को मुझे समझाने के लिए कहा. इधर, अर्जुन सिंह भी बार-बार कांग्रेस में आने का निमंत्रण दे रहे थे. उस दौरान कांग्रेस विपक्ष में थी. वे बताती हैं, तब मैंने द्वारिका प्रसाद जी से कहा कि अब कांग्रेस को मेरी जरूरत है. मैंने कांग्रेस के साथ विपक्ष में बैठने का फैसला किया. इसके बाद वे पांच साल तक मध्यप्रदेश कांग्रेस महिला विभाग की संयोजिका और कांग्रेस समिति की सदस्या रहीं.

1972 में मध्यप्रदेश की राजनीति से अलग होकर वे सामाजिक और साहित्यिक गतिविधियों में लिप्त हो गईं. वे आगरा में ही रहने लगीं. वे बताती हैं कि यहां हर दिन दो-तीन किसी साहित्यिक सेमिनार या सभा में हिस्सेदारी करती. हालांकि अब उम्र ज्यादा होने के कारण उन्होंने सभा-सेमिनारों से दूरी बना ली है. उन्होंने मांडवी एक विस्मृता (खंड काव्य), आनन्द छलिया (पद संग्रह), नट नागर-रस आगर (पद और दोहे), नभ और धरा के बीच (काव्य संग्रह) भी लिखे हैं. सरोज गौरिहार के व्यक्तित्व और कृतित्व पर रीवा विश्वविद्यालय में शोध प्रबंध भी प्रकाशित हो चुका है. वर्तमान में वे नागरी प्रचारिणी सभा, संगीत कला केंद्र आगरा की सभापति और कई साहित्यिक व सामाजिक संस्थाओं की संरक्षिका हैं.

इसमें वनिता विकास, जिला ग्रामीण महिला संघ, चंबल घाटी लोकसेवा समिति, अखिल भारतीय महिला परिषद, गांधी आश्रम, उदयन शर्मा फाउंडेशन ट्रस्ट, महाकवि नीरज फाउंडेशन ट्रस्ट, आगरा महानगर लेखिका मंच, नारी अस्मिता समिति, महिला शांति सेना आदि शामिल हैं. राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें कई पुरस्कारों से भी सम्मानित किया जा चुका है. वे अमेरिका, फ्रांस, बेल्जियम, मॉरिशस और पाकिस्तान समेत कई देशों की यात्राएं कर चुकी हैं.

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