एक व़क्त था जबविदेश जाना बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जाती थी, लेकिन अब पूरा विश्व एक ग्लोबल विलेज में तब्दील हो चुका है. ग्लोबलाइजेशन से पूरे विश्व में वाद-विवाद का प्रसंग, तकनीकों का इस्तेमाल लगभग एक समान हो गया है. ज़ाहिर है, ऐसे में पढ़ाई का स्टैंडर्ड और तरीक़ा भी समान होना चाहिए. जिस प्रकार ग्लोबलाइजेशन ने जीवन के हर स्तर को छुआ है, पठन-पाठन भी इससे अछूता नहीं रहा है. ख़ास कर हाई-स्कूल के बाद की पढ़ाई, जिससे जीवन की दिशा निर्धारित होती है. ऐसे में ज़रूरी है कि सभी को एक समान शिक्षा दी जाए. पिछले कुछ व़क्तसे भारतीय छात्रों में यह ट्रेंड बन गया है कि वे विदेश जाकर शिक्षा प्राप्त करें, लेकिन कुछ छात्र अब भी ऐसे ़फैसले करने में हिचकिचाते हैं. दरअसल सवाल यह है कि जब उन विषयों की शिक्षा अपने देश में भी दी जा रही है तो विदेश क्यों जाएं? तो जवाब यह है कि नए माहौल की समझ विकसित करने के अलावा अंतरराष्ट्रीय शिक्षा की जरूरत भविष्य में नौकरी के व़क्तपड़ती है. पहले हमारे देश में विदेशों में दी जा रही शिक्षा की तरह बेहतरीन प्रणाली की शिक्षा का प्रावधान बिल्कुल कम था, और अब विदेशी शिक्षा का प्रसार इसलिए हो रहा है कि जिससे विदेशी शिक्षा का पूर्णतावादी आयाम सीखा जा सके. इससे व्यक्ति के माहौल के हिसाब से ढलने की और हर तरह के माहौल में काम करने की शक्तिबढ़ जाती है. इसी वजह से विदेशी शिक्षा का़फी महत्वपूर्ण हो गई है. कई कंपनियां अपने ब्रांच विदेशों में खोलती हैं. इस तरह की कंपनियां वैसे लोगों को प्राथमिकता देती हैं जो अपने देश के अलावा विदेश में भी काम करने में पूरी तरह सक्षम हों, वहां के माहौल से जुड़ पाएं और कंपनी के लिए बेहतरीन काम कर पाएं. ये लोग ग्लोबल जॉब मार्केट में आदर्श एम्प्लॉयी साबित होते हैं. विश्व के सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका के लोग भी एशिया और यूरोपीय देशों में जाकर पढ़ाई करते हैं. इसका मूल कारण है कि वह जानना चाहते हैं की वहां का आर्थिक तंत्र किस प्रकार काम करता है. इसके साथ ही वे वहां के लोगों के मानसिक और सामाजिक परिदृश्य को समझना चाहते हैं, जिससे वे समझ पाएं कि अमेरिका में काम कर रहे इन देशों के लोगों से अच्छी तरह काम किस प्रकार ले सकें. इसे एक तरह का जॉब मैनेजमेंट कहते हैं जिसकी ज़रूरत औसतन हर देश में हर प्रकार की कंपनियों को है. भारत के अधिकतर शिक्षा संस्थानों में इंटरनेशनल एजुकेशन पर ज़ोर दिया जा रहा है.
पढ़ाई के ़फायदे- भारतीय शिक्षा प्रणाली के संस्थानों के मुक़ाबले विदेश में विषयों की अधिकता है. इससे अपनी क़ाबिलियत और रुचि के अनुसार विषय का चुनाव आसानी से किया जा सकता है. कुछ ख़ास कोर्सेस जैसे पब्लिशिंग स्टडीज़, कन्ज़्यूमर प्रोडक्ट मैनेजमेंट स्टडीज़, चेंज मैनेजमेंट, फुटबॉल मैनेजमेंट, डेवलपमेंटल स्टडीज़, ग्लोबल बायो-डायवर्सिटी, सिक्यूरिटी स्टडीज़, इंटरनेशनल बिज़नेस, हेल्थ प्रोमोशन, करियर काउंसिलिंग, वाइल्ड लाइफ मैनेजमेंट, गोल्फ कोर्स मैनेजमेंट इत्यादि केवल विदेश से ही किए जा सकते हैं, क्योंकि इनकी पढ़ाई भारत में नहीं होती है. ज़्यादातर फ्रंटियर कोर्सों की शुरुआत भी विदेश में ही हुई है. यदि कोई ख़ास कोर्स करने की इच्छा होती है और उसका अता-पता देश में कहीं नहीं मिलता तो अधिक जानकारियों के साथ विदेश की ओर रुख़ कर सकते हैं.
वृहत परिदृश्य- विदेशों में करियर के विकल्प ज़्यादा हैं. साथ ही विश्वविद्यालयों की संख्या विदेश में अधिक हैं. इनमें से कई विश्वविद्यालय तो आपकी पिछली पढ़ाई को लेकर काफी उदारवादी रवैया अपनाते हैं. उदाहरण के तौर पर इकोनॉमिक्स में काफी पढ़ाई कर लेने के बाद यदि आप केमिकल इंजीनियरिंग पढ़ना चाहते हैं तो वहां आपकी इस इच्छा के लिए भी विकल्प मौजूद होते हैं.
दोहरी डिग्री के विकल्प- हम सब में से कइयों की विदेशी विश्वविद्यालयों में काफी दिलचस्पी रहती है. वहां का ़फायदा यह भी है कि एक कोर्स पढ़ते हुए दूसरे कोर्स में भी दाख़िला लेकर पढ़ाई की जा सकती है. मान लें कि आप मनोविज्ञान और वकालत दोनों ही पढ़ना चाहते हैं, तो आपको दोनों विषयों में डिग्री एकसाथ मिल जाएगी.
विकल्प- विदेश में भारतीय विद्याथिर्यों के लिए बहुआयामी विकल्प मौजूद हैं. विश्व के कई देश भारतीय छात्रों को लुभाने में प्रयत्नशील हैं. आज के विविध विकल्पों में छात्र ब्रिटेन, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, सिंगापुर इत्यादि में से चुन सकते हैं. कई विदेशी विश्वविद्यालय भारतीय शिक्षण संस्थानों से गठजोड़ कर रहे हैं. इससे वे भारत के किसी शिक्षण संस्थान से संपर्क करके अपने विश्वविद्यालय की कोर्स संरचना का प्रारूप तय करके यहां पढ़ रहे विद्यार्थियों को अपने विश्वविद्यालय की डिग्री देते हैं, जिसे आमतौर पर हम डिस्टेंस एजुकेशन यानी पत्राचार के नाम से जानते हैं. दूसरा यह कि विदेशी विश्वविद्यालय भारतीय संस्थान के साथ जुड़कर कोर्स के आधे व़क्त की डिग्री देश में तो आधे व़क्त की डिग्री विदेश में रहकर उनके मुख्य संस्थान में करने की छूट देते हैं. ये दोनों ही प्रयास इसलिए किए जा रहे हैं ताकि अंतरराष्ट्रीय शिक्षण प्रणाली का विस्तार भारत में भी हो सके.
कैसे जाएं विदेश- सबसे पहले भारत सरकार की ओर रजिस्टर्ड एजेंसियों के बारे में पता लगाएं. फिर किसी कंसलटेंट के पास जाएं. भारत सरकार के पासपोर्ट विभाग से ही पासपोर्ट बनवाएं. विदेशों में भाषा और अन्य जानकारियों पर ज़ोर दिया जाता है, जिसके लिए टॉयफेल, आईईएलटीएस, जीमैट, जीआरई की परीक्षाएं देनीे होती हैं. उसमें सेलेक्शन के बाद ही विद्यार्थी योग्य माना जाता है. ये परीक्षाएं ऑनलाइन होती हैं. इन परीक्षाओं में चयनित होने के बाद वीज़ा बनवाना पड़ता है.
ध्यान रखें- एजेंट के ज़रिए वीजा बनवाने से बेहतर है कि संबंधित देश के दूतावास से ख़ुद जाकर वीज़ा बनावाएं. इससे धोखाधड़ी से बचा जा सकता हैङ्क्ष, चूंकि यह वीज़ा कॉलेज में दाख़िले के प्रमाणित सर्टिफिकेट से बनते हैं तो इसमें जाली सर्टिफिकेट बनवाकर ़फर्ज़ी एजेंसियां पैसे लूटती हैं और ग़लत सर्टिफिकेट दिखाकर बनवाए वीज़ा पर जाने से वहां जाकर विद्यार्थी धोखा खा जाते हैं, क्योंकि उनका एडमिशन अमुक विश्वविद्यालय में हुआ ही नहीं होता है.
धोखाधड़ी का एक और तरीका है कि अपने कमीशन के चक्कर में एजेंसियां कम पैसे बताकर विद्यार्थी को विदेश भेज देते हैं और बाद में पता चलता है कि और भी मोटी रकम की ज़रूरत है, जिससे अनावश्यक तनाव पैदा हो जाता है.

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