Santosh-Sir

लोकतंत्र में चुनावी प्रक्रिया को दूषित करना और इस प्रक्रिया का फ़ायदा निहित स्वार्थों द्वारा उठाना लोकतंत्र के ख़िलाफ़ है. लोकतंत्र में जनता द्वारा एक बार नकारे गए व्यक्ति उसी चुनाव में दोबारा न खड़े हों, इससे चुनावी प्रक्रिया के साफ़ होने की संभावना बढ़ेगी. नकारे गए उम्मीदवार अगले चुनाव में भले ही खड़े हो जाएं, पर उस चुनाव में उन्हें खड़ा न होने देने का फैसला ही लोकतंत्र की अवधारणा के अनुकूल है.

क्या सुप्रीम कोर्ट यह भी तय करे कि अगर नाली बनानी है, तो नाली का आकार क्या होगा? ईंटें कहां से आएंगी? सीमेंट कहां से आएगा? या फिर सुप्रीम कोर्ट कहता है कि नाली यहां पर बननी चाहिए, तो उसे क्रियान्वित करने का काम उनका होगा, जिनके ऊपर इसकी ज़िम्मेदारी है? सुप्रीम कोर्ट को स़िर्फ सैद्धांतिक फैसला करना होता है. उसे क्रियान्वित करने का काम सरकार का या जिससे संबंधित वह फैसला होता है, उस संस्था का होता है. अफ़सोस की बात है कि यही नहीं हो रहा है.
श्री अन्ना हजारे ने सारे देश में चुनाव सुधारों के लिए कैंपेन किया, जिसमें उन्होंने कहा कि जनता को यह अधिकार मिलना चाहिए कि वो उन उम्मीदवारों को नकार दे, जो उम्मीदवार लोकसभा या विधानसभाओं के योग्य नहीं हैं. योग्य से मतलब है कि अगर वे अपराधी हैं, भ्रष्टाचारी हैं, सजायाफ़्ता हैं या दाग़ी हैं, तो उन्हें विधानसभा या लोकसभा में नहीं जाना चाहिए. सारे देश में अन्ना के इस सुझाव का ज़ोरदार स्वागत हुआ कि चुनाव आयोग को वोटिंग मशीन में आख़िरी लाल बटन बनाना चाहिए, जिसके माध्यम से जनता यह तय करे कि यदि उसे कोई भी उम्मीदवार पसंद नहीं है, तो वह उस लाल बटन को दबा दे. इसका मतलब दलीय या निर्दलीय उम्मीदवार, जिसे सबसे ज़्यादा वोट मिले हों और यदि उससे ज़्यादा वोट जनता लाल बटन दबाकर नापसंदगी वाले खाते में डाल दे, तो वो चुनाव कैंसिल हो जाएगा. अन्ना का यह भी कहना है कि ऐसी स्थिति में दोबारा चुनाव हों और जिन उम्मीदवारों को जनता नकार चुकी है, उन उम्मीदवारों को अगली बार खड़े होने की अनुमति न मिले. अन्ना के ये सुझाव देश भर के लोगों द्वारा समर्थित हैं.
हर्ष का विषय है कि सुप्रीम कोर्ट ने सैद्धांतिक रूप से यह मान लिया है कि इसी चुनाव में राइट टू रिजेक्ट का इस्तेमाल किया जाए. यानी जनता को यह अधिकार हो कि उसे अगर कोई भी उम्मीदवार पसंद न हो तो आख़िरी लाल बटन दबाकर नापसंदगी की मुहर लगा दे. सुप्रीम कोर्ट का यह सैद्धांतिक फैसला जनता के हाथ में एक हथियार दे सकता है. अब इसके आगे का काम चुनाव आयोग का है कि वो सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को प्रभावशाली ढंग से लागू करने के नियम-क़ायदे बनाए, लेकिन चुनाव आयोग अभी इस पर चुप है. अगर चुनाव आयोग अन्ना के सुझाव के अनुसार पूरी प्रक्रिया का निर्माण नहीं करता और सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को स़िर्फ वोटिंग मशीन में एक बटन का प्रावधान करके छोड़ देता है, तो यह न केवल सुप्रीम कोर्ट का अपमान होगा, बल्कि देश के वोटरों की आशाओं पर भी अवरोध लग जाएगा. देश की जनता सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पूरी तरह से क्रियान्वित होते देखना चाहती है.
अगर यह फैसला अन्ना के सुझाव के अनुरूप क्रियान्वित होता है, तो इसके दो फ़ायदे होंगे. पहला फ़ायदा यह कि दाग़ी उम्मीदवारों के किसी पार्टी से प्रत्याशी बनने की संभावना बेहद कम हो जाएगी, क्योंकि पार्टियों को डर होगा कि लोग उसके उम्मीदवार के ख़िलाफ़ लाल बटन दबा सकते हैं. दूसरे, इस बात की संभावना भी कम हो जाएगी कि उम्मीदवार दस से पंद्रह करोड़ रुपये ख़र्च कर लोगों को दिग्भ्रमित करे, क्योंकि उस स्थिति में उसके पंद्रह करोड़ रुपये पानी में जाएंगे और वह चुनाव लड़ने से भी वंचित हो जाएगा. इससे यह संभावना ब़ढ जाएगी कि राजनीतिक दल ज़्यादा से ज़्यादा सही उम्मीदवारों को खड़ा करें, पर हमारे देश में राजनीतिक दलों की मंशा हर अच्छे फैसले को पलटने की होती है, जिसका सबसे ताज़ा उदाहरण सुप्रीम कोर्ट द्वारा सजायाफ़्ता उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने से रोकने वाला फैसला है. जब इस फैसले के ख़िलाफ़ सरकार राज्यसभा में बिल लाई, तब इस बिल का समर्थन बीजेपी समेत सभी पार्टियों ने किया और अरुण जेटली का भाषण तो पढ़ने लायक है. पर चूंकि यह बिल शीतकालीन सत्र में पास होना है, इसलिए सभी राजनीतिक दलों की सहमति से सरकार ने एक अध्यादेश बनाने का मन बना लिया.
हमें डर है कि राजनीतिक दल सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को बदलने के लिए कोई न कोई सलाह चुनाव आयोग को देंगे और चुनाव आयोग सरकार की सहमति से सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के तार्किक असर को निष्प्रभावी बना देगा. अभी तक चुनाव आयोग ने कोर्ट के इस फैसले का न तो स्वागत किया है और न ही फैसले को लागू करने की प्रक्रिया का कोई ड्राफ्ट राजनीतिक दलों को सर्कुलेट किया है. दरअसल, यह ड्राफ्ट सार्वजनिक रूप से सर्कुलेट होना चाहिए, ताकि जनता यह जान सके कि चुनाव आयोग क्या करना चाहता है.
सुप्रीम कोर्ट से भी एक गुज़ारिश है कि वो सबसे पहले दागियों के चुनाव लड़ने के अपने फैसले के उस अंश पर विचार करे, जिसमें कहा गया कि कि अगर कोई व्यक्ति हवालात में है, तो वह भी नामांकन पत्र नहीं भर सकता. यह फैसला थाने के दरोग़ा को असीमित अधिकार देता है. साथ ही भ्रष्टाचार का बहुत बड़ा ज़रिया भी बन जाएगा. दूसरी तरफ़ निचली अदालतों का सम्मान करते हुए भी हम यह निवेदन करना चाहेंगे कि सुप्रीम कोर्ट अपने  फैसले को हाईकोर्ट के निर्णय से जोड़े, न कि उससे निचली अदालतों के फैसले से. या फिर सुप्रीम कोर्ट एक और क्रांतिकारी फैसला करे कि निचली अदालतों के जिस जज का फैसला हाईकोर्ट पलटे, उस जज के लिए किसी न किसी तरह के दंड का प्रावधान हो. इससे निचली अदालतों में ज़िम्मेदारी की भावना आएगी और वे ऐसे फैसले कम करेंगी, जो हाईकोर्ट में बदले जा सकें. एक सवाल खड़ा हुआ है कि जिस तरह कार्यपालिका और विधायिका में ज़िम्मेदारी तय करने की मांग उठ रही है, क्या वैसी ही मांग न्यायपालिका के लिए भी उठनी चाहिए?
सुप्रीम कोर्ट के सामने राइट टू रिजेक्ट के फैसले को लेकर कुछ सवाल और आ सकते हैं कि यदि राइट टू रिजेक्ट के अधिकार का इस्तेमाल करने वाले लोग चुनाव में खड़े लोगों को नकार देते हैं और उन्हें दोबारा चुनाव लड़ने का अधिकार आयोग नहीं देता है तो क्या यह उन उम्मीदवारों के व्यक्तिगत अधिकारों का हनन तो नहीं माना जाएगा. हमारा यह मानना है कि लोकतंत्र में चुनावी प्रक्रिया को दूषित करना और इस प्रक्रिया का फ़ायदा निहित स्वार्थों द्वारा उठाना लोकतंत्र के ख़िलाफ़ है. लोकतंत्र में जनता द्वारा एक बार नकारे गए व्यक्ति उसी चुनाव में दोबारा न खड़े हों, इससे चुनावी प्रक्रिया के साफ होने की संभावना बढ़ेगी. नकारे गए उम्मीदवार अगले चुनाव में भले ही खड़े हो जाएं, पर उस चुनाव में उन्हें खड़ा न होने देने का फैसला ही लोकतंत्र की अवधारणा के अनुकूल है. अब चुनाव आयोग को जल्द से जल्द फैसला लेना है.

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