तारीख़ 27 जून 1976 और एयर फ्रांस की फ्लाइट नंबर 139. बारह बजकर तीस मिनट पर यह विमान 248 यात्रियों एवं 12 क्रू मेंबर्स को लेकर एथेंस से पेरिस के लिए रवाना हुआ, लेकिन उड़ान भरने के कुछ समय बाद ही एक सनसनीखेज़ ख़बर आई. यह ख़बर थी विमान के अपहरण की. उसके बाद तो पूरे विमान में अफरातफरी मच गई. अपहरण की इतनी बड़ी वारदात हो चुकी थी, लेकिन किसी को अभी तक यह समझ में नहीं आ रहा था कि एयर फ्रांस के विमान का अपहरण आख़िर क्यों किया गया है? इसका पता भी उस व़क्त चल गया, जब अपहरणकर्ताओं ने अपनी मांग रखी. उनकी मांग थी कि इज़रायल अपनी क़ैद से 40 फिलिस्तीनियों को आज़ाद करे. इसके अलावा 13 अन्य लोग जो केन्या, फ्रांस, स्विटजरलैंड और पश्चिमी जर्मनी में क़ैद हैं, उन्हें भी जल्द से जल्द मुक्त किया जाए. यदि ऐसा नहीं किया गया तो वे एक जुलाई 1976 को सभी बंधकों को मौत के घाट उतार देंगे. यही धमकी दी थी उन अपहरणकर्ताओं ने और इसके लिए वे पूरी तरह तैयार होकर भी आए थे.

अपनी इस योजना के तहत उन्होंने सबसे पहले बंधकों को दो समूहों में बांट दिया. पहला समूह उन लोगों को था, जो यहूदी थे और दूसरा समूह बाक़ी सभी बंधकों का था. अब तक यह ज़ाहिर हो चुका था कि अपहरणकर्ता कौन थे और उनके मंसूबे क्या थे?

फिलीस्तीन और इज़रायल के बीच की आपसी जंग तो जगज़ाहिर थी और उनके बीच शह और मात का खेल हमेशा चलता रहा है. इस खेल में कभी फिलिस्तीनी तो कभी इज़रायली भारी पड़ता. मतलब यह कि अपहरणकर्ता कौन थे, इसका अंदाज़ा लगाना अब कतई मुश्किल नहीं था. इस वारदात को अंजाम दिया था फिलिस्तीनी संगठन ने और इस फिलिस्तीनी शख्स का ताल्लुक पॉपुलर फ्रंट फॉर द लिबरेशन ऑ़फ फिलीस्तीन से था. इस संगठन के दो शख्स विमान अपहरण की इस साज़िश में शामिल थे. लेकिन, हम आपको बता दें कि जब विमान का अपहरण हुआ था तो उस व़क्त चार लोगों ने अपहरण की इस साज़िश को अंजाम दिया था. मतलब यह कि दो लोगों की पहचान अभी भी छिपी हुई थी. उन दोनों की बातचीत से सा़फ ज़ाहिर हो रहा था कि उनकी आपसी बातचीत की भाषा जर्मन है यानी लोगों का संदेह उनके जर्मन नागरिक होने पर हुआ. लेकिन जो बात लोगों को अभी तक परेशान कर रही थी, वह यह कि आख़िर कोई जर्मन इस अपहरण की साज़िश को अंजाम क्यों दे सकता है? किसी फिलिस्तीनी के शामिल होने की बात उनकी समझ में आ रही थी. जब अपहरणकर्ताओं ने यात्रियों को यहूदी और ग़ैर यहूदी जैसे दो समूहों में बांटा, तभी उनकी समझ में आ गया था कि यह किसी फिलिस्तीनी संगठन की साज़िश है, जो इज़रायल से अपना बदला लेना चाहता है.

उक्त दोनों जर्मन नागरिकों के नाम थे, विल्फ्रेड बोज़ एवं ब्रिगिट कोल्हमन. इनके कारनामे से ही ज़ाहिर हो जाता है कि इन्होंने क्यों इस मिशन में फिलिस्तीनियों का साथ दिया. हम आपको बता दें कि इनका संबंध जर्मन संगठन रिवॉल्यूशनरी सेल से था और इस अपहरण की वारदात की अगुवाई करने वाला शख्स भी जर्मन नागरिक विल्फ्रेड बोज़ ही था. इसी के इशारे पर विमान को लीबिया के बेंग़ाज़ी हवाई अड्डे पर ईंधन भरने के लिए उतारा गया. तक़रीबन सात घंटे तक विमान इस हवाई अड्डे पर डेरा डाले रहा. उसके बाद एयर फ्रांस के इस विमान ने लीबिया से उड़ान भरी और क़रीब सवा तीन बजे यह युगांडा पहुंच गया. विमान को इंटेब्बे हवाई अड्डे पर उतारा गया. यहां अपहरणकर्ताओं के चार अन्य साथी जो पहले से ही उनका इंतज़ार कर रहे थे, उनके साथ हो लिए. लेकिन यहां सोचने वाली बात यह है कि आख़िर अपहरणकर्ताओं ने युगांडा का ही रुख़ क्यों किया? यदि आपसे भी यह सवाल पूछा जाए तो मुमकिन है कि आपका जवाब यही हो कि उनके चार साथी पहले से यहां इंतज़ार कर रहे थे इसीलिए. लेकिन, हक़ीक़त तो कुछ और ही थी.

दरअसल अपहरणकर्ताओं को एक ऐसी शख्सियत से शह मिल रही थी, जो एक देश का राष्ट्रपति था. यह बिल्कुल ही हैरान करने वाली बात थी, लेकिन थी सौ फीसदी सच. यही वजह थी कि विमान को लीबिया में उतारने के बावजूद अपहरणकर्ता ख़ुद को महफूज़ महसूस नहीं कर रहे थे. अपने मक़सद को अंजाम देने और ख़ुद की सही सलामती का पुख्ता इंतज़ाम वे पहले ही कर चुके थे. यही वजह है कि उन्होंने लीबिया को अपना ठिकाना न बनाकर उसकी जगह युगांडा को चुना. आख़िर उनके सिर पर एक राष्ट्रपति का हाथ था. यह राष्ट्रपति कोई और नहीं, बल्कि युगांडा के राष्ट्रपति ईदी अमीन थे, जिनकी फिलीस्तीन समर्थक सेना ने अपहरणकर्ताओं का भरपूर सहयोग किया. इस तरह विमान अपहरण की यह साज़िश का़फी उलझ कर रह गई थी. विमान अपहरण का मामला एक था और इसमें शामिल थे तीन मुल्क. जर्मनी रिवॉल्यूशनरी सेल के सदस्य नाज़ियों की हत्या का बदला इज़रायल से लेना चाहते थे. फिलिस्तीनियों की मंशा तो हमेशा से इज़रायल को नेस्तनाबूत करने की रही है और युगांडा के राष्ट्रपति इन दोनों को हर तरह से मदद कर रहे थे. इस दौरान एक बेहद ही चौंकाने वाला वाकया हुआ. अपहरणकर्ताओं ने 248 में से 143 यात्रियों को आज़ाद कर दिया, जबकि उनकी मांगें अभी भी नहीं मानी गई थीं. अभी भी उनके क़ब्ज़े में 105 लोग और थे, जिनमें 85 यहूदी थे तथा बाक़ी 20 ग़ैर यहूदी. हालांकि ग़ैर यहूदी बंधक और दूसरे लोग बग़ैर सभी यात्रियों के जाने को तैयार नहीं थे, लेकिन युगांडा के सैनिकों ने इंटेब्बे हवाई अड्डे पर मौजूद एयर फ्रांस के एक दूसरे विमान में उन्हें जबरन बैठा दिया.

इस तरह वह तारी़ख भी आ गई, जिसे अपहरणकर्ताओं द्वारा समय सीमा तय किया गया था यानी एक जुलाई. इस दिन इज़रायली सरकार ने अपहरणकर्ताओं से बातचीत की और डेड लाइन 4 जुलाई तक बढ़ाने को कहा. युगांडा के राष्ट्रपति ने भी अपहरणकर्ताओं से यही बात कही, जिसे मान लिया गया. लेकिन इज़रायली चालाकी और रणनीति से वाक़ि़फ होने के बावजूद अपहरणकर्ता एवं युगांडा के राष्ट्रपति यहीं पर मात खा गए. शायद वे इज़रायली सरकार और ख़ु़फिया एजेंसी मोसाद के मंसूबों को भांप नहीं पाए.

(शेष अगले अंक में…)

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