संस्कृतियों के द्वंद्व की बात याद आती है जो सैमुअल हटिंगटन ने कुछ दशक पहले कही थी। हम इसे छद्म धर्म और संस्कृतियों के लिए युद्ध समझें। एक बेमतलब का युद्ध तो हम रूस और यूक्रेन के बीच देख ही रहे हैं। जिसे ज्यादा से ज्यादा महीने भर का समझा जा रहा था वह घिसटते घिसटते साल भर से ज्यादा का हो गया है।‌
इजरायल और फिलीस्तीन का द्वंद्व दो झूठे धर्मों और उन धर्मों से बनी संस्कृतियों का ना खत्म होने जैसा युद्ध है। यहूदियों और अरबों की बरसों की लड़ाई। वर्चस्व की लड़ाई। यही वर्चस्व का दंभ दुनिया को तबाह करने को उतारू है। अमरीका हो चीन हो यूरोपीय देश हों एशियाई देश हों। एक तरफ वसुधैव कुटुंबकम् की बात होती है तो दूसरी तरफ एक दूसरे के अस्तित्व को नकार कर खुद को ज्यादा सशक्त साबित करने का खेल है। दुनिया के किसी मुल्क को प्रकृति की चिंता नहीं। प्रकृति को हम नष्ट कर रहे हैं तो प्रकृति हमें लील रही है। ब्रम्हांड में एक बिंदु सी पृथ्वी और इस बिंदु सी पृथ्वी में खुद के अस्तित्व का इतना दंभ धीरे धीरे लील ले रहा है सब कुछ। किसी को चिंता नहीं है। चिंता सिर्फ सेमिनारों तक सीमित हो कर रह जाती है। ये दूसरा युद्ध इजरायल और फिलीस्तीन के बीच एक बार फिर भड़का है। इस बार ज्यादा बड़े पैमाने पर। जब इजरायल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू घरेलू झंझटों से घिरे हैं उसका भरपूर फायदा उठा कर फिलीस्तीन के हमास लड़ाकों ने पांच हजार से ज्यादा रॉकेट दाग कर नेतन्याहू की नींद उड़ाई दी है। अब बारी नेतन्याहू की है जो सब कुछ नेस्तनाबूद करने की धमकी दे रहे हैं।
रूस और युक्रेन के युद्ध में केवल रूस-चीन के सामने अमरीका और यूरोप के नाटो देश हैं तो यहां इजरायल अमरीका रूस आदि के सामने समूचा अरब देशों का संघ । अब इस युद्ध में एशियाई देशों की ओर नजरें गढ़ी हैं सबकी कौन किधर जाता है। हमारे देश ने यानी मोदी ने इजरायल के साथ का ऐलान कर ही दिया है। हमें भूलना नहीं चाहिए कि इजरायल शुरु से आरएसएस के सपनों का देश रहा है। येरूशलम ईसाईयों और मुस्लिम समुदाय का धार्मिक केंद्र है और सारी लड़ाई इसी पर कब्जे की है। हम सबकी सहानुभूति फिलीस्तीन के साथ हमेशा से रही है। यासिर अराफात कई बार भारत दौरे पर आए हैं और भारत उनके लिए हमेशा एक प्रिय और मित्र देश रहा है। गुट निरपेक्ष आंदोलन के समय से ही सीधी रेखाएं तय हो गई थीं। लेकिन भविष्य कौन जानता है।
हम युद्ध की बात करें। युद्ध से विनाश की बात करें या सभ्यता को बचा कर उसे और समृद्ध बनाने की बात करें। जब हम तीसरे की बात करते हैं तो पाते हैं कि हर धर्म में ऐसे फकीर संत हुए हैं जिन्होंने मानवता के उत्थान और शिक्षा की बात की है। जो समाज अपने संतों से अलग चला वही भ्रष्ट होकर दिशाभ्रमित हो गया। जरूरी है आतंकवाद से दुनिया को बचाना। लेकिन पश्चिम आतंकवाद बेच रहा है और झूठे धर्म में पागल उस आतंकवाद से खेल रहे हैं। आज दुनिया में सबसे ज्यादा अफ्रीकी देश और मुस्लिम देश तरक्की में पीछे रह गए हैं। इसकी वजह अफ्रीकी देशों के प्रति उदासीनता और मुस्लिम देशों में कट्टरता और आतंक को बढ़ावा देने के सिवा कुछ नहीं है। जो देश विकास की रेस में पिछड़े हैं वे और पिछड़े हुए हैं और जो विकासशील हुए वे आज तक विकासशील ही बने हुए हैं। नारेबाजी से न दुनिया चलती है न जीवन चलता है। हम यदि खुद को सभ्य कहें तो हमसे ज्यादा भ्रम में कोई नहीं होगा। भ्रम ही है जो दंभ में रहने की आदत देता है। जितना जल्दी ये दुनिया सच्चाई समझ ले उतना पृथ्वी के इस गोले का भला होगा। और ये धरती बच सकेगी। वरना तो एक तरफ आतंकवाद मानवता का समूल नाश करेगा तो दूसरी तरफ प्रकृति समूची धरती को ही लील लेगी। भगत सिंह का संदेश था कि ‘बंदूक की नली से क्रांति नहीं आ सकती’ । गांधी का संदेश और जीवन तो दुनिया जानती है। फिर क्यों हम अंधे हैं ये उस आतंकवाद से पूछो।
कल ‘लाउड इंडिया टीवी’ पर अभय दुबे ने कमाल का इतिहास दोहराया। लाउड इंडिया से बहुत से लोग अभी भी वाकिफ नहीं हैं। पर जितने लोग जानते हैं या यूट्यूब पर अभय दुबे को देख लेते हैं तो सुनते हैं। कई मित्रों ने फोन करके कल के कार्यक्रम की तारीफ की । वाकई शानदार था। इजरायल फिलीस्तीन संघर्ष के इतिहास की बात तो थी ही । विकासशील देशों के सपनों की बात भी थी । ये सपने कहां से आये, किसने दिखाए।‌ अमरीका और यूरोपीय देशों के ज्ञान की फैक्टरी में ये सपने तैयार हुए और हमें बेचे गए। बहुत ही शानदार व्यख्या और विवेचन रहा अभय दुबे का । कार्यक्रम में ताजगी भी थी अपने देश की भड़भूजा राजनीति से अलग दुनिया के स्तर पर एकदम ताजा मुद्दा। इस कार्यक्रम को जितना ज्यादा देखा जाए उतनी अंतरराष्ट्रीय स्तर की समझ बढ़ेगी । संतोष भारतीय के सवाल अच्छे थे खासकर सपनों से संबंधित। लेकिन अभय जी को ‘पॉज़’ ले लेकर बोलना चाहिए। उनकी शैली सुपरफास्ट ट्रेन वाली है जिस पर संतोष जी पावर ब्रेक भी लगाएं तो भी ट्रेन आगे तो सरक कर ही रुकेगी। बेहतर है दोनों में तालमेल ऐसा हो जो सुनने वालों को भी पसंद आए । और भी अच्छा है यदि संतोष जी कुछ बोलने की बजाय उंगली उठा दिया करें। तो अभय जी तुरंत रुक जाएंगे शायद। जो भी है कल के कार्यक्रम की बहुत तारीफ हुई है। मुझे फोन करके लोगों ने बताया।
इसी तरह अमिताभ श्रीवास्तव का कार्यक्रम था। संयोग की बात रही कि मैं परसों शाम ही विशाल भारद्वाज की ‘खुफिया’ और ‘चार्ली चोपड़ा’ लेकर आया। मुझे साइबर कैफे से लाना पड़ता है। कल देखना था पर उससे पहले ही विशाल भारद्वाज पर यह प्रोग्राम आ गया।‌ ‘विशाल भारद्वाज की फिल्में क्या कहती हैं’ । अजय ब्रह्मात्मज का होना कार्यक्रम को काफी रोचक बनाता है। वे कहते हैं आप मुझे हर बार बुलाते हैं। हमारे विचार में तो अच्छा ही होता है कि वे हर कार्यक्रम में रहें। उनकी बेबाकी पसंद आती है। हर बेबाक व्यक्ति को बेबाकी पसंद आएगी ही । सौम्या बैजल ने बहुत अच्छी तरह विशाल भारद्वाज की फिल्मों पर बात की । वे केवल हंसती ही नहीं, कुछ कहती और बोलती भी हैं। और मौजूं बोलती हैं। मुझे जवरीमल पारेख की बेबाकी से कही एक बात बहुत पसंद आई। उन्होंने कहा कि विशाल भारद्वाज गुलजार से कहीं बड़े फिल्मकार हैं। वाकई । उनके चरित्र बड़े जटिल होते हैं जो गुलजार की फिल्मों में नहीं हैं। बेशक वे गुलजार की फैक्टरी से निकले हों और गुलजार के शिष्य रहे हों , बावजूद इसके। इस कार्यक्रम के बाद मेरे लिए दोनों देखना अच्छा रहेगा। उसी आलोक में देखूंगा। पिछले हफ्ते मैंने सोचा था कि अमिताभ ‘वैक्सीन वार’ पर करेंगे। जिसका कल या परसों मोदी ने भी एक सभा में आखिर प्रमोशन कर ही दिया। उस फिल्म में सबसे घटिया और नीच किस्म की बात मुझे अंत में ‘द डेली वायर’ की पत्रकार (समझिए आरफा खानम शेरवानी) से नाना पाटेकर की तकरीर पर ताली पिटवाना था। इस फिल्म की मजम्मत इस कार्यक्रम में की जानी चाहिए थी।
‘सत्य हिंदी’ के सवाल जवाब कार्यक्रम में हर व्यक्ति बढ़िया और सुधरा हुआ लगता है। लेकिन आशुतोष सवाल को पूरा नहीं सुनते है। उन्हें समझना चाहिए कि श्रोता और दर्शक का हक है कि सवाल वे भी सुनें। शीतल जी खूब मन से बोले। और अच्छा बोले। लेकिन उनका बेलगाम होना भी दिखा । जैसे अंकुर ने सिर्फ इतना पूछा कि शीतल जी कहीं बाहर देश गये थे, कहां। प्रश्न तो सिर्फ यही था और उत्तर ? वाह ! जैसे अंतहीन। मैंने शीतल जी को मैसेज किया कि आप कार्यक्रमों के पैनल से ज्यादा सवाल जवाब के कार्यक्रम में अच्छे लगते हैं। पैनल में तो मुद्दा कुछ होता है शीतल जी बोलते बोलते कहीं के कहीं चले जाते हैं । उन्हें समय का और अन्य पैनलिस्टों का ध्यान नहीं रहता। अंबरीष जी की हिलने की आदत गई नहीं। मन होता है कि भूमिका दें तो अपनी तस्वीर पर परदा डाल लें। दरअसल व्यक्ति में जब स्वत: सुधार आता है तो वही सही होता है। कहने से कोई नहीं सुधरता। आशुतोष को ही देख लें।‌ इसी तरह विजय विद्रोही सुबह अखबार लेकर आते हैं और कहते हैं कि सुबह के आठ बजे हैं। कई लोग बाद में देखते हैं वे चौंक जाते हैं। इसी तरह वे अखबारों को क्यों उठा कर दिखाते हैं समझ नहीं आता। क्या दर्शकों को आप पर विश्वास नहीं। कोई फोटो दिखानी हो तो बात अलग है। पहले मैं उन्हें लिख चुका हूं दोनों बातें। लेकिन फितरत होती है भूल जाने की । मुकेश कुमार की चर्चाएं सुनने लायक होती हैं। चर्चाएं तो उनकी सब गम्भीर होती हैं और वे स्वयं भी गम्भीरता से करते हैं लेकिन कई बार उनके पैनल को देख कर बैठने की इच्छा नहीं होती। राजेश बादल आज तक केजरीवाल को बी टीम ही बताए जा रहे हैं। निहायत फूहड़ बात है।‌ और लगभग वैसा ही होता है उनका विश्लेषण। अतीत के प्रसंगों पर जितना बुलवा लीजिए। सच तो यह है कि आजकल के सारे राजनीतिक विश्लेषण बोर ही होते हैं। उससे अच्छा है अच्छी फिल्में देखिए या कुछ अच्छी वेबसीरीज। राजनीति का जो होना होगा आपकी चर्चाओं से तो कुछ नहीं होगा। इन चर्चाओं से मुझे लगता है हम कुंद समाज को और कुंद कर रहे हैं।
मोदी जी से पूछिए तीसरे महायुद्ध पर आपका क्या कहना है तो निश्चित उनका जवाब होगा हार तय है तो महायुद्ध जरूरी है। कुछ मामलों में मोदी जी की किस्मत अच्छी ही समझिए।

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