अपनी धुन और इरादे के पक्के नलिन रंजन सिंह मीडिया और सिनेजगत का जाना-पहचाना नाम है। बिहार से दिल्ली तक के अपने सफ़र में उन्होंने बहुत कुछ ऐसा किया है, जो कर पाना बहुत लोगों का सपना होता है। दिल्ली यूनिवर्सिटी के एक रेपुटेड कॉलेज से पढ़ाई पूरी करने के बाद नलिन रंजन सिंह लंबे समय से मास मीडिया एक इंस्टिट्यूट चला रहे हैं, जहाँ उनकी कोशिश उभरती हुई प्रतिभाओं को निखारने और उन्हें एक मंच देने का है। इसी दौर में उन्हें फ़िल्ममेकिंग की सूझी और उन्होंने ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म के लिए कुछ बेहतरीन फ़िल्में बनाईं। फ़िल्म ‘गांधी टू हिटलर’ से उन्हें एक पहचान भी मिली। उनकी यात्रा, काम और विज़न पर पत्रकार और लेखक हीरेंद्र झा ने उनसे लंबी बातचीत की। प्रस्तुत हैं उस बातचीत के मुख्य अंश-

हीरेंद्र: लॉक डाउन एक बड़ा ही कठिन समय रहा, इस समय का आपने कैसे इस्तेमाल किया?
नलिन रंजन सिंह: बिल्कुल लॉक डाउन एक बड़ा ही कठिन समय रहा। देश ही नहीं दुनिया भर में इसका असर देखने को मिला। मेरे साथ संयोग ऐसा हुआ कि मैं अपनी माँ को दिल्ली लाने के लिए पटना गया हुआ था। इसी दौरान लॉक डाउन हो गया। मैंने काफी समय दिल्ली में बिताया है तो लंबे समय से अपने होम टाउन में रहने का मौका नहीं मिला था तो लॉकडाउन में यह मौका मिल गया। इस समय को मैं काफी इन्जॉय कर रहा था। घर पर अपना मनपसंद और हेल्दी खाना खा रहा था। शुद्ध ताज़ा हवा खा रहे थे, वहाँ केसेस भी कम थे तो पार्क में दौड़ भी लगा रहा था। कुल मिलाकर बड़ा ही शानदार अनुभव रहा।
हीरेंद्र: मतलब लॉक डाउन वरदान साबित हुआ आपके लिए?


नलिन रंजन सिंह: शुरू के दो महीने तो बहुत ही अच्छे रहे लेकिन, उसके बाद आर्थिक दिक्कतें होनी शुरू हो गईं। पैसे खत्म होने लगे। तनाव और घबराहट भी होने लगा था। मेरे पास बस मेरा मोबाइल और इंटरनेट था। बहुत सोचने के बाद मैंने अपने आर्ट पर भरोसा किया। मैं समझ गया था कि इंडिया में लोग अभी आर्थिक रूप से परेशान हैं तो मैंने Mauritius के लिए सोशल मीडिया के जरिए रेडियो जॉकी और फ़िल्म मेकिंग के कॉर्सेस के लिए एड देना शुरू किया और वहाँ से मुझे लोग मिलने लगे और उसके बाद मैंने लगातार वेब के जरिए उन्हें ट्रेनिंग देना शुरू किया और इस तरह से मैंने अपने टाइम का बखूबी इस्तेमाल किया। कोरोना काल ने यह सीखा दिया कि अगर हमारे पास एक मोबाइल और इंटरनेट है और कोई इनोवेटिव आइडिया है तो हम कुछ भी कर सकते हैं।

हीरेंद्र: आपने तो खुद को इस तरह से संभाला लेकिन, इस दौरान कई आर्टिस्ट पूरी तरह बिखर गए। ऐसे समय में कोई खुद को कैसे मोटिवेट रखे?
नलिन रंजन सिंह: मैं इस दौरान सोशल मीडिया पर लगातार आर्टिस्ट लोगों के लिए अपील करता रहा। मेरी कोशिश यही थी कि कोई भी भूखा न सोये। मैंने कई वर्कशॉप किये और सभी को मोटिवेट किया और उन्हें बताया कि अपने मोबाइल को अपना हथियार बनाइये और जैसे भी हो अपने हुनर से आप कई तरह के प्लेटफ़ॉर्म हैं उनसे जुड़कर पैसे भी बना सकते हैं और खुद को निखार भी सकते हैं। सिर्फ़ आर्टिस्टस ही नहीं कई मजदूरों के लिए भी मदद को हम आगे आए। अपने मीडिया के साथियों और कॉलेज के अन्य दोस्तों के साथ मिलकर उन्हें हर संभव मदद पहुंचाते रहे। समय की मांग भी यही थी। जो अपने स्तर पर जो कुछ भी कर सकता था, वो कर रहा था। मैं उन सभी का शुक्रगुजार हूँ।


हीरेंद्र: कॉलेज का ज़िक्र आया तो उस दौर को कैसे याद करते हैं?
नलिन रंजन सिंह: डीयू का हंसराज कॉलेज जो है वो बेस्ट ब्रेन ऑफ द कंट्री है। वहाँ एक फ़्रीडम है, आप जो करना चाहते हैं कीजिए। टीचर्स बड़े अच्छे हैं, वो आपको वो विज़न दे जाते हैं कि आप अपने जीवन और सपनों को लेकर स्पष्ट होते जाते हैं। इम्तियाज़ अली, विशाल भारद्वाज से लेकर अर्नब गोस्वामी तक वहाँ से निकले, जिन्होंने एक बड़ी पहचान बनाई।

हीरेंद्र: आपने कॉलेज लाइफ़ पर एक फ़िल्म भी बनाई थी?
नलिन रंजन सिंह: जी, ‘माय वर्जिन डायरीज़’ नाम से मैंने एक जीरो बजट फ़िल्म बनाई थी। मेरे एक रूम पार्टनर थे अरुण जायसवाल, उन्होंने सुसाइड कर लिया था तो वो फ़िल्म उन्हीं की लाइफ़ पर बनाई थी। उस फ़िल्म ने डिजिटल डिस्ट्रीब्यूशन के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए।

हीरेंद्र: डिजिटल मीडिया की बात करें तो आज के समय में यह बूम पर है, क्या इससे सिनेमा घरों को डरने की जरूरत है?
नलिन रंजन सिंह: बिल्कुल, डिजिटल माध्यम ने सिनेमा घरों का वर्चस्व तोड़ा है। मुंबई इंडस्ट्री में बहुत गंदगी है, छोटे लोगों को फ़िल्म बना लेने के बाद फ़िल्म रिलीज करने के लिए थियेटर तक नहीं मिल पाता। ऐसे में डिजिटल मीडियम ने कमाल का काम किया है और इसलिए भी मैंने तय किया है कि मैं नए लोगों को लेकर सिर्फ़ और सिर्फ़ डिजिटल माध्यमों के लिए ही फ़िल्में बनाऊँगा। अभी हम दो फ़िल्म और दो वेब सीरीज पर काम कर रहे हैं।

हीरेंद्र: आउट साइडर के लिए इंडस्ट्री में सच में बहुत चुनौती है?
नलिन रंजन सिंह: बहुत चुनौती है। आउटसाइडर्स के लिए राहें आसान नहीं है। भेदभाव तो होता ही है। इस पर यही कहूँगा कि यह भेदभाव गलत है, ऐसा नहीं होना चाहिए।

Adv from Sponsors